गुरुकुल ५

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Friday, 27 January 2012

अंतिम यात्रा

बचपन के सनेह
पिता के गेह
कल की खनक
न समझे कभी
अनबुझे अभी भी
भरमाते रहे,

चाय की चुस्की
बातों की खुश्की
अर्थ की सुस्ती
मौज न मस्ती
रिश्तों से प्रेम
विश्वास के नेम
झनकते रहे,

दादा का कुआं
बीड़ी का धुआं
मुंह में गाली
बाग का माली
भाजी का परोसा
हाथ का भरोसा
थकते रहे,

मां की व्यथा
बहनों के आंसू
भाई के खून
हास-परिहास से
विधाता के त्रास
बहते रहे,

मृत्यु का वरण
अनजाने हरण
रेत कणों सा
हर पल क्षरण
अपनों के नयनों में
जीवन-मरण
सहते रहे,

पिता संग यात्रा
हास न त्रास
वार्ता न रूदन


पीड़ा न क्रन्दन
मोक्ष को अपने
संग-अकेल
चलते रहे,

शंखों का नाद
घंटों का निनाद
वेदों के वाक्य
उपनिषदों के श्लोक
मन को शांत
चेतना को क्लांत
करते रहे

रमाकांत सिंह 14/08/1994
पिता की मृत्यु के बाद उनके रिक्तता पर
बाबूजी मेरे पिता के साथ-साथ अच्छे मित्र
भी रहे, उनके अनुशासन एवं मार्गदर्शन से
ही जीवन में स्थिरता मिली।

7 comments:

  1. बेहतरीन, जीवन का एक समग्र-संपूर्ण अध्‍याय.

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  2. जीवन के यथार्थ से उपजी मार्मिक रचना!

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  3. हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ हैं......ये रिक्तता तो सदा बनी रहेगी , अपनों का दूर जाना सदा ही खलता है जीवन में

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  4. मर्म स्पर्शी रचना .. जीवन के यथार्थ को कहती हुई

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  5. क्या कहूँ..? कुछ कहते नहीं बन रहा है.. बस .. सच दिख रहा है..

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  6. शंखों का नाद
    घंटों का निनाद
    वेदों के वाक्य
    उपनिषदों के श्लोक
    मन को शांत
    चेतना को क्लांत
    करते रहे ...
    ...

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