गुरुकुल ५

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Saturday, 14 January 2012

टूटकर फिर बिखरता हूं मैं


क्यों गुजरता हूं उस रहगुजर से?
जहां खुशियां मिलें न मिले
चाहे गम की कली ही खिले
कोई रोता कभी न हंसे
सदा हंसते रूलाते मिलें,

सर झुकाए गुजरता हूं मैं
जहां परिचित मिलें न मिलें
अपना अजनबी सा लगे
बदनसीबी मेरे ही लिए
सदा आंसू बहाते मिले,

टूटकर फिर बिखरता हूं मैं
जहां भोर मिलकर ना मिले
नित निशा का दिया ही जले
जिन्दगी मौत सा फिर लगे
जिन्दगी-जिन्दगी ना रहे,

रमाकान्त सिंह 20/05/1978
चित्र गूगल से साभार

1 comment:

  1. tutkar hi jindagi ka asli marm samjhta hai aadmi....
    ...sach kahi baar lagta hai ki jindagi dukho ka pitara hai ..lekin kabhi n kabhi apni subah ka suraj jarur ugta hai,...
    ...

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