गुरुकुल ५

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Saturday 30 November 2013

यकीन 3

मैं तुमसे बेइन्तहा नफ़रत करती हूँ

मैं यकीन करती गई
तेरे हर वादे पर
और तू
हर्फ़ दर हर्फ़
छलता रहा
अब मैं बस चाहती हूँ
खून के बदले खून
आंसूंओं से भीगा चेहरा
हर ज़ुल्म का हिसाब
दर्द के बदले दर्द
चौराहे पर बेइज्जती
शर्म से झुका चेहरा
हर अपमान का बदला
जो तूने बिन मांगे
बिन अपराध
मढ़ दिया माथे पर
लेकिन
क्या करूँ?
मैं तुमसे
बेइन्तहां मुहब्बत करती हूँ
तू जानता है
और तेरे ज़ुल्म की
इन्तहां बढ़ जाती है

लेकिन
आज
तुम जानते हो?
मैं तुमसे बेइन्तहा
नफ़रत करती हूँ

२० नवम्बर २०१३
सौजन्य से यकीन ब्लॉग के सर्जक से
चित्र गूगल के सौजन्य से 

Tuesday 26 November 2013

परेशाँ क्यूँ है?

रमाकांत सिंह 

*
आसमां बादलों से परेशाँ क्यूँ है?
घर लोगों से बेवज़ह हैरां क्यूँ है?
ज़िन्दगी खुश है तेरे जानिब यूँ?
फिर ये चेहरा हंसीन वीराँ क्यूँ है?

**
रोशन है ये जहाँ दिल अन्धेरा क्यूँ है?
शोर दीवाली का फिर ये मायूसी क्यूँ है?
लोग खुश महफ़िल में आँखें नम क्यूँ है
जलजला आँखों में यूँ दिल बंज़र क्यूँ है

***
देख मुश्किलों में इन्सां मुस्कुराता क्यूँ है?
तैरकर दरिया में आज मन प्यासा क्यूँ है?
हर हंसीं चहरे पे हंसी है फिर मातम क्यूँ है?
राह अपनी आसां मंज़िल आज कांटे क्यूँ हैं

24  नवम्बर 2013
समर्पित मेरी ज़िन्दगी को
     

Thursday 7 November 2013

टहलते दरख़्त


                                              मेरी भांजी * श्रीमती अंजू ठाकुर *
*
मौन हैं लोग आज
टहलते दरख़्त तले
सूरज के साये में
जागता मुर्दा

**
अंधों के हाथ पकड़
भूख से हँसता बच्चा
अमन चैन पर चिढ़ते
पंडित, मौलवी, फ़क़ीर

***
बर्फ की गर्मी से
पिघलता क़ाफ़िर
नरम पत्थर पर
चैन की नींद ले

****
ओस से सुखी चादर
ख़ुशी के आंसू समेट
रोशनी फैलाती
अमावस की रात

*****
ठहरता वक़्त
बुझते दीपक से
छलता फिर द्वार द्वार
प्रेम का सन्देश धर

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धूप में टहलता छॉंव
नित इशारे कर
ठहर दम लेने दे
सहर ज़रा होने दे

*******
गमगीन शैतान
दिखता आकुल आज
दुःख शबाब पर?
गर्दिश में गम?

********
आंसुओं में डूबा
बेरहम कातिल
हंस रहा?
ज़ख्मों पर

*********
जूठन पर इतराता
लंगड़ा भिखारी
लड़ते लोग
कुर्सी की खातिर

*********
सुलगता समंदर
मौन हैं लहरें
हुजूम दरिंदों का
सन्देश शांति ले

०२ नवम्बर २०१३

समर्पित मेरी भांजी * श्रीमती अंजू ठाकुर *को { चित्र }

***आजकल एक अज़ीब सी बेचैनी है दिलो दिमाग में
सब कुछ बिखरा सा , चीजें अपना अस्तित्व खोती और
मेरा यकीन डगमगाता शायद इसी ऊहापोह का नतीज़ा ये रचना