बौनी अस्मिता
संपूर्ण नियति में
जमीन के उपर
जड़ें जमाती
और हम सब
स्वयं से प्रश्न करते
परिवर्तन के प्रबल समर्थक
भरे बाजार मादर जात,
पौ फटते ही
तेज धूप में
सृजन
एक सार्वभौमिक यथार्थ
वापस हमारी ओर
जटिलताऐं और उलझनें लेकर
और हम सब पुनः
आकुल लक्ष्यहीन
आंखें मीचे अंततः
निर्णय-अनिर्णय में डगमगाते
अजीबो-गरीब हुलिया में
मुंह अंधेरे
पैरों तले
जुगनुओं के दुम की रोशनी में
तलाशते सहर को
रमाकांत सिंह 20/10/1995
वो सुबह कभी तो आएगी...
ReplyDeleteआस की तलाश ही जीवन है।
ReplyDeleteसुंदर कविता।
जुगनुओं की रोशनी में सहर की तलाश...
ReplyDeleteअच्छी रचना...
बधाई..
Achchhi rachna.
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........
ReplyDeleteबढ़िया लिखा है..अच्छी लगी..
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