गुरुकुल ५

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Tuesday, 4 February 2025

Swadha Sharma नोनी पैलगी


04 मई 1978 को मैं युवा था तब उमंग थी एक जुनून था
निकला था शहर को स्वर्ग बनाने
तब गीत के बोल थे
चल संगी चल जाबो गांव
रथिया पहागे रे, गरुआ ढ़ीलागे
कोकड़ा लगाये हवय दांव...
चल संगी चल जाबो गांव...
संग म संगवारी रे ...संगी मोटियारी...
लाली लाली लुगरा ... पहिरे हवय बारी
सावन के रिमिर झिमिर ...भादों के अंधियारी
लपर झपर जइसे करय... भांटों करा सारी...
कइसे तोर सुरता भुलांव ....
चल संगी चल जाबो गांव....
गुरुदेव Rahul Kumar Singh
मैं गांव से शहर आया और शहर ने निगल लिया मेरी जवानी और परिवार
बीत गए 1978 से 2025 के बीच 47 साल ...
तब थकाहारा बूढा रामा शहर से गांव लौटते आंसुओं से उसी राह ..
न गा पाया ... न गुनगुनाने की चाह रही ...
आंखों के आंसू कह गये...
चल संगी चल सहर ले गांव
उमर पहागे रे , जांगर सिरागे
लुकड़ु फांदा कस लगे दांव...
चल संगी चल सहर ले गांव...
मोर ख़िरगे संगवारी रे, ... तोर मयारू महतारी ...
सरकगे लाली लुगरा ... बेंचागे लूरकी आउ बारी ...
आँखि म झूलत हवय... छूटे अंगना दुवारी...
अगोरत होही काय रे ... कोला आउ बारी
जाते छाती ल जुड़वांव...
चल संगी चल सहर ले गांव...
बस यूं ही बैठे-ठाले
28 जनवरी 2025
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