मैं तुमसे बेइन्तहा नफ़रत करती हूँ |
मैं यकीन करती गई
तेरे हर वादे पर
और तू
हर्फ़ दर हर्फ़
छलता रहा
अब मैं बस चाहती हूँ
खून के बदले खून
आंसूंओं से भीगा चेहरा
हर ज़ुल्म का हिसाब
दर्द के बदले दर्द
चौराहे पर बेइज्जती
शर्म से झुका चेहरा
हर अपमान का बदला
जो तूने बिन मांगे
बिन अपराध
मढ़ दिया माथे पर
लेकिन
क्या करूँ?
मैं तुमसे
बेइन्तहां मुहब्बत करती हूँ
तू जानता है
और तेरे ज़ुल्म की
इन्तहां बढ़ जाती है
लेकिन
आज
तुम जानते हो?
मैं तुमसे बेइन्तहा
नफ़रत करती हूँ
२० नवम्बर २०१३
सौजन्य से यकीन ब्लॉग के सर्जक से
चित्र गूगल के सौजन्य से
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (01-112-2013) को "निर्विकार होना ही पड़ता है" (चर्चा मंचःअंक 1448)
पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जुल्म कि इन्तहा बढ़ जाती है तो नफरत आ ही जाती है
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण रचना...
क्या करूँ?
ReplyDeleteमैं तुमसे
बेइन्तहां मुहब्बत करती हूँ
तू जानता है
और तेरे ज़ुल्म की
इन्तहां बढ़ जाती है...
बहुत सुंदर उत्कृष्ट रचना ....!
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नई पोस्ट-: चुनाव आया...
शब्दों से परे जाकर बहुत कुछ कहती हुई रचना!!
ReplyDeleteप्रेम के बाद आने वाले नफरत को झेलना आसां नहीं होता ... शब्द बहुत कुछ कह रहे हैं ...
ReplyDeleteसही कहा है..
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