नये ताल में
नये छंद का
नये राग में
नये बंध का
नये सुरों में
नये कंठ का
नई क्रांति का
संकल्पों का
कैसे गीत सुनाऊं?
बड़े भोर ही
नये पहर में
नये डगर का
नये द्वार का
नई उमर का
जाति-धर्म का
बैर-भाव का
लोभ-मोह का
दुःख-दरिद्र का
कैसे राग मिटाऊं?
किसको गीत सुनाऊं?
काहे मनमीत बनाऊं?
को संग कब प्रीत बढ़ाऊं?
पल-छिन खुद से शरमाऊं?
रमाकांत सिंह 18/07/1996
नाजुक सा राग.
ReplyDeleteबहुत शुभ आकांक्षा !
ReplyDeleteमन के असमंजस को सुन्दर अभिव्यक्ति दी है आपने.
ReplyDeleteपहली दफा आपके ब्लॉग पर आया हूँ.
बहुत अच्छा लगा आपको पढकर.
आभार.
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.
बहूत हि अच्छा लिखा है आपने,,
ReplyDeleteसुंदर अभिव्य्ती...
कविता का शिल्प ध्यानाकर्षित करता है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दरता से गढ़ा है आपने रचना को....
ReplyDeleteबहुत बधाई इस खुबसूरत सृजन के लिए...
बैर-भाव का
ReplyDeleteलोभ-मोह का
दुःख-दरिद्र का
कैसे राग मिटाऊं?
Bhaavpuran bhav...
बड़े भोर ही
ReplyDeleteनये पहर में
नये डगर का
नये द्वार का
नई उमर का
जाति-धर्म का
बैर-भाव का
लोभ-मोह का
दुःख-दरिद्र का
कैसे राग मिटाऊं?
bahut achchha likhte hai aap ,kitni sahi baate hai par hal zara mushkil
उहापोह के स्थिति हे गौ, अब ताल सुना ही देना चाही
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