रंग बदलते देखा
पुण्य के साये में
पाप उफनते देखा
सूरज को भी पश्चिम से
हमने निकलते देखा,
चांद को भरी दोपहरी
हमने मचलते देखा,
स्नेह के आंचल में
डाह पनपते देखा,
वाह रे दुनियाँ
वक्त के साथ-साथ
अनदेखे रंगों में
गैरों को छोड़ो भला
स्वयं को गिरगिट सा
रंग बदलते देखा
रमाकान्त सिंह
11/03/1977, दंतेवाड़ा
चित्र गूगल से साभार
मौजूदा दौर का बेहतरीन चित्रण।
ReplyDeleteविरोधाभासी भावों को लेकर जीवन के दोनों रंगों को खूबसूरती से व्यक्त किया है.बधाई.
ReplyDeleteचारों तरफ यही सब दृष्टिगोचर हो रहा है।
ReplyDeleteअच्छी कविता।
चांद को भरी दोपहरी
ReplyDeleteहमने मचलते देखा..
कमाल लिखा है..बधाई..
बहुत प्रभावशाली अभिव्यक्ति...आभार!
ReplyDeleteवाह..
ReplyDeleteसार्थक लेखन..
विरोधाभासी भावों को सहज अभिव्यक्त करती हुई सुंदर कविता।
ReplyDeletevery realistic creation...
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