गुरुकुल ५

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Monday 7 May 2012

घर-घर की कहानी




जो जस लिखा तहां तस होई जनम विवाह मरन गति सोई।
तुलसीदास जी ने लिख दिया और खिसक लिए अपने धाम।

बातें तो हमें युग की निभाना इस युग में उस पर तुर्रा भारतवर्ष के गांवों की जहां लोग बुद्धिमान नहीं क्लेभर हो गये हैं लेकिन हम भी कहां मानने वाले थे निकल ही गये शादी लगाने चार मनमौजी परिवार में। चलते.चलते मेरी बहन ने कहा कुछ बातों का खयाल रखना तुम्हें दुःख नहीं होगा और न ही शादी लगाने में दिक्कत भी आयेगी।

नंबर 1 हम विश्‍व सुन्दरी नहीं हैं
नंबर 2 आपके पास इतना धन नहीं है कि किसी लड़के को खरीदा जा सके
नंबर 3 हम किसी महान पद पर कार्यरत नहीं कि जिसका लाभ दिखे
और नंबर 4 अंतिम बात हमारी उम्र 14 बरस नहीं कि आप 4 बरस शादी लगाने के लिये फेरे लगा पायें और लोग आपका इंतजार करते रहें।

खुशनसीब हैं वे लोग जिन्हें बेटा जैसा दामाद और भाई जैसा जीजा मिलता है और वे भी कम खुशनसीब नहीं जिन्हें बेटी जैसी बहू और बहन जैसी भाभी मिले। शायद जिंदगी को बेहतर जीने के लिए हमें जितना जरूरी है अच्छे दामाद की उतना ही जरूरी होता है एक अच्छी बहन जैसी बहू का होना जो दोनों कुलों के सम्मान की रक्षा करे।

हम चाहे कितने भी आधुनिक प्रगतिशील बहुआयामी खुले विचारधारा के बन जायें या होंए चाहे हम कस्बा से हटकर महानगर में बसे हों या फिर महानगर में ही पैदा हुए पले.बढ़े अति संवेदनशील युवा वर्ग के हों। हमारी संस्कृति, परम्परा, रीति रिवाज, मान्यता, संस्कार भारतवर्ष की माटी की सौंधी महक से जोड़े ही रखती है। लेकिन कभी.कभी ऐसा कुछ घट जाता है कि मन सोचने लग जाता है कि ऐसा क्यों कर हुआ

बाबूजी को उनके मित्र पुरोहित जी ने अपनी लड़की की शादी के लिए योग्य वर तलाशने की जिम्मेदारी सौंप दी। बाबूजी ठहरे धुन के पक्के सो ले गए उन्हें अपने परम मित्र अमर के घर, जहां संपन्नता पूरे घर में बिखरी पड़ी थी पूरा घर धन धान्य से अटा और बिखरा पड़ा था। जहां देखो वहीं कीमती सामान बिखरा हुआ जैसे ही बाबूजी ने शादी की बात चलानी चाही उनके मित्र ने मना कर दिया बाबूजी के कारण पूछने पर उन्होंने बाद में बताने की कह कर टाल दी कहा कि उनकी बेटी का जीवन यूं ही बीत जायेगा वह बिना सुख भोगे ही मर जायेगी। सो बात यहीं खतम करो।

बाबूजी ने बात खतम नहीं की बल्कि पुरोहित जी को अपने एक दूसरे अति आधुनिक मित्र आनंद के घर ले गए। घर कहां राजमहल था चारों ओर अति आधुनिक यंत्रों का जाल बिछा हुआ था। सुविधाओं का अंबार ही अंबार। रोबोट ने ही सब काम कियाए यहां तक जब कभी चाय की तलब हुई उसने ही बनाकर पिलाया और तो और 50 ग्राम चाय की खरीदी या अन्य सामानों की खरीदी भी उसी ने ही बार.बार की। बाबूजी ने जैसे ही शादी के बारे में बात आगे कहनी चाही पुरोहित जी ने इस बार भी उन्हें रोक दिया।
पूछने पर बड़ा अजीब जवाब मिला था।

बाबूजी 14अगस्त 1994 को तुलसीदास जी से मिलने चले गए मेरे मन में आज भी बातें घुमड़ती हैं, एक छोटा सा गोल उत्तर उस घर बेटी देकर क्या करना, मन सोचने लगता है, ऐसा किस दृष्टिकोण के कारण हुआ होगा, क्यों कर बन गया दोहरा मापदण्ड, रिश्‍तों के लिए नकार दिये गए दो संपन्न परिवार

एक संस्मरण 06.05.2012
चित्र गूगल से साभार

14 comments:

  1. दोहरा मापदण्ड, ही परेशानी का सबब बनता है,... अच्छी प्रस्तुति,....

    RECENT POST....काव्यान्जलि ...: कभी कभी.....

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  2. अनुभव की संतुलित प्रस्‍तुति.

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  3. प्रभावशाली रचना.....

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  4. रमाकांत जी, समाज का एक यथार्थ.. एक कड़वा सच..!!

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  5. दुखद है पर सत्य यही है....

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  6. mujhe lagta hai --suvidha aur santosh me fark hai....

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  7. दोहरा,तिहरा मापदंड से ही समाज चलता है ..जो हमारे समझ के बाहर है....?

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  8. विचारणीय संस्मरण! उन्नत मन किस तरह सोचते हैं यह समझ पाना असम्भव भले न हो, आसान तो नहीं है।

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  9. घर-घर की कहानी पर यहां लगी तस्‍वीर देख कर लगता है कि कोई आइटम नंबर आने को है.

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  10. @शायद जिंदगी को बेहतर जीने के लिए हमें जितना जरूरी है अच्छे दामाद की उतना ही जरूरी होता है एक अच्छी बहन जैसी बहू का होना जो दोनों कुलों के सम्मान की रक्षा करे....

    प्रभाव शाली सच ....

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  11. इन दिनों इसी विषय से जूझ रहे एक परिवार के लिए यह पोस्‍ट उपयोगी होगी।
    कृपया अपने ब्‍लॉग को ई-मेल से प्राप्‍त करने की सुविधा उपलब्‍ध कराऍं।

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  12. विचारणीय रचना | आभार


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  13. ये चौपाई मानस मे नहीहै

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