सागर सा यदि हम बने नहीं
फिर बादल बन क्यों बरस गये
सूरज को यदि हम छू न सके
कब किरणें बन हम बिखर गये
विस्तार गगन का पा न सके
क्यों चक्रवात बन घुमड़ गये
हिमगिरी सा यदि हम बन न सके
बन चंदन कैसे महक गये
जगती सा पावन बन न सके
ज्वाला बन कैसे दहक गये
बन प्राण दीन में रमे नहीं
कैसे परमात्मा कहलायें
मोती माणिक हम बने नहीं
कैसे जग आभा बिखरायें
रमाकांत सिंह 17/09/2010
मेरी मानस पुत्री श्री मति आभा सिंह
के जन्म दिन 20 अक्टूबर पर समर्पित
लेकिन कविता तो खूब बनी है.
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएं...