तुम जानती हो?
कि मैं सब कुछ जानता हूं
सब कुछ?
लेकिन तुम्हारी आँखों ने तो
कभी कुछ नहीं कहा
अरे तुम नहीं जानते?
मैं तो समझती थी
तुम समझती हो?
तुमने कहा और मैंने मान लिया?
मैंने ऐसा कब कहा?
तुम्हे अपने किये पर
कोई ग्लानि नहीं?
क्यों?
होना चाहिये?
नहीं मैं अपनी शर्तों पर
अपनी ज़िन्दगी जीती हूँ
मैं क्यों उसकी परवाह करूँ?
जिसे मेरी फिक्र नहीं
क्या यह एक छल नहीं?
ऐसा तुम सोचते हो
मैं नहीं
ये तुम्हारी नादानी वा जिद?
बिलकुल नहीं
यह एक शैली है
जीवन शैली
मैं अब तुमसे पूछती हूं
तुम्हे संकोच
या कभी ग्लानि
तब मैं क्यों
अपना जीवन खपाऊँ?
आर या पार
जीवन कहाँ बार-बार
चित्र गूगल से साभार
मैं अब तुमसे पूछती हूं
ReplyDeleteतुम्हे संकोच
या कभी ग्लानि
तब मैं क्यों
अपना जीवन खपाऊँ?
बहुत सुंदर भावमय अभिव्यक्ति ,,,,,,
MY RECENT POST: माँ,,,
सीमित संवाद में जीवन को विस्तार से रख दिया है आपने.. बहुत ही अच्छी रचना..
ReplyDeleteबहुत खूब !
ReplyDeleteभावपूर्ण सुन्दर संवाद..
ReplyDeleteसही है ...
ReplyDeleteशुभकामनायें !
बहुत खूब!! पूरा व्यक्तित्व उभर कर आया इस कविता में!!
ReplyDeleteभूलभुलैया में से निकलती राह.
ReplyDeleteखूबसूरती से लिखा है मन में उठाते संवाद को
ReplyDeleteएक अन्तरद्वन्द जो सार्थक अंत लिए हुए...बहुत खूब |
ReplyDeleteसादर |
मानो न मानो
ReplyDeleteजानो न जानो।
कभी कभी सवाल ही सवाल का उत्तर बन जाते हैं।
सिंह साहब, नये शतक के लिये गार्ड्स लीजिये। पिछले के लिये बधाई, अगले\अगलों के लिये आनुज की तरफ़ से हार्दिक शुभकामनायें।
भावमय अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteदिल को छूने वाली...
बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही भावनामई रचना.बहुत बधाई आपको
ReplyDeleteहमारे अपने ही छलने के लिए
ReplyDelete,पर फिर भी पांव चलने के लिये
और हाथ मलने के लिए
जीवन शैली क्या इसी का नाम है ?
सर यूँ ही आपका मार्गदर्शन मिलता रहे .
Deleteवाह ...बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteसच! जीवन सिर्फ़ एक ही बार...कहाँ बार-बार ...
ReplyDelete