गुरुकुल ५

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Monday 1 April 2013

विक्रम वेताल ११




सुधि ब्लॉग के सृजन कर्ता से विनम्र आग्रह  कि परती परीकथा, गोदान, उसने कहा था, मृत्युंजय, रामायण, रामचरितमानस, महाभारत,जैसे किसी भी ग्रन्थ का मान और मूल्य मानवीय धरातल पर सदा सर्वकालिक, सर्वमान्य, सर्वग्राह्य है चाहे हम उसे कथा कहें या उसे पौराणिक काल्पनिक कथा मानें लेकिन जब कभी सड़ांध फैलाती कोई घटिया काल्पनिक साहित्य *फ्रंट लाइन* का सर्जन होगा विक्रम वेताल को कंधे पर लाद निकल पड़ेगा यात्रा में ............भले ही कुछ लोग जान पायेंगे पात्र, परिस्थिति, देश, और काल


विक्रमार्क ने हठ न छोडा और लटिया के जुठही फाटक के पास के बूढ़े पीपल से वेताल के शव को उतार, सोनपुरा की ऒर रेल पांतों के साथ-साथ चलने लगा। चलते-चलते वे सोनपुरा  के पश्चिमी रेल केबिन तक आ पहुंचे ,पर ख़ामोशी छाई रही.

रेल पांत के किनारे पानी से भरे जोहड़ देख वेताल ने चुप्पी तोड़ी और कहा -जरा सुस्ती सी हो रही है, हाथ भट्टी की कच्ची का हैंगओवर तनिक ज्यादा देर तक रह जाता है कभी - कभी। फिर ठंडी आह भर कर बोले हमारे ज़माने में कितने ही किस्म और ब्रांड के गुड़ाखू मिलते थे। मंदिर,हाथी ,बन्दर,तोता और गाय छाप . दो -तीन तो " मेड इन सोनपुरा " ही थे।,

खैर गुजरे ज़माने की बातें हैं। जरा देखना तुम्हारी जेब में कोई खैनी पाउच पड़ा हो, अरे तुम तो मानिकचंद ही खाते होगे, राजन ने एक पाउच फाड़ वेताल को ससम्मान पेश किया और कहा-नोश फरमाइए,वेताल झिड़कता सा बोला तुम्हारी जात बदल रही है, सोनपुरा के एक युवक की तरह,कायदे से तुम्हे कहना चाहिए- आरोगिये।

चलो आज मैं तुम्हे सोनपुरा  की कहानी सुनाता हूँ।
मैं संजय की सी दृष्टि क्षमता,जो भूत दिखाती है,थोड़ी देर के लिए तुम्हें देता हूँ ,कहकर रहस्यमयी आवाज में दुहराने लगा वर्तमान की दीवारें हट जाओ,बाधाएँ दूर हो जाओ और चार दशक पीछे जाओ। फिर एक मन्त्र सा पढ़ते हुए कहा-राजन आँखें बंद करो, हाथ फैलाकर कहो-ॐ फट,गुड़ाखू की डिब्बी ला फटाफट। राजन ने जब मन्त्र दुहरा कर आंखे खोली तो मेड इन सोनपुरा गुड़ाखू की एक डिब्बी हाथ पर थी,

राजन आश्चर्यचकित हो गदगद स्वर में बोले-गुरु जब आप अभी भी भूत काल में जाने और उस गुजरे कल के किसी प्रोडक्ट को पैदा करने की ताकत रखते है, तब जोहड़ में पानी देख ठंढी आहें क्यों भर रहे थे।
वेताल ने कहा,हे राजन वेताल किसी चीज़ की इच्छा कर तो सकते है पर जीवित मानव के सहयोग बिना उसे नहीं प्राप्त कर सकते,न ही वापर सकते, टेशन कुए की जगत पर चैन से गुड़ाखू घिसने पश्चात् बोले
" नाऊ आई एम फीलिग़ फ्रेश"

विक्रम उन्हें पुन :कंधे पर लादकर पलेटिअर बंगले की दिशा में बढ़ चला। वेताल ने रेलवे क्वाटर्स की दिशा में इशारा करते हुए कहा-उस अजीब से जीव को देखो,पैर के पंजे आदिमानव से छितराए,पतली टांगों पर टंगी बनिए सी झूलती तोंद,कृष्ण के राज्य द्वारिका के निवासियों सदृश्य गोल मटोल चेहरा, द्रविड़ देश के लोगों जैसे बाल और मछली सी गंध लिए उत्पन्न मनुष्य तन को मैं तुम्हारे ज्ञान,अंतरदृष्टि और सूझ की परीक्षा लेने पूछता हूँ,क्या जान सकते हो इस मानव काकटेल कृति का जन्म रहस्य।

विक्रमार्क सोच में पड़ गया,कई ख्याल आ रहे थे पर स्पष्ट और निश्चयपूर्वक कहने हेतु किन्तु कुछ भी तय नहीं हो पा रहा था। अब तक वे अकलतरा स्थित रा. कु. उ. मा. शाला के कुएं तक आ पहुंचे थे वेताल को गुड़ाखू की तलब फिर जागृत हो गई और वह कुएं की जगत पर गुड़ाखू घिसने बैठ गया

अगले अंक में समापन

चित्र गूगल से साभार
01. अप्रेल २०१३ 

11 comments:

  1. खूब भालो, बाबु मोशाय

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  2. तम्‍बाकू का सेवन स्‍वास्‍थ्‍य के लिए हानिकारक होता है.

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    1. यह गुड़ाखू जान ले लेगा...
      :)

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  3. धुन का पक्का और साहसी विक्रमार्क लटिया गाँव का रहने वाला सा प्रतीत होता है. जो वेताल को कंधे पर लाद सकता है और इस विचित्र सी रचना वाले जीव का रहस्य जानकर उससे निबट भी सकता है.
    धारदार और प्रवाहपूर्ण रचना.अगले अंक का बेसब्री से इंतजार है

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  4. कुछ आदते गलतियाँ ही करवाती हैं

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  5. बहुत बढिया..एक रोचक कथा..

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  6. interesting.....aage kya hoga ...?

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  7. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ... आभार

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  8. रोचक प्रस्तुति. अगली कड़ी की प्रतीक्षा है.

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  9. अति सुन्दर ..

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