गुरुकुल ५

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Tuesday, 29 July 2014

आज फिर जीने की तमन्ना है आज फिर मरने का इरादा है


**कहानी और कथाओं का दौर शायद आज खत्म सा हो गया हो किन्तु कुछ कथा
आज भी प्रासंगिक लगते है इन्ही में से एक कहानी बाबूजी ने बचपन में सुनाई थी
आपसे साझा करता हूँ

प्राचीन काल में एक बालक की मृत्यु एक संजोग पर टिकी थी जब उसकी माँ को
ज्ञात हुआ तो उसने ब्रह्मा से मृत्यु को टालने का निदान पूछा बिरंची जी विधी के
विधान को बदल पाने में अपनी असमर्थता जाहिर की और माँ को श्री हरि के पास
जाने को कहा माँ के अनुनय विनय पर स्वयं भी साथ गये किन्तु विष्णु जी ने भी
असमर्थता बतलाकर देवाधि देव महादेव के पास जाने को कहा शायद उनके पास
इसके मुक्ति का मार्ग मिले।

माँ ने ब्रह्मा जी, विष्णु जी, के साथ महादेव जी को अपनी व्यथा सुनाई उसने
कहा इस बुढ़ापे में वह निःसंतान नहीं होना चाहती।
शिव जी ने कहा चलो देखें आखिर वह कौन बालक है जिस पर ऐसी संकट आन पड़ी है
शंकर जी सहित विष्णु जी और ब्रह्मा जी और माँ ने जैसे ही बच्चे को देखा बालक
मृत्यु को प्राप्त हो गया।

वास्तव में इन्ही पाँचों के मिलन का यही पल
उस बालक की मृत्यु का पल था ये माँ नहीं जानती थी।

**रामायण, रामचरित मानस, महाभारत की कथा और इनके कालजयी पात्रों से सदैव
प्रेरणा प्राप्त किया और मेरे ज़िन्दगी के भी करीब हैं, चाहे वो भीष्म हो या कर्ण या फिर
परम मित्र दुर्योधन { सुयोधन }

 बाबूजी ने महाभारत  की कथा में बतलाया कि दुर्योधन को अद्भुत ईच्छा मृत्यु प्राप्त थी।

 { मूल कथा के साथ एक अद्भुत सहायक कथा जुड़कर कथा को रोचक और नई दिशा 
और दशा दे जाती है यह *क्षेपक कथा  * भी शायद उसी प्रसंग का एक जीवंत भाग हो }

दुर्योधन ने जीवन नहीं मृत्यु के लिए वरदान माँगा था
*एक ही पल में हर्ष और विषाद की अनुभूति का संयोग हो तब मुझे मृत्यु प्राप्त हो*
वरदान माँगा और मिला भी किन्तु विधि का विधान अटल होता है

सुयोधन का सरोवर में गुप्त वास सम्भव कहाँ बन पड़ा भीम के ललकारने पर
सरोवर से बाहर आने पर लीलाधारी कृष्ण के रचे महाभारत में दुर्योधन आहत
असहाय बलराम भी धर्म अधर्म के युद्ध में  माखन चोर के सामने

अश्वत्थामा का गुरू पुत्र प्रेम ले आया धोखे में निरपराध पाण्डव पुत्रों का शीश
शायद यही पल बन गया हर्ष और विषाद के मिलन और दुर्योधन के वर का क्षण

कहानी और कथाओं का दौर शायद आज खत्म सा हो गया हो किन्तु ऐसा लगता है
गीतकार शैलेद्र जी को इस गीत की प्रेरणा ऐसे ही किसी प्रसंग से मिली होगी .
मूल भाव वही रहे, दृश्य बदल गये, ढल गये मर्म गीत में
संगीत और नृत्य ने समां बाँध दिया


काँटों से खींच के ये आँचल
तोड़ के बंधन बांधे पायल
कोई न रोको दिल की उड़ान को
दिल वो चला ह ह हा हा हा हा

आज फिर जीने की तमन्ना है
आज फिर मरने का इरादा है

कल के अंधेरों से निकल के
देखा है आँखें मलके मलके
फूल ही फूल ज़िंदगी बहार है
तय कर लिया अ अ आ आ आ आ
आज फिर जीने...
मैं हूँ खुमार या तूफ़ां हूँ
कोई बताए मैं कहाँ हूँ
डर है सफ़र में कहीं खो न जाऊँ मैं
रस्ता नया अ अ आ आ आ आ
आज फिर जीने...

समर्पित मेरे मन की ब्लॉग की सर्जिका अर्चना चाव जी को
जून 2013

Tuesday, 4 March 2014

गुरुकुल ४

विद्यालय मेरी कर्म भूमि
आपके मार्ग दर्शन की बाट जोहती




























आपका अपना रमाकांत सिंह

कोई आदर्श नहीं हम मगन हैं अपने बच्चों के साथ ३६५ दिन
गुरुकुल 

Saturday, 25 January 2014

तमाचा

जो तुम्हे काँटा बोये उसके लिये तुम फूल बिछा दो?

संत कौन हैं?
राजधर्म क्या है?
प्रजा धर्म का निर्वाह किसका?
धर्म निर्वहन एकांगी किस हद तक न्यायोचित

सब अपनी सीमा पर रहें?
कोई कलेश नहीं न कोई आहत होगा

२६ मार्च २००३ को मेरे पिता तुल्य बुजुर्ग को एक तमाचा जड़ दिया
कोई और नहीं रोज पैर छूनेवाला नाती
अपनी ज़िद मनवाने की खातिर
सागर ने सीमा तोड़ी या कहीं तट बंध को प्रेम संग लापरवाही ने
आहत बरसों की नेह हो गई
ऐसा क्या हो गया एक ही क्षण में झुलस गया सब कुछ

कौन हो गया उच्छश्रृंखल
किसे चढ़ गया मद बिन पिय
एक अनदेखा परिवर्तन घर करने लगा है
उदारता और सहनशीलता संग सहिष्णुता ने भष्मासुर को जन्म दे दिया है

आहत किसने किसे किया
पहल किसने की, दोषी कौन,
आहत यदि अपनी ईहलीला समाप्त कर लेता तो
या ग्लानिवश उसने नाती को गोली मार दी होती तो

साम, दाम,दण्ड और भेद नीति ज़रूरी नहीं क्रमशः आयें

शायद कुछ पलों पहले भी यही हुआ
किसी संत से प्रश्न किया गया
प्रत्युत्तर में एक चांटा जैसा लगा

किसने हमें अधिकार दे दिया अनर्गल प्रश्न करने का

किसी और ने प्रश्न नहीं किया क्या
उन्हें चांटा क्यों नहीं लगा

संत से उलटे सीधे प्रश्न ही क्यों किया जाये
मर्यादा तोड़ें और दोष अन्य पर मढ़ा जाये न्यायसंगत

पत्रकारिता अपनी सीमा के पार जाती
तब ही तो टी वी पत्रकार पहली बार हँसता हुआ दिखा

ये तमाचा एक सीमा को निर्धारित करेगा?
जो तुम्हे काँटा बोये उसके लिये तुम फूल बिछा दो?

26 मार्च 2003
समर्पित नई पीढ़ी को

Tuesday, 24 December 2013

विक्रम और वेताल १७

न जाने समय किस करवट बैठे?

आज कोलाहल से वातावरण शान्त
और मौसम सर्द-दर-सर्द

राजधानी में ही
चारों ओर पसरा सन्नाटा
आवाज़ लगाता
न जाने समय किस करवट बैठे?

वेताल भी अनमना
वट वृक्ष के पत्तों को गिनता चला जा रहा था

कि यक--यक

विक्रम वेताल को कंधे पर लाद निकल पड़े
राजधानी की सड़क पर समस्याओं के समाधान में

वेताल ने कहा
हे राजन!

आज ये मौन और अकुलाहट कैसी?
यही आपका साम्राज्य विशाल है?
देश की सम्प्रभुता आप के विवेक पर टिकी है?
यहाँ की अनेकता की एकता को बनाये रखें?

आदरणीय
इस विषम स्थिति में एक कथन स्मरण करता

खर को कहा अर्गजा लेपन, मर्कट भूषण अंग !
सुरही को पय पान करइहौं, स्वान नहाये गंग !!

आज आप का कृत्य देश हित में?

किसी तत्व के परमाणु की संरचना में परिवर्तन संभव?
बस ऐसे ही किसी जीव या पादप की रचना में बदलाव?

असम्भव को सम्भव बनाने का प्रयास उचित?

चलो बदल गया तो?

सर्वकालिक, सर्वमान्य, सार्वभौमिक, सर्वग्राह्य, सर्वसुलभ,
सहज, सरल और विश्व वन्दनीय चिर नवीन?

राजन आप सोचें
यदि परिणाम प्रतिकूल?

राष्ट्र किसी व्यक्ति की सोच है?
जीवन की मुख्यधारा में परिवर्तन सम्भव?
चमड़े का सिक्का आज चल पायेगा?

विविधता, कुटिलता, अनेकता, विषमता,
छल, प्रपंच, राग, द्वेष, मोह, वैमनष्यता,
के बीच कौन रह जायेगा राजा भोज का गड़रिया?
देश की विशालता और अचानक बदलाव से

निर्णय
गर्म कांच में पड़ने वाले ठन्डे जल की भांति हुआ तो?

मैं आप से सहमत क्यों?
हम आप को सफल होने दें
?
व्यक्ति राष्ट्र है या राष्ट्र व्यक्ति?
विविधता के संग सर्व हिताय?

हे राजन!

ये महत्वाकांक्षा और दंभ का संक्रमण काल?
आप विश्व बंधुत्व संग लोकतंत्र और स्वाभिमान की रक्षा करें?

आज एक ही नक्षत्र, ग्रह, राशि में अनेक योग
आज मैं कोई कुम्हार, क्षत्रिय या तेली नहीं

अचानक राजपथ धंस गया
और राजा विक्रम राजपथ पर घुटनों के बल
ऊफ
मौन भंग होते ही
वेताल फुर्र

और कस्मकस जस का तस

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः?
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्?

may all be happy. may all remain free from disabilities.
may all see auspicious.may non suffer sorrow  

क्रमशः
24 दिसंबर2013
समर्पित भारतीय जनमानस को

Saturday, 21 December 2013

क्षितिज

मेरा ये आसमाँ?  वो कौन सा क्षितिज?

कह दिया तुमने
ये है क्षितिज !

वो कौन सा क्षितिज?

ये मेरा क्षितिज !
वो तुम्हारा क्षितिज !
और वो अलग उसका क्षितिज !
तब क्यूँ कर एक ही क्षितिज?

दृष्टि और दृष्टिकोण पर टिका
सबका अपना क्षितिज?

और

मेरा ये आसमाँ?
आज ये तेरा भी आसमाँ
ये मेरी अपनी ज़मी?
कल तेरा वो आशियाँ

सबके सपने अलग
और सबके अपने जहाँ?
सबके घरौदे भी अलग?
सबकी अपनी धरती

फिर सचमुच

वो मेरा क्षितिज?
ये तेरा आसमां?
यही उसकी जमीं?
वही आसमां?

06 दिसम्बर 2013
ज़िन्दगी एकांत में

Tuesday, 17 December 2013

तल्खियाँ


न जाने क्यूँ आज फिर लगने लगा है डर

*
आज भी आंसुओं को पोंछना आता नही
और खुद को खुदा से भी बड़ा मान लिया
**
बेअदब, बेरूखी बेइन्तहा अब काहे का शोर
हसीन धोखा है ये तेरा प्यार मैने जान लिया
***
जख्म जख्म पर ही दिये है तूने बरसों
आज कैसा दर्द अपनो से झेल सीने पर
****
बना खुदा तो ये तेरे बन्दे कहाँ बख्शेंगे
सौगात आँसुओं के तेरी झोली में आये
*****
ये तो हम है जो जी रहे है तेरी खातीर
लोग रूखसत हुए है पाक दामन कभी
******
जलजला या सैलाब दोष क्या सोचना
अब खुदा का कहर बरपेगा तारीख क्यूँ
*******
आक्रोश की प्रसुति हो न, गर्व फिर शरम
रहम वो भी तेरी झोली मे, कर लूँ भरोसा
********
धोखा, छल, फरेब, आँसू सब मेरे हिस्से
न जाने क्यूँ आज फिर लगने लगा है डर

15  दिसम्बर 2013
समर्पित मेरी ज़िन्दगी को 

Thursday, 12 December 2013

आप

जनगण मन अधिनायक जय हे 


आप महान है
कोई संदेह कहाँ?
मै भी अभिभूत हू
लोगो का भ्रम बना रहने दो न

आप सर्वश्रेष्ठ है?
हम सब मानते और जानते है
लेकिन
तुम्हे ये हक किसने दे दिया?
कि तुम सब को नीच कह जाओ

लगी न मिरची दाऊ जी
कही वो न हो जाये
जो मेरे नालायक दिमाग में है
तब न रहोगे घर के न घाट के

जरा सम्हलकर
भूले से भी साँझा चूल्हा मत जलाना
आज आप और हम दोनों ही .....?
बड़ी दुविधा है जी

आप तो ऐसे न थे

संयमित मृदु वाणी
कहीं सत्ता का मद तो नहीं चढ़ गया?
इतनी तल्ख़ आवाज़

एक कहावत याद आती है
क्वाँर मे लोमड़ी पैदा हुई
उसने ऐलान कर दिया
आषाढ़ में बहुत पूर आया था

चार लोगों के कहने पर
कोई बेईमान हो जाता है?
न ही खुद के कह देने पर
कोई ईमानदार हो जाता है?


लेकिन
आप ने तो छाती ठोककर कह दिया
बेईमान हैं ये दोनों
अब 

भई गति साँप छछूंदर केरी

सामने बेटी की शादी है
बेटी घर में कुंवारी रह जायेगी
और वादा निभाया
तब भी फ़ज़ीहत

बहुत कठिन है डगर राह { जनपथ } पनघट की

समर्पित मो सम कौन कुटिल खल  को 
12  दिसंबर 2013
चित्र गूगल से साभार 

Tuesday, 10 December 2013

विक्रम और वेताल १६

बहुत कठिन है डगर राह { जनपथ } पनघट की


राजन
परिवर्तन प्रकृति का नियम है?
आप जानते हैं?
आप राजा कैसे बने और मैं वेताल

ये सब जोग-संजोग है?
इस पर इतराना कैसा?

आपकी ग्लानि और सन्ताप हरने के लिये
एक लघु कथा सुनाता हूँ

*****
एक बार एक उत्पाती चुहे को
एक हल्दी का टुकड़ा मिल गया
बस क्या था
उसने अपनी बिल के सामने लिखवा दिया

हल्दी का थोक व्यापारी

राजा विक्रम ने मुड़कर पैनी दृष्टि से देखा
राजन यूँ न देखें
मुझे शरम नहीं आती है

किसी झूठ को भी बड़ी ईमानदारी से बोलिये
बड़ी सिद्दत से बोलिये
बड़ी विनम्रता से बोलिये
बारम्बार बोलिये
किसी मंच से बोलिये
ईमानदार बनकर बोलिये
बड़ी जनसभा को सम्बोधित कीजिये 

वो सच प्रतिध्वनित हो जाती है?

राजन
फिर से यूँ ना देखें

झूठ बोलना भी एक कला और कुंठा है?

चूहे ने समझा दिया
वह हल्दी का थोक व्यापारी है?

*****
चलिये इसी कथा का अगला भाग सुनिये
उसी दिन शाम चार बजे
चूहे का बाप मर गया
चूहे ने पण्डित को बुलवाया

पण्डित रामानन्द जी ने कहा
श्राद्ध कर्म शुरू कीजिये
चूहा निरुत्तर

पण्डित जी ने कहा
पिता का नाम लीजिये
फंस गई सांस और फांस
अब मौन और घिघियाहट

क्यूँ असमंजस?

पण्डित ने कहा
बाप का नाम बताओ या श्राद्ध करो?

चौड़े, स्वच्छ राज पथ पर चलते चलते
राजा विक्रम को भी ठोकर लगी
और
आह की आवाज़ के साथ मौन भंग हो गया
फिर क्या वेताल यथावत्?

बहुत कठिन है डगर राह { जनपथ } पनघट की

१० दिसम्बर २०१३
समर्पित भारतीय जनमानस को
चित्र गूगल से साभार 

Sunday, 8 December 2013

विक्रम और वेताल १५

भूख चाहे ज़िस्म की या रहे राज की
 भूख में थूंककर चाटते हमने देखा है


आज प्रातः वेताल
राजपथ के वट पर लटका
निहारता रहा शून्य में
देश कहाँ जा रहा है?

अचानक एक झटका लगा
और वेताल विक्रम के मजबूत कंधे पर

राजन
आपने मेरी गहन चिंता और सोच में विघ्न क्यों डाला
आपको देश और जनता की चिंता होती तो?

आज विक्रम की भृकुटि तनी

यूँ न देखें
सचमुच देश की ये दुर्दशा होती?

राजन ज़रा गौर से राजपथ पर एक नज़र डालें 
ये भला मानस जीभ से क्या उठा रहा है?

स्वच्छ वस्त्रधारी, नेकचलन, सौम्य, धीर, गम्भीर
अरे कहीं ये हंस का वंशज तो नहीं?

इसी व्यक्ति की तरह मैं भी वादा करता हूँ?

और आपका मौन भंग होते ही
मैं भी पुनः यथावत्

और आप भी युगों से

चल पड़ते है प्रतिदिन खोज में?
आदर्श, सत्य, सिद्धांत, मूल्य की खोज में?

राजन
सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग
अपने मूल्य, आदर्श, जीवन वृत्त संग रहे?
कभी कोई मेल रहा?

कैसे मान लिया आज को कल स्वीकारेगा
यदि ऐसा सम्भव होता?
तो राजपथ पर स्वयं के त्याज्य वस्तु को
यूँ अपनी ही जिह्वा से न उठाता

भूख चाहे ज़िस्म की या रहे राज की
भूख में थूंककर चाटते हमने देखा है

राजन ज़रा बचकर
यहाँ भी आपके पैरों के नीचे
विक्रम अरे कहकर उछल पड़े
मौन भंग होते ही

वेताल पुनः अदृश्य?
और राजा विक्रम
देश की
दुर्दशा पर मौन?

08 दिसम्बर 2013
चित्र गूगल से साभार 

Saturday, 30 November 2013

यकीन 3

मैं तुमसे बेइन्तहा नफ़रत करती हूँ

मैं यकीन करती गई
तेरे हर वादे पर
और तू
हर्फ़ दर हर्फ़
छलता रहा
अब मैं बस चाहती हूँ
खून के बदले खून
आंसूंओं से भीगा चेहरा
हर ज़ुल्म का हिसाब
दर्द के बदले दर्द
चौराहे पर बेइज्जती
शर्म से झुका चेहरा
हर अपमान का बदला
जो तूने बिन मांगे
बिन अपराध
मढ़ दिया माथे पर
लेकिन
क्या करूँ?
मैं तुमसे
बेइन्तहां मुहब्बत करती हूँ
तू जानता है
और तेरे ज़ुल्म की
इन्तहां बढ़ जाती है

लेकिन
आज
तुम जानते हो?
मैं तुमसे बेइन्तहा
नफ़रत करती हूँ

२० नवम्बर २०१३
सौजन्य से यकीन ब्लॉग के सर्जक से
चित्र गूगल के सौजन्य से 

Tuesday, 26 November 2013

परेशाँ क्यूँ है?

रमाकांत सिंह 

*
आसमां बादलों से परेशाँ क्यूँ है?
घर लोगों से बेवज़ह हैरां क्यूँ है?
ज़िन्दगी खुश है तेरे जानिब यूँ?
फिर ये चेहरा हंसीन वीराँ क्यूँ है?

**
रोशन है ये जहाँ दिल अन्धेरा क्यूँ है?
शोर दीवाली का फिर ये मायूसी क्यूँ है?
लोग खुश महफ़िल में आँखें नम क्यूँ है
जलजला आँखों में यूँ दिल बंज़र क्यूँ है

***
देख मुश्किलों में इन्सां मुस्कुराता क्यूँ है?
तैरकर दरिया में आज मन प्यासा क्यूँ है?
हर हंसीं चहरे पे हंसी है फिर मातम क्यूँ है?
राह अपनी आसां मंज़िल आज कांटे क्यूँ हैं

24  नवम्बर 2013
समर्पित मेरी ज़िन्दगी को
     

Thursday, 7 November 2013

टहलते दरख़्त


                                              मेरी भांजी * श्रीमती अंजू ठाकुर *
*
मौन हैं लोग आज
टहलते दरख़्त तले
सूरज के साये में
जागता मुर्दा

**
अंधों के हाथ पकड़
भूख से हँसता बच्चा
अमन चैन पर चिढ़ते
पंडित, मौलवी, फ़क़ीर

***
बर्फ की गर्मी से
पिघलता क़ाफ़िर
नरम पत्थर पर
चैन की नींद ले

****
ओस से सुखी चादर
ख़ुशी के आंसू समेट
रोशनी फैलाती
अमावस की रात

*****
ठहरता वक़्त
बुझते दीपक से
छलता फिर द्वार द्वार
प्रेम का सन्देश धर

******
धूप में टहलता छॉंव
नित इशारे कर
ठहर दम लेने दे
सहर ज़रा होने दे

*******
गमगीन शैतान
दिखता आकुल आज
दुःख शबाब पर?
गर्दिश में गम?

********
आंसुओं में डूबा
बेरहम कातिल
हंस रहा?
ज़ख्मों पर

*********
जूठन पर इतराता
लंगड़ा भिखारी
लड़ते लोग
कुर्सी की खातिर

*********
सुलगता समंदर
मौन हैं लहरें
हुजूम दरिंदों का
सन्देश शांति ले

०२ नवम्बर २०१३

समर्पित मेरी भांजी * श्रीमती अंजू ठाकुर *को { चित्र }

***आजकल एक अज़ीब सी बेचैनी है दिलो दिमाग में
सब कुछ बिखरा सा , चीजें अपना अस्तित्व खोती और
मेरा यकीन डगमगाता शायद इसी ऊहापोह का नतीज़ा ये रचना

Thursday, 31 October 2013

बारिस


*
किसी मोड़ पर
पत्तों की सरसराहट
घने जंगल को
सन्नाटे से भर देती है

**
बादल से झरते बूंदों ने
रुककर धीमे से
पत्तों के कानों में कहा
मौसम सुहाना है

***
बारिस, बारिस और बारिस
आँखों से झरी
दर्द से भरी बारिस ने
सीने को बंज़र बना दिया

****

वक़्त ठहर जाता है
फिर भी शाम ढल जाती है
तेरे आने की खबर
बदली सी छट जाती है

*****
कभी कभी किसी मोड़ पर
जंगल का सन्नाटा
दिल और दिमाग में
शोर सा भर देता है

०१ नवम्बर २०१३

एक सुबह
सिंहावलोकन ब्लॉग के सर्जक श्री राहुल कुमार सिंह
संग जंगल के बीच टहलते वक़्त एहसास
  

Sunday, 1 September 2013

विनम्र आग्रह २


विनम्र आग्रह 

आपसे विनम्र आग्रह पोस्ट को बिना पढ़े टिप्पणी न चिपकायें
अपने मित्रों और विद्वान हितैषी को भी पोस्ट अग्रेषित करें

आपका एक नकारात्मक विचार माँ या पिता को आहत करेगा
और संतान भी माँ बाप से अलग हो जायेगा, समाज को दिशा दें
किन्तु निर्विकार विचार दें किसी कुंठा से परे हों

मैं रमाकांत आपका जीवन भर आभारी रहूँगा

ज़रा विचार करें क्यों टूटता जा रहा है एक प्रबुद्ध परिवार?

अहम् की तुष्टि?
बदलती परिस्थितियाँ?
समाज से अलग रहने की चाह?
स्वेच्छाचारिता?
नए युग की चाह?
नये युग का सूत्रपात?
सकारात्मक सोच ?
नकारात्मक विचार?

कहीं ऐसा तो नहीं?

किसी आकर्षण में?
बंधन मुक्त जीवन की आकांक्षा?
किसी को आहत करने के लिए?
किसी बहकावे में?
गलत संगत में?
कोई प्रयोग धर्मिता?
हमारी उदारता?
हमारी हठ धर्मिता?

या फिर

प्रेम की कमी?
सामंजस्य की कमी?
काम का दबाव?
शुरू से ही गलत जीवन शैली?
अभावों में जीवन?
महत्वाकांक्षा?
हमारी कोई कमजोरी?

हमने विचार कर लिया?

किसी का दुरुपयोग?
पारिवारिक दबाव?
कोई कुंठा?
किसी का आश्रय?
अलग बसने की चाह?
विश्वास की कमी?
विश्वास का टूटना?
धोखेबाजी अपनों की?

हम झेल रहे हैं

एक तरफा प्रताड़ना ?
किसी की भी मनमानी ?
हमेशा झूठ बोलना ?
कोई अफवाह ?
कोई बड़ा लाभ ?
हानि पहुँचाने की मंशा ?
अविश्वास की मार
चरित्रहीनता है नहीं
किन्तु गलतफहमी पैदा करने वालों से घिरे

आँखों पर किसी ने पट्टी बाँध दी हो?

बसा हुआ परिवार टूटता है कारण कुछ भी हो
उसकी आंच में जल उठते हैं जुड़े लोग अकारण

कोई बाध्यता नहीं फिर भी एक आग्रह तो है
हम सब अपनी सीमा में अपनी मर्यादा संग साथ रहें

कौन छोटा, कौन बड़ा, किस पैमाने से नापा जाये?
कौन नापेगा, राजा भोज के राज्य का गड़रिया
कहीं नाप तौल गलत हो गया तो किसकी खता?
जीवन हमारा है निर्णय हमारा ही हो विवेक से

ये वो मार्ग है जो वन वे है जाना या आना एक बार
ज़रा सोचो मैं मर गया तो दुबारा मिलूँगा तुम्हे?

अलगाव भी मृत्यु जैसी ही संवादहीनता है?
तब चाहकर भी कुछ नहीं किया जा सकता

हमारा दुर्भाग्य और प्रेम संग विश्वास की कमी?
अनुरोध
बनो विशाल, समाहित कर लो मुझे अपने में

समर्पित मेरे अपनों को जिनसे मेरा जीवन है
०१ सितम्बर २०१३

Thursday, 29 August 2013

तेरे निशां

कल तलक मेरी पेशानी पर अक्स था तेरा
                    आज हाथ की लकीरों में ढूंढ़ता हूं तेरे निशां


*
पहेलियाँ ही कहाँ रही पहेलियाँ सुलझ गई
बिगड़े हालात न बन पाये ये कोई बात हुई

**
दर्द दिल में हो तो हर लम्हा उदास होता है
अजीब शै है ये मोहब्बत, ये कहर ढाता है

***
फलक पे तुम ज़मीं आसमां पे क्यूं तुम हो
या अल्ला जिधर देखूं उधर तुम ही तुम हो

****
तुम्हे भूल जाना यूं मेरे अख्तियार में नहीं जानां
और खता इतनी बड़ी कि माफ़ कर नहीं सकता

*****
ख्वाहिशें थम जायें ये तो मुकद्दर तय कर देता है
हौसला, इश्क, आरजू, कसक,मंज़िल के करीब

******
नशा ऐसा तेरे इश्क का रहा और जूनून तुझे पाने की
डूबा कुछ इस कदर कि होश कहाँ शुरूर आज तलक

*******
भूलना तुम्हे आसां लगता है भुला पाना भी दिल से मुश्किल
हर लम्हा तेरी यादें संग चलें मयकदे की तलाश में मयकश

********
कल तलक मेरी पेशानी पर अक्स था तेरा
आज हाथ की लकीरों में ढूंढ़ता हूं तेरे निशां

०६ मई २०१३
चित्र गूगल से साभार

Sunday, 25 August 2013

मेरी आवाज / दीपक

चिरंजीव दीपक सिंह दीक्षित ऑटो सेंटर रायगढ़ 

पञ्च तत्व * क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर * के अंश से बना दीपक 
कुछ लोग जीते हैं परमार्थ में उनकी निष्ठा, समर्पण, सेवा, निर्विकार 

कोई संदेह नहीं जीये तो अपनों के लिये और अपनों के संग, हर सांस में
दिया , बाती और तेल ,दीपक बन प्रकाशित करता राह जलकर पथिक को 

दीपक सिंह एक नाम ही नहीं मेरे लिये एक रिश्ता, एक एहसास है
जिसका जीवन दर्शन और चिंतन सदैव मुझे प्रेरणा देता है

*
सुहानी सुबह ०६ जुलाई २०१० को विद्यालय में हम सब स्टाफ रूम में बैठे थे
एक पुरुष और एक लड़की संग आये, परिचय दिया श्रीमति आभा सिंह
विज्ञान विषय वर्ग २ के पद पर नियुक्त की गई है पू मा शा पटियापाली में
मैंने कहा शाला परिवार आपका स्वागत करता है यह स्वर्ग है कोरबा जिला में

कुछ परिचय और स्वागत सत्कार के बाद मुस्कराहट और संकोच संग आवाज आई
आप रमाकांत सिंह हैं क्या? मैं अवाक सा रह गया, पूछा कैसे जाने कि मैं रमाकांत हूँ?
आपकी आवाज से, आज से लगभग नौ साल पहले आप मेरे पास रायगढ़ आये थे
सचमुच नौ वर्ष पूर्व बहन की शादी के सिलसिले में मुलाकात हुई थी चेहरा घूम गया

वही शांत, धीर, गंभीर, पेशानी की लकीर मेहनतकस इंसान की कहानी बयां करती
कल भी वो शख्स मेरी पसंद में शामिल था और आज भी मैं उससे प्यार करता हूँ
**
९ मई १९९९ की रात मैं भैया शशांक सिंह के साथ शादी में शामिल होने धनगाँव निकले
रात घुप्प अँधेरा हाथ को हाथ सुझाई पड़ना मुश्किल, रास्ते में एक परिवार पैदल मिला
पति पत्नी दो बच्चे सुनसान रास्ता, कुछ दूर आगे निकलकर वापस लौटा यूँ ही पूछा
कहाँ जा रहे हैं? मैं रमाकांत सिंह मुलमुला गाँव निवासी हूँ,क्या मेरे लायक कोई

मेरी बात बीच में ही कट गई पुरुष ने कहा क्या आप दंतेवाड़ा बस्तर में कार्यरत थे?
मैंने पूछा आप कौन? मुझे कैसे जानते हैं? जवाब मैं दंतेवाड़ा में गणित व्याख्याता हूँ
१९८० से १९९९ एक अरसा बीत गया था दंतेवाड़ा छोड़े लेकिन कुछ तो किया है मैंने
अँधेरे में छैल बिहारी सिंह को भैया संग छोड़ दिया भटकने अँधेरे में, मजबूरी थी क्या करता
उनकी पत्नि और बच्चों को कोड़ा भाट छोड़ने निकल गया और जीता विश्वास अँधेरे में भी

हम दोनों भाई भी निकल गये बाद में उसे भी लेकर शादी में शामिल होने अपनी जगह

***
२००४ में गणित मेरी दृष्टि में लिखकर सहायक सामग्री के प्रदर्शन हेतु भैसमा निकला
हाई स्कुल का भरा स्टाफ जहां विद्वान लोगों के बीच अपनी बात रखना कठिन
प्राचार्य सक्सेना जी की अनुमति से लेख और सामाग्री को बतलाना शुरू किया

जैसे ही मैंने बोलना शुरू किया एक आवाज आई अरे रमाकांत सिंह आप यहाँ
मैं वापस मुड़ा कुछ आश्चर्य मिश्रित भाव ले, मैं सी. एस. सिंह रात कोड़ा भाट
आपने मुझे परिवार सहित ससुराल छोड़ा था, पसर गई स्मृति रात की दिन में
आप यहाँ कैसे? स्थानातरण से, लेकिन आपने कैसे पहचाना कि मैं वही हूँ?

आपकी आवाज से पहचाना, गणित मेरी दृष्टि में की सामाग्री का प्रदर्शन संग
एक बात समझ में आई कुछ तो है मेरी आवाज में चाहे गाऊं या कुछ कहूँ

अनायास भूपेंद्र जी का गाया ये गीत याद आ गया

नाम गुम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा
मेरी आवाज़ ही पहचान हैं, गर याद रहें

आंखें तेरी सब कुछ बयां करती हैं तो हाथ की लकीरें बताती तक़दीर का लेखा
मेरी आवाज़ में भी कुछ तो है जादू कल हो न मैं ये आवाज़ गूंजेगी फिजा में?

२२ अगस्त २०१३

समर्पित मेरे छोटे भाई दीपक सिंह दीक्षित को
जिसने मेरे आवाज़ के जादू को समझाया

Friday, 2 August 2013

समापन?

आत्मदाह / आत्महत्या / पलायन / समापन?


क्या आपने मनुष्य जैसे तुच्छ जीव के अतिरिक्त किसी अन्य जीव को
आत्महत्या करते देखा? या आत्महत्या का प्रयास करते देखा है?

शायद इन निम्न जीवों में सामंजस्य और सहनशीलता का प्रबल भाव होता है

श्रृष्टि का एक मात्र प्राणी और भगवान की उत्तम व अनुपम कृति ही यह दुर्लभ कार्य करते हैं
चलो आत्महत्या करके देखा जाये, मरने के बाद किसी समस्या का समाधान मिल जाये?

बाबूजी की कही एक कहानी आपसे साझा करता हूँ

राजा विक्रमादित्य महारानी मीनाक्षी संग भोजन करते समय अनायास हंस पड़े
मीनाक्षी द्वारा अचानक हंसी कारण कौतुहल बन गया हंसी और वह भी चींटी के जोड़ों पर
राजन मुस्कुराकर टाल गये, तिरिया हठ प्रबल हो उठा, किन्तु विवश हो गये नारी के आंसू से
जिद और प्रेम में जितना भी कम या ज्यादा हो जाये बस कोई मोल और तोल नहीं

राजन को प्राप्त विद्या अनुसार जीवों की भाषा का ज्ञान था किन्तु शर्त अकाट्य
जैसे ही भाषा का रहस्य उजागर होगा, वर का उल्लंघन मृत्यु को टाल नहीं सकता
अनिष्ट निवारण हेतु किसी निर्जन स्थान में ही ज्ञान और मन्त्र को बतलाया जाये
जहाँ जीर्ण शीर्ण कुँए में पीपल का पेड़ उगा हो, और पुराना बरगद के पेड़ में खोह हो

ताकि विद्या को बतलाने के प्रायश्चित स्वरुप आत्मदाह किया जा सके

उज्जैन राज्य के दक्षिण दिशा में तलाश पूरी हुई राजन जैसे ही रहस्य बताने उद्यत हुए
एक बकरी और बकरे का जोड़ा कुँए की ओर निकला, गर्भवती बकरी का मन ललचाया
बकरी ने बकरे से अनुरोध किया, यदि कुँए में उगे कोमल पीपल का पत्ता मिल जाये?
तो पेट का बच्चा और मैं तृप्त हो जायेंगे, कुआं जीर्ण है मृत्यु निश्चित बकरे ने कहा मृदुल

रीता चला गया अनुरोध और समझाईश, जिद बकरी की मर जाओ, किन्तु पत्ते लाओ
बकरे ने अब कड़े ढंग से कहा मुरख मैं मर जाऊंगा, तो क्या हुआ? मैं तो तृप्त हो जाऊँगी
राजन समझ और देख रहे थे, रानी जानवर का मनुहार ताड़ रही थी, जिद प्रबल हो उठा
संयम का बाँध टूटा, बकरे ने निःसंकोच धड़ धड़ कई चोट बकरी के सिर और पेट पर लगाये

बकरे ने कहा मुर्ख बकरी तू मुझे राजा विक्रम जैसा संज्ञा शून्य और विवेकहीन समझती हो
मैं तुम्हारी अंतहीन जिद के लिए अपनी जान दे दूँ,तुम्हे जान देनी है, जाओ तुम स्वतंत्र हो

सामाजिक चेतना, व्यक्तिगत जिम्मेदारी, दायित्वों का निर्वहन, सजगता,सामंजस्य
दया, सेवा, सहिष्णुता, ममता, जीवन्तता, सहयोग, विवशता का सर्वथा अभाव क्यों?



परमपिता की अद्भुत कृति मनुष्य ही है जो अहंकार से परे, ज्ञान, वैभव, विज्ञान का केंद्र?
आत्मदाह / आत्महत्या / पलायन / समापन किसी भी समस्या का न्याय संगत निवारण

जिंदगी जो मेरी है ही नहीं ,अन्यथा करो आत्महत्या। 

और एक बार मरकर पुनः प्राप्त कर देखो ये अनमोल अद्भुत जीवन ?

समर्पित मेरे छोटे भाई दीपक सिंह दीक्षित को 

जिसका जीवन दर्शन और चिंतन प्रेरित करता है। 

चित्र गूगल से साभार
२ जुलाई २०१३ 

Tuesday, 23 July 2013

आत्महत्या भाग २

मैं जीना चाहता हूँ जिंदगी तेरे संग


*****
ज़िन्दगी तुझसे तंग आ गया हूँ?
सोचता हूँ तुझसे होकर पृथक
एक नई पारी को अंजाम दूँ
बंध जाऊं नये बंधन में
जिसे मैं चाहता हूँ अपनी जान से ज्यादा
जो रहेगी बन सहचरी मेरे संग?
ज़िन्दगी के आखरी सांस तलक
तेरी तरह बिन कहे भरेगी माँग मेरी खातिर
या है सिर्फ छलावा है वो
ऐ क्या बोलती तू?

मरुथल की मृगमरीचिका सी कौंधती बिजली बन?

*****
चलते चलते शशि भाई ने कहा
पाजामे की क्रीज और गाड़ी का एवरेज
ज़िन्दगी को सफल बनाता है?
भाई साहब
आप करते रहिये पुत्रेष्टि यज्ञ
डालते रहिये समिधा
और पढ़ते रहिये पहाड़ा
माथे की सलवटे भले ही बदल जाये
नसीब में नहीं लिखा है तो
कुआँ में पानी, और चुनाव में जीत?
और प्रेम?
उम्र भर सांस फुल जाएगी

नाहक परेशां होंगे और संग में पड़ोसी जागेगा ताउम्र?

*****
आज सूरज की किरणों की तरह
केवल तुम्हे महसूस करता हूँ
विक्षुब्ध, बेबस हो बरस चुकी दिन रात
अब बनी रहो धूप छांव सी
आज तेरी फुहार नहीं भिगोती
तन और मन को
चचल हवा के झोके की तरह
छूकर चली जाती है


अंजुरी से फिसलते ज़िन्दगी ने कहा
ये होता है सबके साथ नई कोई बात कहाँ?

मैं जीना चाहता हूँ जिंदगी तेरे संग


क्यूं पूरी जिंदगी गुजर जाती है उहापोह में कसमसाते? 

क्रमशः

समर्पित मेरे छोटे भाई दीपक सिंह दीक्षित को
जिसका जीवन दर्शन और चिंतन प्रेरित करता है।

चित्र गूगल से साभार 

Saturday, 20 July 2013

आत्महत्या भाग 1

लेकिन उनसे कुछ बतियाने मैं वापस लौट पाऊंगा?


*****
गहन चिंतन और विचार के बाद
मैंने सोचा क्यों न आत्महत्या कर लिया जाये
मुक्ति या मोक्ष के लिये
क्या रखा है जीवन में?
क्या मिल जायेगा बड़ा जीवन जीकर?
यदि छोटा भी हो गया
तो बदल क्या जायेगा?
और बिना कुछ कहे
चल भी दिये तो क्या अंतर पड़ जायेगा?
न आगा न पीछा

जीवन को समझने में मैं क्यों बनूँ ऋषि मुनि?

*****
लोग स्वर्ग चले जाते हैं
मरने पर जुट जाते हैं स्वजन
स्वर्गवासी बनाने
ऐसा लोग कहते है
एक बार मैं भी मरना चाहता हूँ
ये देखने का शौक है
कितने लोग जुटेंगे
रोयेगा कौन कौन
और कौन मुस्कुरायेगा मेरे जाने पर

लेकिन उनसे कुछ बतियाने मैं वापस लौट पाऊंगा?

*****
मेरे परम हितैषी ने कहा
आदरणीय
न पढ़ लिखकर आपने अपना
सब कुछ बिगाड़ लिया
और जो लोग जियादा पढ़ लिख भी गये
उन्होंने क्या खम्भा उखाड़ लिया
कल, आज और कल के चक्कर में
ज़िन्दगी भर कुछ कर न सके
सोचते हो इसी चार दिन में
श्रृष्टि को पलट डालोगे

खेल निराला है,  99 के चक्कर से कोई बच पाया?
क्रमशः
20 जुलाई 2013

समर्पित मेरे छोटे भाई दीपक सिंह दीक्षित को
जिसका जीवन दर्शन और चिंतन प्रेरित करता है।

Saturday, 15 June 2013

ये कैसा रिश्ता है

ये कैसा रिश्ता है, जो हर पल रिसता है
ये कैसा रिश्ता है
जो हर पल रिसता है

मैं देखता हूँ
वक़्त को गुजरते
वक़्त को ही ठहरते
शाम को ढलते
रात को टहलते

क्यूँ देखता हूँ
तुमको बिछड़ते
कश्ती को डूबते
परछाइयों को पिघलते
अचानक तुम्हे हंसते

आज भी देखता हूँ
आसमां को बिलखते
जंगल को बहकते
रात को उगते
सुबह को सिसकते

मैं हर पल वेखता हूँ
खुद को सिमटते
आंसूओं संग बहते
नयनों को सहमते
धूप को ढलते

कल भी देखा था
छाँव को फैलते
रात को उगते
सुबह को बहकते
सपनों को उजड़ते

आज भी बरकरार
दर्द का उबलना
अक्स का सिमटना
जख्म का सिसकना
अश्क का बहना

आज भी होता है
तन्हाई संग रोना
तन्हाई में खिलखिलाना
आंसूओं को पी जाना
आँखों से ही कहना

14जून 2013
ज़िन्दगी संग चलते चलते
चित्र गूगल से साभार