आज
अशांत और उद्विग्न विक्रम ने
वट वृक्ष के डाल पर चला दी तलवार
अचंभित वेताल धड़ाम से भूमिशात
राजन
आपने न्याय किया?
राजन आपको ज्ञात है?
मृत्यु के बाद
चोट का एहसास होता है?
आँखें उठाकर देखो
मुखमुद्रा बदली सी क्यों है?
परिधान और परिवेश भी?
खादी कुर्ता और ये टोपी क्यों?
चेहरे पर कुटिल मुस्कान में ख़ामोशी
उल्टा मैं लटकता हूँ?
और इनके कार्य प्रति पल?
राजन मैं मरकर भी समझता हूँ
और ये अपनी जानें
ये हरसिंगार के फूल
और झिलमिल करती रोशनी
ये तेज, ये प्रदीप्ति
वर्ष में एक बार ही?
हर बरस पोंछ दी जाती हैं मूर्तियां
पुरे बरस धूल ज़मने के लिये?
जन्मदिन पर ही?
धो देते हैं पखेरुओं के बीट
अगले साल तक भूलने के लिए?
राजन
किसने कहा था?
अपमानित करने के लिये
प्रतिमा स्थापित करें?
अकस्मात् शिल्पी के कृति के
होठ हिले और शब्द झरे
एक आग्रह फिर ललकार
अप्रसन्नता से रोष भरे
हाथ नहीं लगाना मुझे
तोड़ने या निर्जन वन में छोड़ने के लिए
अब घिन सी आती है
तुम पर नहीं खुद के कृत्य पर
क्यों नित नये स्वांग रचकर
जन्मदिन मानते हो?
कीर्तन और शांति के गीत गा
छलनी कर, तार-तार कर जाते हो
चलो पकड़ो अपनी राह
या चल पड़ो मेरी राह
साहस जुटाओ
गोली खाओगे?
कठिन हैं राहें?
स्वदेश प्रेम की?
गरीबों की आह?
न फूलों की चाह?
न काँटों की राह?
अकेले-अकेले?
राजन आज तो मौन तोड़ो
मृत शिराओं में खून छोड़ो
आज न सत्य का आग्रह
न गलत पर विस्मय
न वाणी में स्वधर्म
मौन मुस्कराहट धर चौराहे पर
ध्यानमग्न, निर्लिप्त, निश्चल
30 जनवरी 1948 से
हे महात्मन
मेरा प्रणाम स्वीकार करें
आज न सत्य का आग्रह
ReplyDeleteन गलत पर विस्मय
न वाणी में स्वधर्म
मौन मुस्कराहट धर चौराहे पर
संपूर्णतः मुक्त
ध्यानमग्न, निर्लिप्त, निश्चल
गहन भाव लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ।
सुन्दर प्रस्तुति रमाकांत जी ||
ReplyDeleteहर बरस पोंछ दी जाती हैं मूर्तियां
ReplyDeleteपुरे बरस धूल ज़मने के लिये?
जन्मदिन पर ही?
धो देते हैं पखेरुओं के बीट
अगले साल तक भूलने के लिए?
सिर्फ स्वांग बनकर रह गया है आज सत्याग्रह... गहन अभिव्यक्ति के लिए आभार आपका
अनूठी श्रद्धांजलि.
ReplyDeleteराजन आज तो मौन तोड़ो
ReplyDeleteमृत शिराओं में खून छोड़ो....
........
बेताल, काश मैं भी लटक जाता इस पेड़ से उल्टा
कम से कम मैं भी किसी बेबस से उत्तर मांगता
कुछ न करता
सिर के सौ टुकड़े तो करता !
उत्तरदायित्वों से परे
सबकुछ देखते रहना
प्रश्न उठाना
बहुत आसान है
पर मैं जीवित होकर भी मूक हूँ
या यूँ कहो- कर दिया गया हूँ
कहीं कोई स्वतंत्रता शेष नहीं
अपनी पहचान का दिखावा है
......
सम्मान नहीं तो इस जन्मदिवस का क्या मूल्य है - तुम्हीं कहो
आदरणीया रश्मि प्रभा जी प्रणाम स्वीकार करें आपका संबल लेखन को गति प्रदान करता है .
Deleteउत्कृष्ट रचना ..बापू को नमन
ReplyDeleteगरीबों की आह?
ReplyDeleteन फूलों की चाह?
न काँटों की राह?
अकेले-अकेले?
राजन आज तो मौन तोड़ो
मृत शिराओं में खून छोड़ो,,,
वाह,,,इस अनूठी प्रस्तुति के लिये,रमाकांत जी हार्दिक बधाई,
RECECNT POST: हम देख न सके,,,,
सुन्दर कृति...
ReplyDeleteप्रासंगिक और विचारणीय थोड़ी बहुत प्रतिमाओं को दिल/विचारों में स्थान देंगे आशा है.प्रशसनीय
ReplyDeleteउस महात्मा को मेरा भी शत-शत नमन!
ReplyDeleteअनुपम रचना..बापू को नमन
ReplyDeleteआपकी शानदार रचना और उसपर रश्मि दी की प्रतिक्रया के उपरांत हमारा कुछ भी कहना इस रचना के निहित भावों की बराबरी नहीं कर सकता.. आभार रमाकांत जी!!
ReplyDeleteबापू गांधी को एक अलग ढंग से दी गयी श्रद्धांजलि.
ReplyDeleteसामायिक और सटीक प्रश्न लिए उत्तम रचना .
उत्कृष्ट रचना.सटीक पंक्तियाँ .
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