गुरुकुल ५

# गुरुकुल ५ # पीथमपुर मेला # पद्म श्री अनुज शर्मा # रेल, सड़क निर्माण विभाग और नगर निगम # गुरुकुल ४ # वक़्त # अलविदा # विक्रम और वेताल १७ # क्षितिज # आप # विक्रम और वेताल १६ # विक्रम और वेताल १५ # यकीन 3 # परेशाँ क्यूँ है? # टहलते दरख़्त # बारिस # जन्म दिन # वोट / पात्रता # मेरा अंदाज़ # श्रद्धा # रिश्ता / मेरी माँ # विक्रम और वेताल 14 # विनम्र आग्रह २ # तेरे निशां # मेरी आवाज / दीपक # वसीयत WILL # छलावा # पुण्यतिथि # जन्मदिन # साया # मैं फ़रिश्ता हूँ? # समापन? # आत्महत्या भाग २ # आत्महत्या भाग 1 # परी / FAIRY QUEEN # विक्रम और वेताल 13 # तेरे बिन # धान के कटोरा / छत्तीसगढ़ CG # जियो तो जानूं # निर्विकार / मौन / निश्छल # ये कैसा रिश्ता है # नक्सली / वनवासी # ठगा सा # तेरी झोली में # फैसला हम पर # राजपथ # जहर / अमृत # याद # भरोसा # सत्यं शिवं सुन्दरं # सारथी / रथी भाग १ # बनूं तो क्या बनूं # कोलाबेरी डी # झूठ /आदर्श # चिराग # अगला जन्म # सादगी # गुरुकुल / गुरु ३ # विक्रम वेताल १२ # गुरुकुल/ गुरु २ # गुरुकुल / गुरु # दीवानगी # विक्रम वेताल ११ # विक्रम वेताल १०/ नमकहराम # आसक्ति infatuation # यकीन २ # राम मर्यादा पुरुषोत्तम # मौलिकता बनाम परिवर्तन २ # मौलिकता बनाम परिवर्तन 1 # तेरी यादें # मेरा विद्यालय और राष्ट्रिय पर्व # तेरा प्यार # एक ही पल में # मौत # ज़िन्दगी # विक्रम वेताल 9 # विक्रम वेताल 8 # विद्यालय 2 # विद्यालय # खेद # अनागत / नव वर्ष # गमक # जीवन # विक्रम वेताल 7 # बंजर # मैं अहंकार # पलायन # ना लिखूं # बेगाना # विक्रम और वेताल 6 # लम्हा-लम्हा # खता # बुलबुले # आदरणीय # बंद # अकलतरा सुदर्शन # विक्रम और वेताल 4 # क्षितिजा # सपने # महत्वाकांक्षा # शमअ-ए-राह # दशा # विक्रम और वेताल 3 # टूट पड़ें # राम-कृष्ण # मेरा भ्रम? # आस्था और विश्वास # विक्रम और वेताल 2 # विक्रम और वेताल # पहेली # नया द्वार # नेह # घनी छांव # फरेब # पर्यावरण # फ़साना # लक्ष्य # प्रतीक्षा # एहसास # स्पर्श # नींद # जन्मना # सबा # विनम्र आग्रह # पंथहीन # क्यों # घर-घर की कहानी # यकीन # हिंसा # दिल # सखी # उस पार # बन जाना # राजमाता कैकेयी # किनारा # शाश्वत # आह्वान # टूटती कडि़यां # बोलती बंद # मां # भेड़िया # तुम बदल गई ? # कल और आज # छत्तीसगढ़ के परंपरागत आभूषण # पल # कालजयी # नोनी

Monday 30 January 2012

लहरें


संसार में सब दुखी हों
सबका सत्यानाश हो
संताप हो प्रतिपल
सब रोगग्रस्त हों


कभी किसी का
कल्याण न हो
सबके राहों पर
कांटे ही कांटे हों

मन सोचने लगा ,
क्या सोचने लगा ?







किसने बनाई दुनियां?
किसने दिये सपने?
क्यों फूल राहों में?
बिखरायें सदा हम ही
क्यों पोंछते मिलें?
अनजान के आंसू
हर राह हों अपनी
हों मंजिलें आसां
क्यों छत रहे सर पर?
क्यों नम रहें आंखें?
क्या रात हों काली?
क्यों कोंख हों खाली?
मन सोचने लगा
क्या सोचने लगा?

हर दिन हो दिवाली
सर्वत्र खुशहाली
मन की कठौती में
हो धार गंगा की
सब पार हों भव से
बरसात अमृत की
समभाव हो मन में
समदृष्टि हो सबकी
मन सोचने लगा
क्या सोचने लगा?

रमाकांत सिंह 14/11/2010
चित्र गूगल से साभार

Saturday 28 January 2012

अशआर

रश्क आता है तेरे, रक्श पे अल्ला मेरे
साज़ कहीं और साजि़न्दे, न नजर आया घुंघरू

वक्त-ए-दरिया यहां सैलाब लिये आया है
बादपां दर्द क्यूं अश्कों में सिमट आया है

जुस्तजू मौत की, दहलीज तेरे ईश्क का
ग़म की ताबीर का, ज़र्रा न तेरी महफिल में

अक्स देखा था, कभी पलकों पे
आज डूबा है, अक्स अश्कों में

मौत की दहलीज़ पर बैठा हूं जुस्तजू करने
मौत सरे-शाम कल आयेगी उम्र भर के लिए

मौत कभी हश्र का मोहताज नहीं
मौत आगाज़ है अन्जाम नहीं

बादपां दस्तक का यूं मुंतजि़र कौन था
ये तो आगाज़ ना अन्जाम हुआ

चला यूं सरे-आम करके चाक गिरेबां मेरा
दर्द बढ़ता गया एहसास दर एहसास तेरा

फासला बढ़ता गया और हम ग़ाफिल रहे
हमसे दामन जो छुडाया तो ये एहसास हुआ

यूं तेरा तल्ख़ी से जाना मुझे वाजिब न लगा
ऐसे दामन को झटकना था तो क्यूं साथ चला

आज हर शख्स क्यूं बेइमान नज़र आता है
मेरा ही चेहरा मुझे अनजान नजर आता है

खीचता हूं लकीर लहरों पे
झुकता आसमां नज़र आता है

शिकायत उनसे होती है जो अपने ही नहीं होते
जो अपने हों भला सोचो शिकायत फिर कहां होगी

लिखावट को बदलने की हम तास़ीर रखते हैं
तेरी तक़दीर को पढ़कर खुदा भी मुस्कुरायेगा

नींद आती ही नहीं सपने दिखते नहीं
ख्वाब आते हैं बस अपने क्यूं होते नहीं

मैने तिनकों से धर सजाया है
किसी झोंके से न बिखरने दूंगा

तेरे एहसास से मैं जिंदा हूं
तेरे एहसास से मर जाउंगा

जि़न्दगी को मुझे सौंपा है जिस भरोसे से
बढा हाथ ज़रा फिर जिन्दगी पे एतबार कर

आपका साथ आपकी बात हर बात पर हर बात बनती है
वर्ना इस गर्द भरी दुनियां में सिवा आपके रखा क्या ही है

मंजि़ल पास होने पर हौसला डगमगाता है
तेरे ही जैसे बन्दे को खुदा भी आज़माता है

जि़न्दगी का फलसफा ही कुछ और है मालिक
हर शख्स को समझ आये वो क्या जि़न्दगी

अभी शर्म बाकी है नज़रों में मेरे
यूं सजदे में सर को झुकाया है तेरे

देखें आपका दिल बड़ा
या नसीब छोटा मेरा

भरोसा अपना या ऐतबार अपने प्यार का
आपका टूटा या डर लगता है खुद से

कहीं आपकी आंखें प्यार का इज़हार न कर दें
यूं नज़रें घुमाये क्यूं बैठी हो किसी इंतज़ार में

वक्त का हर सफर हर कदम अपना अक्श
छोड़ता चला गया जि़न्दगी जैसे थम सी गई

बेवजह हम चलते रहे चलते रहे चलते रहे
हर वक्त हर बार मेरे साथ ही ऐसा क्यूं?

चलो इसी बहाने जो भरम टूटा खुद से
आपकी अश्कों का फलसफा हम जान गये

निकल आये मेरे अश्क हंसने से पहले
क्यूं रूठ जाते हैं ख्वाब बनने से पहले

साहिल से टकराकर लहरों की मानिन्द
लौटता गया घायल सख्त वजूद मेरा

बादपां वक्त का दस्तक पर दस्तक,
यूं लगे दोस्ताना सहर का एक शहर से

मृत्यु का एहसास जीने की उत्कठ अभिलाषा
सिलवटें सांसों की हर लम्हा दिल के करीब

यूं कारवां चलता रहे ये कश्तियां पतवार हों
हम रहें या न रहें ये भंवर ना मंझधार हों

यूं तमाशाई बन बगलगीर ना हो
ये तेरे ही दिये आंसू हैं जो लौटाने हैं

मानक बदल गया बदला हवा का रूख
मौसम की भांति हम बदले हैं अपने आप

बंद पलकों में तेरे ख्वाब सजाउं कैसे
यूं हरेक शाम तेरी याद जब रूलायेगी

क्यूं सितारों से तेरे दर का पता पूछूं मैं
सूनी राहों से तेरी जब ये सदा आयेगी

मैं हर एक मोड़ से अपनी खता पूछूंगा
बंद होठों से जब भी गीत गुनगुनाओगी

Friday 27 January 2012

अंतिम यात्रा

बचपन के सनेह
पिता के गेह
कल की खनक
न समझे कभी
अनबुझे अभी भी
भरमाते रहे,

चाय की चुस्की
बातों की खुश्की
अर्थ की सुस्ती
मौज न मस्ती
रिश्तों से प्रेम
विश्वास के नेम
झनकते रहे,

दादा का कुआं
बीड़ी का धुआं
मुंह में गाली
बाग का माली
भाजी का परोसा
हाथ का भरोसा
थकते रहे,

मां की व्यथा
बहनों के आंसू
भाई के खून
हास-परिहास से
विधाता के त्रास
बहते रहे,

मृत्यु का वरण
अनजाने हरण
रेत कणों सा
हर पल क्षरण
अपनों के नयनों में
जीवन-मरण
सहते रहे,

पिता संग यात्रा
हास न त्रास
वार्ता न रूदन


पीड़ा न क्रन्दन
मोक्ष को अपने
संग-अकेल
चलते रहे,

शंखों का नाद
घंटों का निनाद
वेदों के वाक्य
उपनिषदों के श्लोक
मन को शांत
चेतना को क्लांत
करते रहे

रमाकांत सिंह 14/08/1994
पिता की मृत्यु के बाद उनके रिक्तता पर
बाबूजी मेरे पिता के साथ-साथ अच्छे मित्र
भी रहे, उनके अनुशासन एवं मार्गदर्शन से
ही जीवन में स्थिरता मिली।

Thursday 26 January 2012

कामना

स्वर्ण कलशों में
गोरस की धार से
सब क्या नहाते है?
अमृत की बूदों को

सब ललच जाते हैं,
सागर में रहकर भी
प्यासे एक बूंद को,
अंगूर के बेल तले
नीम को चबाते हैं

चाहेगा कौन फिर?
मरना फिर जीना,
चिर हो या क्षणिक
पर मंज़र बनाते हैं,

कौन ये चाहेगा?
पतझड़ का मौसम,
ठूंठ पर बन अमरबेल
जीवन बिताते हैं?


रमाकांत सिंह
11/01/1977
चित्र पिकासा से साभार

Tuesday 24 January 2012

मुखौटा

प्रजातंत्र का अस्तित्व
मेरे देश में कहां है?
जो जहां बैठा था
वही पुनः वहां है


मुखौटे से मुखौटे
थोड़े कुछ बदले हैं
यहां से वहां जाकर
आसन बस अदले हैं


नेता जी हंसकर कब बोले?
भाषन में मुंह थोड़ा सा खोले
बंधु तुम जानते नहीं?
भरम को पहचानते नहीं

यहां परतंत्र है
यहां पर तंत्र है
यहां परतंत्र हैं
यहां लोकतंत्र है

यहां पर तंत्र हैं
यहां परतंत्र हैं?
यही लोकतंत्र है
यहीं प्रजातंत्र है

यहां कैसे आदमी?
पागल खसुआये
जंजीरों में जकड़ा
कुत्ते सा स्वतंत्र है

मेरा देश महान है
इंसान बस इंसान है
हमें सबकी परवाह है?
तब ही तो ये चारागाह है

हमें अपनी उपलब्धियों पर
सदा-सदा केवल गर्व है
पंद्रह अगस्त को ही भैया
गणतंत्र पर्व है, गणतंत्र पर्व है

रमाकांत सिंह 17/09/1981
चित्र गूगल से साभार

Monday 23 January 2012

प्रतिशोध


राजपथ पर घटित
एक वारदात
प्रतिशोध या हत्या
और चिंतित हो गये
संपूर्ण नपुंसक
न कोई चिंतन
न कोई चिंता,

आजादी के बाद भी
विगत वर्षों में
सरहद पर होती
अनगिनत हत्याओं को
शहादत बतलाकर
ओढ़ा दिया तिरंगा,


बिलखती रही मां
निढाल हो गये बच्चे
कागजी ढ़ाढ़स से
अपनों की छांव में,

अतिथी के वेष में
पहुंचा सौदागर
पड़ोसी परदेश से
और सब
शालीनता-विनम्रता में
भूल गए पूछना
न ही कभी दी चेतावनी
न ही कभी करारा जवाब

किन्तु चिंतित हो गये
राजपथ की हत्या पर
क्योंकि इस राह पर
बरसों इन्हें टहलना है

रमाकांत सिंह 25/07/2001
चित्र गूगल से साभार

Sunday 22 January 2012

आतंक

परदेश की पगडंडियों से
अचानक एक दिन
मेरे गांव के चैराहे होकर
घर की दहलीज़ तक
श्रम कणों की जगह
खून की महक लेकर
आया रंगरेजवा
हमारी आत्मा को रंगने

सींचा है जिसे
धरोहर मानकर
पीढ़ी दर पीढ़ी
मेरे पुरखों नें
सूरज की गर्मी में
बारिश की धार में
सर्द रातों में
बिन छल-प्रपंच
अपने रक्त से

और तमाम उम्र
उंघते ये लोग
मुंह अंधेरे एक दिन
खुले आसमां तले
स्वार्थ की चादर ओढ़
चंद सपनों की खातिर
कांपते हाथों
अपनी ही अस्मिता पर
प्रश्न चिन्ह लगा बैठे

रमाकांत सिंह 06/08/1997
आपसे अनुरोध आतंकवादियों को पनाह न दें
न ही किसी कीमत पर अपनी आत्मा का सौदा करें
चित्र गूगल से साभार  

आंसू


जेठ की धूप में
लगने लगी ठंड
सूरज की रोशनी में भी
मन का अंधेरा
अचानक लगा
जस का तस

भौंरौं की गूंज से
नदी के कलकल में
पवन के झोंकों से
न तनिक स्पंदन
कोयल की कूक से
पत्तों के सरसराहट से
निर्जन बन में
मन की थकन से

भरी दोपहरी
चांद और तारे
लगे झिलमिलाने
खुले आसमां तले
शायद
वसुधा पर गिरे
अश्रू कणों ने
मन को भिगो दिया

रमाकांत सिंह 31/12/2009
चित्र गूगल से साभार

Friday 20 January 2012

अनगढ़


कुम्हार गीली मिट्टी से
अनगढ़ गढ़ गया
वेदों की बातें
लकड़हारा कह गया

बच्चा के संगत में संत
निपट मूरख रह गया
सत्य खोजने में कब?
बुद्ध खो गया.

कंठ मुक्त होता है
जब प्रश्न अनुत्तरित
तब दिशा भ्रम में
क्रोध उपजता है

धारणाएं छिन्न-भिन्न होती हैं
सुसुप्त जागृत होती है
झरने फूटते नहीं
लावा बह निकलता है.

शिशुपाल और बर्बरीक ही
क्यों कटते हैं सुदर्शन से
धर्म और अधर्म की
क्यों परिभाषाएं बदलती हैं.

रमाकांत सिंह 06/07/2000

रिश्‍ते

बदलते मुकाम पर
सिसकते दरकते रिश्ते
और स्वार्थ का लंबा सफर
विवादों का सिलसिला

षड़यंत्र का तानाबाना
सीमा के ऊपर नवीनतम
अनदेखा प्रस्ताव
या भविष्य का
दोहरा मानदण्ड
हमारा बेबुनियादी द्वन्द

तब निष्ठा की कसौटी पर
उठता गिरता सवाल क्यो?
जब लंगड़े टांगों पर
घिसटती परंपरा
जहा अंतर्द्वन्‍द
और लालसा, उपेक्षा के
चढते तेवर

ऐसे महासमर में जूझता
निरूपाय धनंजय
नई सुबह की तलाश में
ताकता क्षितिज को

रमाकांत सिंह 25/09/1995

Thursday 19 January 2012

बुद्ध


अंकुरित बीज
न जाने कब
बन गया वृक्ष
और एक दिन अचानक
एक राजपुरूष
करने लगा चिंतन
व्यर्थ ही बैठकर
छांव में उसकी
जग की अर्थहीनता पर

लोगों ने उसे बुद्ध बना दिया
और वृक्ष बन गया
बोधि वृक्ष
नतमस्तक हो गया
सम्राट अशोक भी उसके कथन पर
संसार अभिभूत हो उठा
उसके मरम पर

कालक्रम निरंतर रहा
पर समय के साथ-साथ
सूखती गई कुछ डालें
पखेरू आज भी
बैठते हैं शाखाओं पर
पत्तियों ने डालियों से
तोड़ लिया नाता
बनते गए कोटर सूखी डालों में
शनैः-शनैः

भक्तों ने बांध दी
पत्थरों से
दुबराती जड़ें
वृक्ष निहारता रहा शून्य में
अपनी नियति

एक दिन मैं भी
बैठ गया उसकी छांव में
बनने बुद्ध
किन्तु आज तलक
समझ नहीं पाया
बोधि वृक्ष का अपराध.

रमाकांत सिंह 06/07/1985

Wednesday 18 January 2012

अनुभूति

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नाय भूत्वा भविता न भूयः।
अजो नित्यः शाश्‍वतोडयं पुराण्ये न हन्यते हन्यमाने शरीरः॥
the atman is neither born nor it dies.coming
in to seing ceasing to be donot take place in it.
Unborn; eternal; constant and ancient.
it is not killed when the body is slain.

- SHRI MADBHAGWATGITA

शायद नियति ने सूंघ लिये गंध
सूख गये आंसू कैसे टूट गये बंध?

मौत का वक्त मुकर्रर है परेशां क्यूं है?
आती है आयेगी इंतजार क्यूं इस तरह?

खुलती बंद होती आंखें झरते गिरते पंख
टूटती सिमटती सांसें छूटते गहराते रिश्ते

करीब अनचाहे कदम बेबस बेगाने से हम
संजोये टूटते सपने दूर बिखरते अपने

कैसे खुल गई आंख बंद होने के लिये?
और बंद हुए होंठ आंख खुलने के लिए

कौन कब मरता है किसके जीने के लिए?
लोग मिलते नहीं सब साथ चलने के लिए

और कौन मरता है किसके मरने के लिए?
जीता है कौन यहां सबके जीने के लिए?

तुमने गर सांस लिया जहर पीने के लिए
किसे परवाह तेरी तेरे ही सांसों के लिए?

तेरी सांसे थी रुकी कैसे अपनों के लिए?
मेरा सर झुक गया सज़दा करने के लिए

तू जुदा था सबसे प्यार करने के लिए
कौन जीता है यहां मरने-जीने के लिए?

और कौन मरता है जीने-मरने के लिए?
थम गया वक्त ज़रा तेरे सांसों के लिए

चित्र गूगल से साभार
रमाकांत सिंह 11/07 1998
श्री होल्कर जी मेरे बहनोई के देहावसान पर
आप श्री बालक राम पटेल बोतल्दा के अनुज थे।

Tuesday 17 January 2012

खेद

All mighty god
Created this world

A universal house of love
Spread the fragerence
All the way
To make others happy
And to be happy
Provid comfort
And light the world

My heart was open
Ever for ever
Closed to none
Without distinction

I always prayed to god
To design and direct
My soul
Heart and mind
Like a child.

But
I hurt and sink in the pain
When creature created
Colour
Cast
And cread

Away from
Humanism
Broken heart of all
Based on crueality

I feel since few back
Through distance of
Religion
My heart closed to all
Ever for ever
Without any regret
With smile and pride

Ramakant singh
14.12.1985 panchgani maharashtra

Monday 16 January 2012

याद

कोई हमें कहां ले जायेगा
ले भी गया तो क्या पायेगा
कुछ ही पलों में वो हमसे
परेशान-हैरान हो जायेगा

बिना मुस्कुराये हमें वापस
अकेला राह पर छोड़ जायेगा
उपर उछालोगे तो बालक
आंखें मींचकर गाना ही गायेगा?

सोचते हो पानी गिरेगा तो?
शानू दौड़कर छाता लायेगा?
हम जीते हैं इसी धूप में रोज
और बिखर जाती है छांव कब?

जीवन के आपा-धापी में बस
यही रंग पल-पल आयेगा?
मां रोज कहानी सुनाती है
बेटा आज चंदामामा आयेगा।

रमाकांत सिंह 21/10/2010
शरद पूर्णिमा पर

Sunday 15 January 2012

ककून

अपने ही बुने ककून में
बनने लगी समाधि
पूरी बनती कैसे
रही अधूरी आधी


ज़ख्म अपनों के दिये
गैर हाथों सी दिये
जो जहां जैसा भी था
हाथ धरकर हाथ पर




यूं कारवां बनता गया
और सब गाफि़ल हुए
शोर सन्नाटों के डर से
हम भी शामिल हो गए

रमाकांत सिंह 17/06/1995





आदरणीया अमृता तन्मय जी
अमृतातन्मय डाट ब्लाग स्पाट डाट काम
के अंगूठा को भेंट

Saturday 14 January 2012

टूटकर फिर बिखरता हूं मैं


क्यों गुजरता हूं उस रहगुजर से?
जहां खुशियां मिलें न मिले
चाहे गम की कली ही खिले
कोई रोता कभी न हंसे
सदा हंसते रूलाते मिलें,

सर झुकाए गुजरता हूं मैं
जहां परिचित मिलें न मिलें
अपना अजनबी सा लगे
बदनसीबी मेरे ही लिए
सदा आंसू बहाते मिले,

टूटकर फिर बिखरता हूं मैं
जहां भोर मिलकर ना मिले
नित निशा का दिया ही जले
जिन्दगी मौत सा फिर लगे
जिन्दगी-जिन्दगी ना रहे,

रमाकान्त सिंह 20/05/1978
चित्र गूगल से साभार

Friday 13 January 2012

हम बने नहीं


सागर सा यदि हम बने नहीं
फिर बादल बन क्यों बरस गये
सूरज को यदि हम छू न सके
कब किरणें बन हम बिखर गये

विस्तार गगन का पा न सके
क्यों चक्रवात बन घुमड़ गये
हिमगिरी सा यदि हम बन न सके
बन चंदन कैसे महक गये

जगती सा पावन बन न सके
ज्वाला बन कैसे दहक गये
बन प्राण दीन में रमे नहीं
कैसे परमात्मा कहलायें

मोती माणिक हम बने नहीं
कैसे जग आभा बिखरायें

रमाकांत सिंह 17/09/2010
मेरी मानस पुत्री श्री मति आभा सिंह
के जन्म दिन 20 अक्टूबर पर समर्पित 

Tuesday 10 January 2012

सापेक्ष


सूर्य की भांति स्थिर
अन्य पिण्डों के सापेक्ष,
परिवर्तनशील स्थिरता भी?
परिवर्तन प्रकृति का मूल
फिर यह भ्रम क्यों?

स्थिर रह गया मैं
अन्य के सापेक्ष,
और बदल गये सब
मेरे सापेक्ष,
सापेक्ष या निरपेक्ष

परिवर्तन या स्थिरता,
हास्यास्पद और करूण
अपनी-अपनी मानसिकता
परिवर्तन को न सह पाने की,
क्योंकि स्थिर रह गया मैं
सबके सापेक्ष,

चल-अचल,
कल, आज और कल
यथावत्
देश, काल,
परिस्थितियां और पात्र

सृष्टि का संतुलन
नियति चक्र में
अपरिवर्तित होते हुए भी
परिवर्तनशील
प्रति पल
अपना प्रतिबिंब लहरों पर

रमाकांत सिंह 4/6/1994
तथागत ब्लाग के सृजन कर्ता श्री राजेश कुमार सिंह
को समर्पित

Monday 9 January 2012

कर्म संदेश

आओ मेरे संग आओ,
झूमो नाचो गाओ
नियति नटी झूमकर,
यूं धरा चूमकर
गा उठे संग अपने,
मन में सजाये सपने,
आओ मेरे संग आओ

चंद्रमाला सजा,
क्रांति किरणें लिए
नवकला अभिराम से,
भाग्य भास्‍कर के दिये
स्वर्ग है भूतल बना,
कर्म की ले ज्योत्सना
एक नव संकल्प ले,

आओ मेरे संग आओ ...

कर्म संदेश ले,
शांति धारा बहा
कल कथा आलोक से,
रम्य शुचि प्राची सजे
त्यागमय जीवन बना,
धर्म पूरित कामना
शक्ति का आह्वान ले,
आओ मेरे संग आओ

आहुति बलिदान से,
शील सौरभ ज्ञान के
एक नव संकल्प ले,
नवल मुक्ति ज्ञान के,
प्रेम सुधा बरसाओ,
कर्म पथिक बन जाओ,

आओ मेरे संग आओ.

रमाकान्त सिंह 12/01/1980 दंतेवाड़ा
चित्र गूगल से साभार
परम आदरणीय प्राचार्य (स्व.) श्री लक्ष्मीकांत ज्योतिषी जी को समर्पित,
आपने शा उ मा शाला, दंतेवाड़ा में मुझे पुत्रवत् स्नेह देकर मार्गदर्शन दिया।

Sunday 8 January 2012

रंग बदलते देखा























पुण्य के साये में
पाप उफनते देखा
सूरज को भी पश्चिम से
हमने निकलते देखा,

चांद को भरी दोपहरी
हमने मचलते देखा,
स्नेह के आंचल में
डाह पनपते देखा,

वाह रे दुनियाँ
वक्त के साथ-साथ

अनदेखे रंगों में
गैरों को छोड़ो भला
स्वयं को गिरगिट सा
रंग बदलते देखा

रमाकान्त सिंह
11/03/1977, दंतेवाड़ा
चित्र गूगल से साभार       

Thursday 5 January 2012

आँखी के पानी


मनसे काबर पथरा ईंटा के होगे?
दुबराज के जगा म काबर बमरी बोंगे?
कहाँ मरगे तोर आँखी के पानी?
कहाँ गवांगे मोर संगी लागमानी?

मंदिर ल छोंड़ दिस पथरा के देंवता
भाई ल भाई कहाँ पारत हे नेंवता,
सड़क म बोहात हे तोर मोर लहू
तैं बों के छोड़े तेला काटिहाँ महूँ,

गाँव के मनसे काबर भागत हे बन म
पुलिस के डर, के पैसा के संगत म?
राहत कार म काबर बांटत हे पैसा?
मनसे हे जस के तस, फेर काकर परोसा?

मरत हे रोज बीच रस्ता म, गाँव के रखवार,
चल हमूं घर ल लेस के, झाँकी आन के दुआर.

रमाकांत सिंह
11 अगस्त 2010
चित्र गूगल से साभार

आतंकियों एवं नक्सलियों की गोलियों से शहीद
जवानों और निरपराध लोगों को समर्पित

शब्दार्थः
मनसे=मनुष्य, काबर=क्यों, पथरा=पत्थर, ईंटा=ईंट, के=का, होगे=हो गया, दुबराज=सुगंधित बारीक चांवल, जगा=स्थान पर, बमरी=बबूल, बों=बुवाई, गे=गया, कहाँ=किस स्थान पर, मरगे=मर गया, तोर=तुम्हारा, आँखी=आँख, पानी=सम्मान, गंवांगे=गुम हो गया, मोर=मेरा, संगी=मित्र, लागमानी=रिश्तेदार, ल=को, छोंड़=छोड़ना, दिस=दिया, देंवता=भगवान, भाई=भाई, पारत=बुलाना, हे=देना, नेंवता=न्योता, बोहात=बह रहा, हे=है, लहू=खून, तैं=तुमने, बोंके=बुवाई करके, छोंड़े=छोड़ दिया, तेला=उसे, काटिहां=काटूंगा, महूं=मैं भी, गांव=ग्राम, भागत=भाग रहा, बन=जंगल, डर=भय, पैसा=रूपया, संगत=साथ रहने से, राहत=भला, कार=काम, बांटत=बांट रहा, मनखे=मनुष्य, जस=ज्यों, तस=त्यों, बस=अंत, परोसा=अतिरिक्त भाग, मरत=मर रहा, बीच=मध्य, रस्ता=राह, रखवार=रखवाला, चल=चलो, लेस=जलाना, झांकी=झांकना, आन=दूसरों, दुआर=दरवाजा.

Sunday 1 January 2012

मनसे घला


काल करइन के घर म
बिन कपाट परछी के
झर-झर ले आवय
सुर्रा घाम बरसात जाड़,

पानी गिरय त,
गमक जावय रद्दा
ठडि़या जावय रुंवा,
भर मंझनियां

कहां गै घाम, कहां गै बानी,
तरिया के छोंड़, मनसे के पानी
कांप गै तन, फेर नइ भरय मन,
सुनबे त करत हे, सनन-सनन

ए दे देख तो, पथरा ईंटा के घर म
मनसे घला, पथरा ईंटा के होगे।

शब्दार्थ
कपाट=दरवाजा, परछी=बरामदा, झर-झर=एकाएक गिरना,
आवय=आता था, सुर्रा=तेज ठंडी हवा, घाम=धूप, बरसात=वर्षा
जाड़=ठंड, गिरय=गिरने पर, त=तब, गमक=सुगंध, जावय=जाता था,
रद्दा=रास्ता, ठडि़या=खड़ा, जावय=जाता था, रूंवा=बाल, भर=भरी,
मंझनिया=दोपहरी, गै=चला गया, बानी=वाणी/कथन, तरिया=तालाब,
छोंड़=छोडो, पानी=सम्मान, कांप=कांपना, गै=गया, तन=शरीर, फेर=फिर,
नई=नहीं, भरय=संतुष्ट, मन=आत्मा, सुनबे=सुनने पर, करत=करना, हे=है,
सनन-सनन=सन-सन की आवाज, ए=यह, दे=लो, देख=देखना, तो=लो,
पथरा=पत्थर, ईंटा=ईंट, के=का, घर=घर, म=में, होगे=हो गया।

रमाकांत सिंह 10/06/2010
चित्र गूगल से साभार   

भाग्य अपना हम गढ़ेंगे

गढ़ दिया तुमने हमें
भाग्य अपना हम गढ़ेंगे

चलो आओ गढें हम
हमारा भाग्य अपना
हमारा भाग अपना...
हमारा भाग्य अपना

धरा की सहनशीलता ले
जल की शीतल धारा में
अनल की प्रखर ज्वाला से
गगन के खुले माथे पर
हवा के चपल हाथों से
भाग्य अपना हम बुनेंगे
भाग अपना हम चुनेंगे 

वसुधा की हथेली पर
रचेंगे भाग्य अपना
सागर के लहरों पर
लिखेंगे भाग्य अपना
रवि की किरणों से
गढेंगे भाग्य अपना
सितारों की दुनियॅा में
बुनेंगे भाग्य अपना
पवन के कांधों पर
धरेंगे भाग्य अपना

भाग्य अपना हम गढ़ेंगे
भाग अपना हम बनेंगे

रमाकान्त सिंह 20/09/2000
मेरे विद्यालय  के बच्चों को समर्पित 
जिनमें मैं अपना बचपन जीता हूँ  

प्रश्न क्यों अनुत्तरित रह गया?


द्वापर में यक्ष ने प्रश्न किया
युद्धिष्ठिर से
और जी उठे कालक्रम में पाण्डव
श्राप मुक्त हो गया यक्ष,



आज समय ने यक्ष से
प्रश्न किया
वत्स!
एक लबालब दूध से भरे पात्र से
एक लबालब भरे दूध के पात्र को
एक लबालब भरे दूध के पात्र में
रिक्त करें,

किन्तु स्मरण रखें
दूध छलके नहीं
दूध ढलके नहीं,
न आप पीयें
न आप गिरायें
न किसी को दें
न ही ढलकायें,
अन्यथा
परीक्षा का परिणाम
हर युग में एक ही होता है

आज प्रश्न पर
न जाने क्यों?
मौन हो गया यक्ष,

पेड़ की ओट से
एक बालक
प्रश्न को सुन रहा था
मन ही मन
कुछ ताने बुन रहा था

बालक ने झट
यक्ष और समय से
प्रश्न किया
तात!
एक रिक्त पात्र को
एक दूसरे रिक्त पात्र में डुबाकर
एक अन्य रिक्त पात्र को
दूध से भरें

स्मरण रखें नियम
द्वापर की भांति
आज भी जस का तस है
न कहीं कुछ छलके
न कहीं कुछ ढलके
न किसी से लें
न कोई दे
समय और यक्ष
प्रश्न पर बालक के
आज क्यों मौन हैं?
प्रश्न क्यों अनुत्तरित रह गया?

रमाकांत सिंह 12/02/2008 एक यात्रा कथा