गुरुकुल ५

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Sunday, 22 January 2012

आतंक

परदेश की पगडंडियों से
अचानक एक दिन
मेरे गांव के चैराहे होकर
घर की दहलीज़ तक
श्रम कणों की जगह
खून की महक लेकर
आया रंगरेजवा
हमारी आत्मा को रंगने

सींचा है जिसे
धरोहर मानकर
पीढ़ी दर पीढ़ी
मेरे पुरखों नें
सूरज की गर्मी में
बारिश की धार में
सर्द रातों में
बिन छल-प्रपंच
अपने रक्त से

और तमाम उम्र
उंघते ये लोग
मुंह अंधेरे एक दिन
खुले आसमां तले
स्वार्थ की चादर ओढ़
चंद सपनों की खातिर
कांपते हाथों
अपनी ही अस्मिता पर
प्रश्न चिन्ह लगा बैठे

रमाकांत सिंह 06/08/1997
आपसे अनुरोध आतंकवादियों को पनाह न दें
न ही किसी कीमत पर अपनी आत्मा का सौदा करें
चित्र गूगल से साभार  

3 comments:

  1. बंधु आपकी रचना, शैली, और कथ्य ने प्रभावित किया।
    इतनी प्रभावशाली कविता लिखने के लिए बड़ी प्रतिभा चाहिए और आप में है ।
    इस रचना में प्रतीकों का सहज एवं सफल प्रयोग किया गया है।

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  2. शानदार कविता।
    शुभकामनाएं।

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  3. आज के हालात में एक सार्थक पोस्ट!

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