यदि योग्य गुरु को अवसर दिया जाये विद्यालय सञ्चालन की जहाँ उसकी इच्छा के शिक्षक हों तब उपलब्ध सुविधाओं में ही प्रत्येक छात्र छात्रा को तराशकर मेधावी बनाया जा सकता है |
गुरु के पास संग्रहित श्रेष्ठ ज्ञान सुपात्र शिष्य को दिया जाता है और उस विद्या में पारंगत करने की प्रक्रिया गुरु दीक्षा तथा पारंगत होने के बाद गुरु को यथेष्ट दान गुरु दक्षिणा कहलाती है? सिद्धि की प्राप्ति के लिये गुरु दीक्षा को सदैव अनिवार्य कर्म माना गया है? गुरु दीक्षा सदा सद्गुरु अर्थात उत्तम गुरु से लेनी चाहिये अन्यथा अयोग्य गुरु शिष्य में अपने समस्त अवगुण आरोपित कर कुपात्र शिष्य में परिवर्तित कर देते हैं?
गुरु व्यक्त और अव्यक्त रूप से समग्र विश्व में व्याप्त हैं जो असहज को सहज बना देते हैं।
अर्जुन, कर्ण, एकलव्य, आरुणी जैसे शिष्यों ने गुरु मन्त्रों का स्मरण कर अन्तर्दृष्टि से अंतर्मन को जागृत कर स्पर्श द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त किया।
विद्यार्थी आज विश्व में खनिज की भांति प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं किन्तु अनन्य भक्त सूरदास की भांति परम शिष्य अर्जुन या कर्ण द्वापर युग को जीवंत कर जाते हैं।
सद्गुरु सदा ज्ञान रक्षा, दुःख क्षय, सुख आविर्भाव, संमृद्धि और सर्व संवर्धन का आशीर्वाद देते हैं। सद्गुरु से ही कष्ट क्षीण होता है और मन प्रफुल्लित रहता है योग्यतायें स्वतः विकसित होती चली जाती हैं।
जिससे उचित मार्गदर्शन, अन्तर्दृष्टि, प्रवीणता, काव्य प्रेम, आत्मज्ञान, वेद पुराण, आध्यात्मज्ञान, ज्योतिष ज्ञान, ज्ञान विज्ञान, और अध्ययन अध्यापन के प्रति जिज्ञासा जागृत हो और धर्म का भाव प्राप्त हो वही जनक की श्रेणी में आता है?
अध्यापन काल में रेखागणित का प्रश्न ....
समकोण त्रिभुज को नामांकित चित्र सहित समझाओ?
जिसमे भुजा अब की माप ४ से मी, भुजा बस ५ से मी और भुजा सद ५ से मी हो
*सर्वप्रथम रचना लिखवाई गई
सभी भुजाओं के माप, फिर रफ में बनवाया गया चित्र, आधार सहित सभी भुजाओं के माप का अंकन लिखा गया, कोंणों के माप को अंकित किया गया, भुजा को रेखाखण्ड की भांति दर्शाया, समकोण को अंकित किया गया, कोणों के माप का योग १८०अंश दर्शाया गया, अंत में लिखवाया इस प्रकार समकोण त्रिभुज अ ब स प्राप्त हुआ।
गुरु जी ने कहा अब तुम्हे कम से कम १० में ८ अंक मिल सकते हैं।
*कक्षा पहिली में कमल का क लिखना सिखलाया गया
एक छोटी सी आड़ी लकीर खीचो जी
उस आडी लकीर के बीच से उतनी ही बड़ी नीचे की ओर खड़ी लकीर खीचो जी
अब खड़ी लकीर के बीच में बायीं तरफ एक गोला बना डालो जी
अब खड़ी लकीर के बीच में दाहिनी तरफ भी एक गोला बना डालो जी लेकिन नीचे मत मिलाना ऐसे
प्रत्येक गतिविधी को गुरु स्वयं करके बतलाये और इस बीच हमारे मध्य घुमकर हाथ पड़कर दिशा निर्देश भी देते रहे समझाया भी, धमकाया अलग, और ठोंक ठठाकर दुरुस्त भी किया।
***तब गुरु शुभ ग्रहों से युक्त धार्मिक, सूर्य सा प्रचण्ड, नीति निपुण, निष्ठावान, शोधी, तीक्ष्ण ज्ञानदाता थे तब शिष्य विलक्षण हुए।
***आज माँ / बाप / पालक को फुर्सत नहीं और कम समय में अभीष्ट लक्ष्य की चाह
दबाओ कम्प्युटर का की बोर्ड और लिख डालो कमल नहीं कल्लू का क******
06जुलाई 2010
मो सम कौन कुटिल खल ......? ब्लॉग के सर्जक
श्री संजय अनेजा जी को समर्पित
चित्र गूगल से साभार
सही कहा ...आज बच्चों को समझाने के लिए वक़्त ही नहीं है किसी के पास ... फिर बच्चों में संस्कार कहाँ से आएंगे ?
ReplyDeleteआज तो बहुत कुछ बदल गया है ..... ज्ञान के लिए शार्टकट नहीं होते
ReplyDeleteकम समय में अभीष्ट लक्ष्य की चाह
ReplyDelete... बिल्कुल सच कहा आपने
आभार
गुरुजनों को नमन
ReplyDeleteगुरुजन हमारे पथप्रदर्शक,आभार.
ReplyDeleteबदलते वक़्त के साथ यह प्रणाली भी बदली है.
ReplyDeleteसीखना- सिखाना है पर उसके तकनीक /तरीके बदल गए हैं.
आपकी बातों से काफी हद तक इत्तेफाक है.ज्ञान दान और ज्ञान ग्रहण के प्रति समर्पण और श्रद्धा पर आपके अंतिम उदहारण कंप्यूटर बनाम स्लेट से सहमति नहीं .ज्ञान देने-पाने के उपादान और उपकरण बदलते रहते हैं.प्राचीन कल में ज्ञान गुरु से शिष्य को कंठस्थ करा कर सरक्षित और प्रद्दत होता था फिर स्लेट पेंसिल से फिर कापी -पेन और अब कंप्यूटर से. ज्ञान प्राप्ति का तरीका कतई महत्वपूर्ण नहीं है महत्व उस भावना और निष्ठां का है जिससे ज्ञान हस्तांतरित होता है.आज के युग में भी ज्ञान स्लेट बत्ती से दिया जाय यह व्यावहारिक नहीं प्रतीत होता सादर.
ReplyDeleteइस युग में इन बातों का मोल नहीं रहा, पढ़ कर मन जुड़ा गया. संजय जी को समर्पित करना भी... बात जमती है.
ReplyDeleteकालानुसार शिक्षा पद्धति में बदलाव होता आया है, जैसा पहले था वैसा आज न होगा।
ReplyDeleteआज माँ / बाप / पालक को फुर्सत नहीं और कम समय में अभीष्ट लक्ष्य की चाह,आभार
ReplyDeleteRecent Post : अमन के लिए.
वो समय न रहा, ये भी न रहेगा।
ReplyDeleteआभार व्यक्त करता हूँ सिंह साहब।
आज अपने पास ही समय नहीं तो क्या किया जाए .. फिर वो पद्धति भी तो हम ने मिल के ही खतम की है ... आधुनिकता की दौड़ में कुछ तो खोना पड़ेगा ... पर क्या खो रहे हैं ये भी सोचना होगा ...
ReplyDeletebadiya lekh.samay sab kuch dumil kar sakta hai.par guru ka mahtav sada raha hai aur sada tak rahega.
ReplyDeleteहमें तो गुरुजनों से नंगी हथेलियों पे बेंत की सुंटाई याद रह गई है. जग तो परिवर्तनशील है. पढ़ाई के तौर तरीके बदल गए हैं. भले हमें वे भायें या ना भायें. विद्यार्थियों में विलक्षणता अभी तो बरकरार है.
ReplyDeleteकलयुग है कुछ भी हो सकता है सब कुछ संभव है |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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आपने बचपन याद करा दिया ....
ReplyDeleteसर्वप्रथम एक ऐसे ही गुरुकुल में हमारा दाखिला हुआ था क्योंकि आस पास कोई अच्छा स्कूल नहीं था ....पर बड़ा मज़ा आता था उनके पढ़ने के ढंग से .....
फाड़े कुछ इस तरह याद कराए जाते ....
पन्द्रह का पन्द्रह
पन्द्रह दुनी तीस
तीस पैंतालिस
चौका साठ
बम पचहत्तर
छक्का नब्बे
देखिये न आज भी याद है ....:))