गुरुकुल ५

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Sunday, 8 January 2012

रंग बदलते देखा























पुण्य के साये में
पाप उफनते देखा
सूरज को भी पश्चिम से
हमने निकलते देखा,

चांद को भरी दोपहरी
हमने मचलते देखा,
स्नेह के आंचल में
डाह पनपते देखा,

वाह रे दुनियाँ
वक्त के साथ-साथ

अनदेखे रंगों में
गैरों को छोड़ो भला
स्वयं को गिरगिट सा
रंग बदलते देखा

रमाकान्त सिंह
11/03/1977, दंतेवाड़ा
चित्र गूगल से साभार       

8 comments:

  1. मौजूदा दौर का बेहतरीन चित्रण।

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  2. विरोधाभासी भावों को लेकर जीवन के दोनों रंगों को खूबसूरती से व्यक्त किया है.बधाई.

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  3. चारों तरफ यही सब दृष्टिगोचर हो रहा है।
    अच्छी कविता।

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  4. चांद को भरी दोपहरी
    हमने मचलते देखा..

    कमाल लिखा है..बधाई..

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  5. बहुत प्रभावशाली अभिव्यक्ति...आभार!

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  6. वाह..
    सार्थक लेखन..

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  7. विरोधाभासी भावों को सहज अभिव्यक्त करती हुई सुंदर कविता।

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  8. very realistic creation...

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