संक्रमित अतीत का गूंगापन
सन्नाटे की जगत पर
चीखता क्रांति के इंतजार में
खुरदुरी हथेली पर
चिकने तस्वीर की कल्पना में
इतराता अपनी दृष्टिहीनता पर,
वाद-प्रतिवाद में घिरा
अस्तित्व रक्षार्थ
अकेलेपन की आंच सहते
समग्रता से
अपनी परिधि लांघकर,
नंगे पांव निःशब्द मूक
रेंगते बेचैन
शापग्रस्त कीड़े की तरह
सहजता से अस्वीकार करता
अपनी सर्द अस्मिता
रमाकांत सिंह 5/11/1995
चित्र गूगल से साभार
सजग, जागृत नजरें.
ReplyDeleteप्रभावशाली रचना......
ReplyDeleteआपकी ये रचना कल चर्चा मंच पे भी रहेगी ,
ReplyDeleteसादर
आपकी ये रचना कल चर्चा मंच पे भी रहेगी ,
ReplyDeleteसादर
वाह!!!
ReplyDeleteलाजवाब....
सादर.
आपकी और भी रचनाये पढ़ी...
ReplyDeleteबेहतरीन लेखन..
बधाई..
बहूत हि सुंदर ,
ReplyDeleteबेहतरीन भाव अभिव्यक्ती है....
बेहतरीन ..
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