गुरुकुल ५

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Thursday, 31 October 2013

बारिस


*
किसी मोड़ पर
पत्तों की सरसराहट
घने जंगल को
सन्नाटे से भर देती है

**
बादल से झरते बूंदों ने
रुककर धीमे से
पत्तों के कानों में कहा
मौसम सुहाना है

***
बारिस, बारिस और बारिस
आँखों से झरी
दर्द से भरी बारिस ने
सीने को बंज़र बना दिया

****

वक़्त ठहर जाता है
फिर भी शाम ढल जाती है
तेरे आने की खबर
बदली सी छट जाती है

*****
कभी कभी किसी मोड़ पर
जंगल का सन्नाटा
दिल और दिमाग में
शोर सा भर देता है

०१ नवम्बर २०१३

एक सुबह
सिंहावलोकन ब्लॉग के सर्जक श्री राहुल कुमार सिंह
संग जंगल के बीच टहलते वक़्त एहसास
  

12 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (01-11-2013) ना तुम, ना हम-(चर्चा मंचः अंक -1416) "मयंक का कोना" पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    धनतेरस (धन्वन्तरी महाराज की जयन्ती) की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. " पावस ऋतु थी पर्वत-प्रदेश । पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश ।" पन्त

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  3. बधाई बेहतरीन अभिव्यक्ति को मंगलकानाएं ,

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  4. @बारिस, बारिस और बारिस
    आँखों से झरी
    दर्द से भरी बारिस ने
    सीने को बंज़र बना दिया


    पनिया दुकाल कस लगत हे :) सुन्दर प्रस्तुति...

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  5. सुन्दर अहसासों को सुन्दर लफ्ज़ों मे ब्याँ किया है .

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  6. इन एहसासों को बाखूबी शब्दों में उतारा है ...
    दीपावली के पावन पर्व की बधाई ओर शुभकामनायें ...

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  7. सुन्‍दर शब्‍दों का संगम ....

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  8. बहुत ख़ूबसूरत अहसास...

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  9. यही अहसास... ऐसा अक्सर हो जाता है..

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