गुरुकुल ५

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Friday, 15 March 2013

राम मर्यादा पुरुषोत्तम

मेरे राम 

*
राम मर्यादा पुरुषोत्तम
राघवेन्द्र सरकार, दशरथ नंदन,
और जनक नंदनी सीता के
ए जी
करुणानिधान श्री रामचंद्र जी

राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की।।
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी।।

जनकदुलारी का पति को संबोधन * करुनानिधान *जिसे *कोड* करके
पवन पुत्र ने मुद्रिका दी। [सुन्दरकाण्ड]
**
लाग न उर उपदेस जदपि कहेउ सिव बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जिय।।

जौं तुम्हरे मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहु।।
तब लगि बैठ अहऊँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाही
होइहि सोई जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा।।
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गई सती जहँ प्रभु सुखधामा।।

शिव जी कहते है हे पार्वती प्रभु के चरित पर कभी संदेह नहीं होना चाहिये।
यदि है तो जाओ परीक्षा ले लो किन्तु .........परिणाम [ बालकाण्ड ]
***
एक बार ऋषि याज्ञवल्क जी से राजा जनक ने अपने भाग्य पर प्रश्न पर पूछा
ऋषि ने कहा हे राजन अपना भाग्य जानकर क्या करोगे,
जीवन में ज्ञान हेतु जिज्ञासा आवश्यक है
किन्तु किसी की परीक्षा के लिए कदापि नहीं
वैसे भी अपना भाग्य जानकर दुःख होगा।
जब जनक जी द्वारा भाग्य पर ज्यादा बल दिया गया तब ऋषि राज ने कहा
राजन अभी अभी मेरे पैर छूकर रानी सुनयना ने आशीर्वाद लिये
जानते हो पूर्व जन्म में यह तुम्हारे किस रिश्ते में थी?
राजन ये पूर्व जन्म में आपकी माता थीं।
विदेह राज जी तब से जीवन पर्यन्त
रानी सुनयना के प्रति मातृवत व्यवहार में रहे।
****
लछिमन बनहिं जब लेन मूल फल कन्द।
जनकसुता संन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद।।

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला।
तुम्ह पावक महुं करहु निवासा। जौं लगि करौ निशाचर नासा।।

जबहिं राम सब कहा बखानी।प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी।
निज प्रतिबिम्ब राखि तहँ सीता। तैसह सील रूप सुविनीता।।
[ अरण्य काण्ड ]
*****
प्रभु के वचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कंज।।

पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना।।
समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल ले तुम्ह चलि आवहु।।

सीता प्रथम अनल महुं राखी। प्रगट किन्हि चह अंतर साखी।।

प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता।।
लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी।।
पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदय हरष नहिं भय कछु तेही।।
जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं।।
तौ कृसानू सब कै गति जाना। मो कहुं होउ श्रीखंड समाना।।
[ लंका काण्ड ]

******
श्री रामचंद्र जी अवतरित हुए और उनके चरित का हमने श्रवण,
गायन और दर्शन का लाभ लिया। हम यदि पम्पासरोवर की भांति
निर्मल जल से भर जावें तो हंस और चक्रवाक पक्षी उसमें विचरेंगे
सरोवर के चारों ओर रसीले फलदार वृक्षों के समूह स्वतः उग आयेंगे
ऐसे पवित्र स्थान पर श्री रामचंद्र जी वनवास के समय भी गुजरेंगे ही,
उनसे मिलने नारद जी संग संत समाज आयेंगे, देव गण पुष्प बरसायेंगे
और कौन नहीं कहेगा जीवन धन्य हो गया?

*******अवतार, लीला, चरित और जन्म में शायद कुछ भेद है?********

और शायद यही अंतर हमारे भी जीवन में कहीं कहीं झलक जाता है
जब कभी हम रंगमंच पर अपनी भूमिका में दिखलाई पड़ते हैं
चाहे भोले शिवशंकर हों, विश्वमोहिनी के रूप में विष्णु जी,
या कुरुक्षेत्र में सुदर्शन चक्र धारण कर वचन तोड़ते यशोदानंदन जी


15 मार्च 2013
समर्पित माता श्री कुमारी देवी और
आदरणीया मंझली मामी श्री मति आशा देवी को
जिनकी कृपा और मार्गदर्शन हरि कथा हेतु सदा बनी रही
चित्र गूगल से साभार
[एक विनय लिपि की त्रुटी के लिए क्षमा]

18 comments:

  1. वा~~~~ह भाई जी !
    आभार आपका !

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  2. सुंदर कल्‍याणकारी कथा-प्रसंग.

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  3. पढ कर मन निर्मल भी हुआ और आनन्दित भी।

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  4. बढ़िया है आदरणीय--
    आभार आपका ||-

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  5. उम्दा तथा सार्थक ,बधाई ...

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  6. सार्थक रचना
    जय,जय,श्री राम

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  7. बहुत ही सुन्दर और सार्थक रचना,आभार.

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  8. सुन्दर कथा वर्णन ...
    सादर आभार !

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  9. सुन्दर , सार्थक हरि कथा।

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  10. अनुपम भाव संयोजित किये हैं आपने ... आभार

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  11. हरी कृपा बनी रहे बस यही उम्मीद. सुंदर प्रस्तुति.

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  12. वाह ... परम आनद की अनुभूति हुई है ...
    प्रसंग को अनुपम शब्दों में संजोया है ...

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  13. कुल मिलाकर सीमाओं में रहकर ही आचरण करो... भाग्य में नहीं कर्म में विश्वास रखो ...
    और भी बहुत कुछ ..एक अच्छी पोस्ट

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  14. राम को समर्पित सुंदर श्रद्धा सुमन..आभार !

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  15. इस बार पोस्ट का रंग अलग है.
    बहुत अच्छा लगा हरी कथा पढ़ना.

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