गुरुकुल ५

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Saturday, 28 January 2012

अशआर

रश्क आता है तेरे, रक्श पे अल्ला मेरे
साज़ कहीं और साजि़न्दे, न नजर आया घुंघरू

वक्त-ए-दरिया यहां सैलाब लिये आया है
बादपां दर्द क्यूं अश्कों में सिमट आया है

जुस्तजू मौत की, दहलीज तेरे ईश्क का
ग़म की ताबीर का, ज़र्रा न तेरी महफिल में

अक्स देखा था, कभी पलकों पे
आज डूबा है, अक्स अश्कों में

मौत की दहलीज़ पर बैठा हूं जुस्तजू करने
मौत सरे-शाम कल आयेगी उम्र भर के लिए

मौत कभी हश्र का मोहताज नहीं
मौत आगाज़ है अन्जाम नहीं

बादपां दस्तक का यूं मुंतजि़र कौन था
ये तो आगाज़ ना अन्जाम हुआ

चला यूं सरे-आम करके चाक गिरेबां मेरा
दर्द बढ़ता गया एहसास दर एहसास तेरा

फासला बढ़ता गया और हम ग़ाफिल रहे
हमसे दामन जो छुडाया तो ये एहसास हुआ

यूं तेरा तल्ख़ी से जाना मुझे वाजिब न लगा
ऐसे दामन को झटकना था तो क्यूं साथ चला

आज हर शख्स क्यूं बेइमान नज़र आता है
मेरा ही चेहरा मुझे अनजान नजर आता है

खीचता हूं लकीर लहरों पे
झुकता आसमां नज़र आता है

शिकायत उनसे होती है जो अपने ही नहीं होते
जो अपने हों भला सोचो शिकायत फिर कहां होगी

लिखावट को बदलने की हम तास़ीर रखते हैं
तेरी तक़दीर को पढ़कर खुदा भी मुस्कुरायेगा

नींद आती ही नहीं सपने दिखते नहीं
ख्वाब आते हैं बस अपने क्यूं होते नहीं

मैने तिनकों से धर सजाया है
किसी झोंके से न बिखरने दूंगा

तेरे एहसास से मैं जिंदा हूं
तेरे एहसास से मर जाउंगा

जि़न्दगी को मुझे सौंपा है जिस भरोसे से
बढा हाथ ज़रा फिर जिन्दगी पे एतबार कर

आपका साथ आपकी बात हर बात पर हर बात बनती है
वर्ना इस गर्द भरी दुनियां में सिवा आपके रखा क्या ही है

मंजि़ल पास होने पर हौसला डगमगाता है
तेरे ही जैसे बन्दे को खुदा भी आज़माता है

जि़न्दगी का फलसफा ही कुछ और है मालिक
हर शख्स को समझ आये वो क्या जि़न्दगी

अभी शर्म बाकी है नज़रों में मेरे
यूं सजदे में सर को झुकाया है तेरे

देखें आपका दिल बड़ा
या नसीब छोटा मेरा

भरोसा अपना या ऐतबार अपने प्यार का
आपका टूटा या डर लगता है खुद से

कहीं आपकी आंखें प्यार का इज़हार न कर दें
यूं नज़रें घुमाये क्यूं बैठी हो किसी इंतज़ार में

वक्त का हर सफर हर कदम अपना अक्श
छोड़ता चला गया जि़न्दगी जैसे थम सी गई

बेवजह हम चलते रहे चलते रहे चलते रहे
हर वक्त हर बार मेरे साथ ही ऐसा क्यूं?

चलो इसी बहाने जो भरम टूटा खुद से
आपकी अश्कों का फलसफा हम जान गये

निकल आये मेरे अश्क हंसने से पहले
क्यूं रूठ जाते हैं ख्वाब बनने से पहले

साहिल से टकराकर लहरों की मानिन्द
लौटता गया घायल सख्त वजूद मेरा

बादपां वक्त का दस्तक पर दस्तक,
यूं लगे दोस्ताना सहर का एक शहर से

मृत्यु का एहसास जीने की उत्कठ अभिलाषा
सिलवटें सांसों की हर लम्हा दिल के करीब

यूं कारवां चलता रहे ये कश्तियां पतवार हों
हम रहें या न रहें ये भंवर ना मंझधार हों

यूं तमाशाई बन बगलगीर ना हो
ये तेरे ही दिये आंसू हैं जो लौटाने हैं

मानक बदल गया बदला हवा का रूख
मौसम की भांति हम बदले हैं अपने आप

बंद पलकों में तेरे ख्वाब सजाउं कैसे
यूं हरेक शाम तेरी याद जब रूलायेगी

क्यूं सितारों से तेरे दर का पता पूछूं मैं
सूनी राहों से तेरी जब ये सदा आयेगी

मैं हर एक मोड़ से अपनी खता पूछूंगा
बंद होठों से जब भी गीत गुनगुनाओगी

5 comments:

  1. शानदार शायरी।
    जि़ंदगी के कई रंग, कई रूप !

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  2. कुछ अनुभूतियाँ इतनी गहन होती है कि उनके लिए शब्द कम ही होते हैं !
    बहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  3. बेहतरीन नज़्म .. बेहतरीन..प्रवाहमयी..

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  4. बहुत प्रशंसनीय.......

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