गुरुकुल ५

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Thursday, 2 February 2012

आसक्ति


संसार की रीतें बहुत हैं पुरानी
जीना हमें है नहीं उन्हें दुहरानी,


आओ मिलकर करें हम नये काम
पुराने रिवाजों को करने दो विश्राम,


करेंगे नये आज हम रीति निर्मित
भले काम होंगे तो होंगे वो चर्चित,


किन्तु न तोड़ें घर की दिवारें
मात्र हम पाटें सामाजिक दरारें,


रमाकांत सिंह 08/09/1975

मेरी अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से मुझे शांति
देती है। लेखन द्वारा एक प्रयास कुछ कहने सीखने का।
यह मेरी पहली रचना है। आज जिसे मैं अपनी जान और
ईमान से भी ज्यादा प्यार करता हूं उसे समर्पित
चित्र गूगल से साभार

6 comments:

  1. करेंगे नये आज हम रीति निर्मित
    भले काम होंगे तो होंगे वो चर्चित,

    Sach hai...Sunder Bhav

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  2. sarthak..sundar rachna

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  3. पहली रचना वो भी इतनी खुबसूरत ....? अच्छी लगी..शुभकामनाएं..

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  4. किन्तु न तोड़ें घर की दिवारें
    मात्र हम पाटें सामाजिक दरारें

    सार्थक सन्देश देती आपकी ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी हैं...आपमें लेखन की अपार संभावनाएं हैं इस ज़ज्बे को बनाये रखिये और लिखते रहिये...बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  5. अच्छा लिखा है आपने, लिखते रहिए।
    शुभकामनाएं।

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