गुरुकुल ५

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Monday, 30 January 2012

लहरें


संसार में सब दुखी हों
सबका सत्यानाश हो
संताप हो प्रतिपल
सब रोगग्रस्त हों


कभी किसी का
कल्याण न हो
सबके राहों पर
कांटे ही कांटे हों

मन सोचने लगा ,
क्या सोचने लगा ?







किसने बनाई दुनियां?
किसने दिये सपने?
क्यों फूल राहों में?
बिखरायें सदा हम ही
क्यों पोंछते मिलें?
अनजान के आंसू
हर राह हों अपनी
हों मंजिलें आसां
क्यों छत रहे सर पर?
क्यों नम रहें आंखें?
क्या रात हों काली?
क्यों कोंख हों खाली?
मन सोचने लगा
क्या सोचने लगा?

हर दिन हो दिवाली
सर्वत्र खुशहाली
मन की कठौती में
हो धार गंगा की
सब पार हों भव से
बरसात अमृत की
समभाव हो मन में
समदृष्टि हो सबकी
मन सोचने लगा
क्या सोचने लगा?

रमाकांत सिंह 14/11/2010
चित्र गूगल से साभार

5 comments:

  1. मन का हिंडोला.

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  2. मन में आते जाते भाव..... सकारात्मक बने रहें तो बेहतर, हमारे लिए भी और दूसरों के लिए भी.....

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  3. सुन्दर रचना,सुन्दर भावाभिव्यक्ति.

    कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" पर भी पधारें, अपनी राय दें, आभारी होऊंगा.

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  4. सुन्दर लिखा है |

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