हर सुबह मेरी मां
यूं गुनगुनाती है
ये प्राची की किरणें
एक शाम लाती है
हर शाम की घंटी
एक गीत गाती है
उठ देख आ लल्ला
तेरी दीदी बुलाती है
लहरें समंदर की
या हो रेत की आंधी
बरसे गगन अग्नि
या रात अंधियारी
बन वृक्ष की छाया
सदा वो फैल जाती है
आंचल धरा का वो
सृजन बन फैल जाती है
मेरी मां गुनगुनाती है
मुझे लोरी सुनाती है
(चित्र गूगल से साभार)
रमाकांत सिंह 15/10/1997
बहुत ही सुन्दर....
ReplyDeleteतभी तो वो मां कहाती है...
बहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteमाँ की कोई तुलना ही नहीं हो सकती क्योंकि वो जो होती है वैसा कोई नहीं होता।
सादर
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‘जो मेरा मन कहे’ पर आपका स्वागत है
माँ जैसा कोई हो नही सकता,
ReplyDeleteमाँ से बड़ा कोई हो नही सकता,
सभी माताओं को सलाम करता हूँ
माँ के चरण छू कर प्रणाम करता हूँ,....
बहुत बढ़िया प्रस्तुति,भावपूर्ण सुंदर रचना,...
RESENT POST...काव्यान्जलि ...: तब मधुशाला हम जाते है,...
bhavnao ke sundar abhivakti....
ReplyDeleteबहूत हि सुंदर रचना है..
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुती...
कम शब्दों में व्यापक और गहरे भाव.
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव ....
ReplyDeletebahut pyari ......
ReplyDeleteगहरे भाव ... माँ तो अपने आप में सम्पूर्म श्रृष्टि है ...
ReplyDeleteसुन्दर रचना ..
कोमल ,मीठी ,प्यारी सी सहज अभिव्यक्ति..प्रवाह में बहाती हुई..
ReplyDeleteकल 16/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
हृदयस्पर्शी .....
ReplyDeleteसच तो यह है ..आह भी उठ थी जहाँ -
ReplyDeleteमाँ का दिल ढाल बनकर हो खड़ा जाता वहां .....
.....इसी मर्म को आपने अपनी रचना में बहुत ही सुन्दरता से उभारा है
माँ को समर्पित सुंदर भाव !
ReplyDeleteभावों की बहुत सुंदर और सहज अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!!
ReplyDeleteसुन्दर प्रतीक, सुन्दर रचना!
ReplyDeleteआंचल धरा का वो
ReplyDeleteसृजन बन फैल जाती है
बहुत सुंदर और बहुत खुबसूरत.
सुन्दर प्रस्तुति.....बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteलहरें समंदर की
ReplyDeleteया हो रेत की आंधी
बरसे गगन अग्नि
या रात अंधियारी
बन वृक्ष की छाया
सदा वो फैल जाती है
मां की ममता बरगद की शीतल छाया है।
बहुत अच्छी कविता।
बात माँ की हो तो हर शब्द बोल उठता है.
ReplyDeleteभावपूर्ण अभिव्यक्ति.