अपने ही बुने ककून में
बनने लगी समाधि
पूरी बनती कैसे
रही अधूरी आधी
ज़ख्म अपनों के दिये
गैर हाथों सी दिये
जो जहां जैसा भी था
हाथ धरकर हाथ पर
यूं कारवां बनता गया
और सब गाफि़ल हुए
शोर सन्नाटों के डर से
हम भी शामिल हो गए
रमाकांत सिंह 17/06/1995
आदरणीया अमृता तन्मय जी
अमृतातन्मय डाट ब्लाग स्पाट डाट काम
के अंगूठा को भेंट
बनने लगी समाधि
पूरी बनती कैसे
रही अधूरी आधी
ज़ख्म अपनों के दिये
गैर हाथों सी दिये
जो जहां जैसा भी था
हाथ धरकर हाथ पर
यूं कारवां बनता गया
और सब गाफि़ल हुए
शोर सन्नाटों के डर से
हम भी शामिल हो गए
रमाकांत सिंह 17/06/1995
आदरणीया अमृता तन्मय जी
अमृतातन्मय डाट ब्लाग स्पाट डाट काम
के अंगूठा को भेंट
सुंदर भाव, सुंदर शब्द।
ReplyDeleteआपका ऐसा ही स्नेह लिखने की प्रेरणा देता है
ReplyDeleteआभारी हूँ