सूर्य की प्रचण्डता से
समुद्र का जल होता है वाष्पित
बनते हैं मेघ
जो आते हैं अक्सर समय पर
और कभी-कभी आगंतुकों से
बनाते हैं सेतु जल कणों के लिए
वहीं आने के लिए
जहां से वे उठे थे
ये सराबोर कर देती हैं धरा को।
बूंदों से बनती है जलधारा
सलिलधारा अपनी प्रकृति से
चल पड़ती है ढलान की ओर
समतल जमीन पर उकेरने लगती है
बारीक लकीरें
समतल धरती कटने लगी
जलप्रवाह ने बना दिया नाला
प्रबल धारा से समतल धरा पर
बन गई वेगवती नदी
सपाट वसुंधरा बंट गई
दो पाटों में
दोनों अलग-अलग किनारे
गहरे होते चले गए
अपनी-अपनी नियति से
कभी न मिलने के लिए
समय के साथ-साथ
नदी मिल गई समुद्र में
किंतु वाष्पित जल ने बांट दिया
समतल धरती को दो हिस्सों में
नदी के किनारे खुद ब खुद
होते चले गए चिकने गंदी जलधारा से
कोई कभी पैर धरेगा किनारों पर?
फिसलेगा ही विद्वान
चाहे कितनी ही समझदारी हो
बन जाती है यह नियति
अब नियति की नीयत पर
सवाल और अविश्वास क्यों?
अब करो किनारा या ढूढ लो
नियति की नियति को
10/02/2007
तथागत ब्लाग के सृजनकर्ता
श्री राजेश कुमार सिंह को सादर समर्पित
मजबूत रिश्ते /संबंध भी ऐसे ही बनते बिगड़ते
चले जाते हैं बड़ी पीड़ा होती है खून के रिश्तों को
अलग बंटा देखकर आंसू छलकते ही नहीं।
ये बात नहीं कि गम नहीं, हां मेरी आंखें नम नहीं।
चित्र गूगल से साभार
Prakrity ki prakrity ke rahasyo ke jane anjane raj khoti rachana. Badhai
ReplyDeletePrakrity ki prakrity ke rahasyo ke jane anjane raj khoti rachana. Badhai
ReplyDeleteनदी मिल गई समुद्र में
ReplyDeleteकिंतु वाष्पित जल ने बांट दिया
समतल धरती को दो हिस्सों में...bahut hi gahan abhiwyakti....
अति सुंदर.... गहरे भाव.....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.....गहन अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteसादर.
समय के साथ-साथ
ReplyDeleteनदी मिल गई समुद्र में
किंतु वाष्पित जल ने बांट दिया
समतल धरती को दो हिस्सों में
सुंदर भावों से युक्त एक अच्छी कविता।
परिवारों का बंट जाना, कितना स्वाभाविक, लेकिन कैसा त्रासद. अमूल्य लेखन, लाजवाब.
ReplyDeleteखून के रिश्ते बंटते हैं तो खून के आँसु ही निकलते हैं। सनातन से चली आ रही प्रक्रिया……… कितना कुछ बंट जाता है। उम्दा अभिव्यक्ति
ReplyDeleteकुछ बातें आज भी क़ायम हैं ...बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteसमय के साथ-साथ
ReplyDeleteनदी मिल गई समुद्र में
किंतु वाष्पित जल ने बांट दिया
समतल धरती को दो हिस्सों में
नदी के किनारे खुद ब खुद
होते चले गए चिकने गंदी जलधारा से
कोई कभी पैर धरेगा किनारों पर?
फिसलेगा ही विद्वान
चाहे कितनी ही समझदारी हो
बन जाती है यह नियति
sahi abhivyakti
बहुत अच्छा लगा हमे.
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeletei have given your blog's introduction on YE BLOG ACHCHHA LAGA please visit and share your views with us .thanks .
ReplyDeleteदोनों अलग-अलग किनारे
ReplyDeleteगहरे होते चले गए
अपनी-अपनी नियति से
कभी न मिलने के लिए
बहुत ही बढ़िया रचना,सुंदर अभिव्यक्ति,बेहतरीन पोस्ट,....
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: मै तेरा घर बसाने आई हूँ...
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteआप को सुगना फाऊंडेशन मेघलासिया,"राजपुरोहित समाज" आज का आगरा और एक्टिवे लाइफ
,एक ब्लॉग सबका ब्लॉग परिवार की तरफ से सभी को भगवन महावीर जयंती, भगवन हनुमान जयंती और गुड फ्राइडे के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं ॥
आपका
सवाई सिंह{आगरा }
सूर्य की प्रचण्डता से
ReplyDeleteसमुद्र का जल होता है वाष्पित
बनते हैं मेघ
जो आते हैं अक्सर समय पर
और कभी-कभी आगंतुकों से
बनाते हैं सेतु जल कणों के लिए
वहीं आने के लिए
जहां से वे उठे थे...
...बेहतरीन अभिव्यक्ति
सवाल
१५॰१२॰२०११
"समंदरों की आब क्या है? ये है सवाल मेरा,
जवाब है ; 'फ़क़त खैरात "राज़" बूँदों की'।।"
संजय "राज़"