रमाकांत सिंह वल्द स्व श्री जीत सिंह
दिन रविवार रात ३ बजकर ५७ मिनट
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वसीयत को मेरे मरने के बाद कौन पूरा करेगा?
कह पाना आज कठिन है जब मैं जिंदा हूँ
मरने के बाद कोई बाध्यता नहीं न ही कोई बंधन
और ज़रूरत भी क्या किसे फुरसत होगी पूरा करे
जब तक उसे क़ानूनी जामा न पहनाया जाये
न पाने की इच्छा, न मिलने का भरोसा, न देने वाला कोई
क्या बचा है, कौन बताएगा? किसके हिस्से में क्या आया?
जो दिखा रहा है उसका दावेदार कौन कौन है? प्रयास व्यर्थ
कौन टपक जाये क़ानूनी हक़दार बनकर कठिन पेंच होंगे?
फिर भी सब कुछ समाप्त हो जाये ऐसा सम्भव बनेगा?
हिन्दू परिवार में क़ानूनी हक़दार कौन इस पर प्रश्न पर प्रश्न?
लाश सड़ जायेगी नैसर्गिक वारिस खोजने के चक्कर में दो मत?
पिता की मृत्यु के बाद माँ को दाने दाने तरसते देखा है मैंने
और माँ की मृत्यु के बाद पिता को किसी कोने में आंसू बहाते
कोई नई बात नहीं दोष किसका? नियति या दुर्भाग्य किसका
किन्तु प्रेम करते माँ बाप भाई बहन भी हमारे ही बीच आज भी
जब मैं मरूं तो मेरे कारण सबकी आँखों में आंसूं हो मैं क्यों चाहूँगा ?
मेरे मरने के बाद कोई विवाद न हो खासकर अर्थहीन अर्थ हेतु
मेरी दिली ख्वाहिश है की मुझे प्रातः उज्जैन में ही जलाया जाये
और मेरी भष्म से महाकाल का अभिषेक कर मुझे मुक्त किया जाये
आस्थियाँ गंगा में बहाकर मदन मोहन महाराज की गद्दी से
मेरे दत्तक पुत्र युवराज सिंह से श्राद्ध करवाया जाये
ताकि वह भी जाने अनजाने क़र्ज़ से मुक्त हो
बिना किसी तामझाम के शांति पूर्वक सादा भोजन करवायें
मुझे ज्ञात है मेरे चाहनेवाले भोजन ऐसा ही करेंगे
और जो मुझे चाहते ही नहीं उन्हें भोजन करवाकर दुखी न करें
भोजन व्यर्थ कर कुछ सिद्ध करना उचित होगा ?
मेरी समस्त चल अचल संपत्ति पर बराबर का केवल मेरी बहनों
रेखा सिंह, सुनीता सिंह , प्रतिमा सिंह और सरिता सिंह का ही अधिकार है
न जाने कब दिन ढल जाये …….
कल वक़्त मिले न मिले तब ……
मेरे असामयिक निधन पर इसे ही मेरी अंतिम वसीयत मानी जाये
जीवन क्षण भंगुर है न जाने कब सूरज डूब जाये
सो लिख दिया ,पुरे होश हवाश में, गवाह आप सब
सनद रहे वक़्त पर काम आवे और विवाद से मुक्त हो जीवन
कुछ लोग मेरे किसी भी प्रकार के मृत्यु कर्म में शामिल न हों
और उन्हें खबर न करें जिन्हें मैं सबसे ज्यादा घृणा करता हूँ
रमाकांत सिंह वल्द स्व श्री जीत सिंह
दिन रविवार रात ३ बजकर ५७ मिनट
प्रकाशन दिनांक २०। ०८। २०१३
श्रावण शुक्ल १४ दिन मंगलवार
kya bat hai ?
ReplyDeleteआपके सहृदयता और सहयोग के साथ ही बुधवारीय चर्चा मंच पर प्रकाशन के लिए आभार
ReplyDeleteगजब कर डरे बाबु साहब, पहिली बेर कोनो ब्लॉग मा अपन वसीयत ल सार्वजानिक रूप ले घोषित करे हे.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ..
ReplyDeleteवसीयत पसंद आई भाई रमाकांत सिंह !!
एक अच्छा कदम !
जो मृत्यु के प्रति सहज है वह ही जीवन के प्रति सचेत है और जीवन का भरपूर आनन्द ले सकता है । यह समझदारी की बात है । वैसे मैं भी दस वर्ष पूर्व न केवल वसीयत लिख दी हूँ अपितु जिसे जो देना था उसे दे भी चुकी हूँ , नामान्तरण भी कर चुकी हूँ । मैं तो बहुत हल्का अनुभव करती हूँ । मैं अपने खेतों को पहचानती नहीं, पर बच्चे अच्छे से खेती कर रहे हैं । एक को घर और एक को बी एस पी से जो मिला वह दे कर परम निश्चिंत हो गई हूँ । अभी जो मेरे पास है उसका भी वसीयत कर चुकी हूँ । यही तो जीवन जीने का सही ढंग है । मृत्यु अवश्यंभावी है क्योंकि यह मृत्यु-लोक है यहॉं हर क्षण हर चीज़ मर रही है-" कालो जगत् भक्षति ।"
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ,पहलीबार किसीने अपनी वसीयत ब्लॉग पर सार्वजनिक रूप से घोषित किया.सराहनीय कदम
ReplyDeletelatest post नए मेहमान
मन उदास हुआ......
ReplyDeleteजीवन की सच्चाईयों से मगर मुंह नहीं मोड़ सकते....
सादर
अनु
जीवन की सच्चाई है ..जीवन है तो मृत्यु तो है ही..
ReplyDeleteभावपूर्ण..
गहरा अर्थ लिए ... जीवन की कुछ कठोर सचाइयों को छूते हुए ... बहुत हो लाजवाब, प्रभावी रचना ...
ReplyDeleteबाकी तो सब ठीक है पर घृणा करने जैसी चीज तो नहीं...
ReplyDeleteगहन भाव लिये मन को छूती प्रस्तुति
ReplyDeleteजीवन ्के कुछ कठोर सच..रक्षाबंधन की शुभकामनाएं
ReplyDeleteदेवासुर संग्राम हो रहा नित-प्रति हर युग में हर बार । उचित-अनुचित की समझ कठिन है ज्यों हो दो-धारी तलवार । हुआ पराजित नर षड्-रिपु से नित्य-निरंतर बारम्बार । लक्ष्य हेतु तत्पर है फिर भी उसे चुनौती है स्वीकार । " शाकुन्तल" से ।
ReplyDeleteअच्छे विचार हैं.
ReplyDeleteलेकिन अभी से ऐसा क्यों सोच रहे हैं बंधू !
अभी लम्बा सफ़र तय करना है.
सफ़र कहाँ ख़त्म हो जाये पता नहीं। अचानक चला चली कौन जानता है। इसलिए थोड़ी सी सावधानी, बस और कुछ नहीं। यह मेरे आटोबायोग्राफी का हिस्सा भी है।
Deleteमेरी मान्यता है वसीयत निजी दस्तावेज है इसे सार्वजानिक कर समाज सुधार हेतु कोई सन्देश देना चाहते हैं.ऐसा प्रतीत हो रहा है
ReplyDeleteसर जी आपसे क्या परदा या छुपा है या छुपाना, जो कल दर्द दे उसे आज अपनों को उजागर कर देना बेहतर
Deleteयह सत्य है कि मौत कब आ जाय,और मरने के बाद कोई विवाद निर्मित हो,बेहतर है कि अपनी वसीयत आज उजागर कर दे,और मरने के बाद आत्मा को शान्ति मिले,,
ReplyDeleteRECENT POST : सुलझाया नही जाता.
आपकी पोस्ट का शीर्षक है- ''वसीयत WILL'', बस यहीं अटका हूं, आगे नहीं बढ़ पा रहा...
ReplyDeleteWILL-इच्छाएं शायद मुमुक्षा के साथ तीव्र होने लगती हैं, देह-अन्त होता है, इच्छा का नहीं...
जीवन-मरण का चक्र, पुनर्नवा...
सर जी आपने सच कहा बस मन के एक कोने बैठे कुंठा कहूँ या विचार को व्यक्त कर दिया। मृत्यु के बाद क्या सही, क्या गलत कौन जानता या देख पाता है। ये विचार मेरी आत्म कथा के अंश भी हैं।
Deleteकहानी, चाहे वह आत्मकथा हो, खुद लिखें तो खुद समेट लेना बेहतर होता है, दूसरों के लिखे जाने के लिए असमाप्त छोड़ने के बजाय.
Deleteवसीयत तो ठीक है भाई जान पर इस बहन का नाम कहीं ......... :))
ReplyDeleteपर इस बहन का नाम कहीं नहीं ......... :))
ReplyDeleteरमाकांत जी, फौरन ध्यान दें. दावे-आपत्ति आना शुरू हो रहा है :))
Deleteहरकीरत हीर जी आप जैसी बहन पाकर मैं धन्य हूँ आपने हमें चलना सिखलाया और सदा हौसला दिया है आपका क़र्ज़ अगले जन्म भी चुकता हो पाना सम्भव नहीं आपकी भागीदारी का आभार
Deleteभावों से नाजुक शब्द को बहुत ही सहजता से रचना में रच दिया आपने.........
ReplyDeleteऐसे क्यों लिखा सर ?:( माना इसमें कुछ ऐसी सच्चाइयाँ हैं... जो बहुत ही कड़वी हैं... मगर उन्हें इस तरह प्रस्तुत करना..? -आज रक्षा-बंधन के दिन दिल दुखी हो गया... :( हालाँकि दिल दुखने का कोई दिन, कोई पल निश्चित नहीं होता... फिर भी...
ReplyDelete"आपका जीवन दीर्घायु हो, सुखी, स्वस्थ तथा मन की शांति से परिपूर्ण हो ... यही हमारी ईश्वर से प्रार्थना है..और सदा ही रहेगी...! "
~सादर!!!
जीवन का उद्देश्य और प्रेरणा श्रोत आप जैसे स्नेह कर्ता हैं और हम आपके लिए जिंदा हैं कल दुःख कम हो इसलिए आज प्रकाशन लाज़मी समझा आपने आशीर्वाद दिया प्रणाम स्वीकारें।
Deleteजीवन के सच स्वीकारना अच्छा है पर अभी बहुत समय तक आप कहीं नहीं जा रहे -आराम से जो करना है करते चलिये !
ReplyDeleteमाता जी प्रणाम आपका आशीर्वाद सिर पर है कोई चिंता नहीं परिस्थितियां कब प्रतिकूल हो जाये आपके स्नेह का सदा आकांक्षी
Deleteजीवन क्षण भंगुर है न जाने कब सूरज डूब जाये
पूर्णतः सहमत हूं...
लेकिन...
आदरणीय भाईसाहब रमाकांत सिंह जी
अभी बहुत समय है...
आपके लिए एक लिंक दे रहा हूं -
किसी निराशा की अनुभूति क्यों ? क्यों पश्चाताप कोई ?
शिथिल न हो मन , क्षुद्र कारणों से ! मत कर संताप कोई !
निर्मलता निश्छलता सच्चाई , संबल शक्ति तेरे !
कुंदन तो कुंदन है , क्या यदि कल्मष ने आ घेरा है ?
वर्तमान कहता कानों में … भावी हर पल तेरा है !
मन हार न जाना रे !
पूरा गीत मेरे ब्लॉग की एक पुरानी पोस्ट पर है
हेडफोन लगा कर सुनते हुए पढ़िएगा...
:)
ज़िंदगी में सदा मुस्कुराते रहो...
♥ रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएं ! ♥
-राजेन्द्र स्वर्णकार
आह! कटु सत्य किन्तु कारवाँ गुजरने के बाद धूल को भी भुला दिया जाता है..
ReplyDelete......बहुत ही लाजवाब
ReplyDeleteशब्दों की मुस्कराहट पर....तभी तो हमेशा खामोश रहता है आईना !!
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ReplyDeleteरमाकान्त भाई आपकी वसीयत पढ़ी। अच्छा किया आपने समय रहते काम कर लिया। वसीयत में घृणा शब्द मुझे थोड़ा उपयुक्त नहीं लगा। प्यार, घृणा, यह सब तो जीते जी के जंजाल है, चले जाने के बाद किससे राग -द्वेष। इसलिए मेरे ख्याल से घृणा वाला वाक्य हटा दे तो ज्यादा बेहतर होगा, फिर आपकी मर्जी।
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