शिक्षण एक कला है यह कला जन्मजात गुणों से युक्त गुरु सहज ढंग से निभा लेता है दूसरी ओर अव्यस्थित चीजों, पाठ्य वस्तुओं, पाठ्यक्रमों को निर्धारित नियमानुसार विधि सम्मत समय पर पूर्ण कर पाना कहां सम्भव बन पड़ता है तब नये नियमों का निर्धारण कर लक्ष्य की प्राप्ति ... ! ऐसी परिस्थिति में नियमों का उल्लंघन स्वाभाविक बन जाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों मे कोर्इ भी कार्य करता है तो अपेक्षित परिणाम प्रभावित होगा ही कार्य का सम्पादक गुरु है न कि कोर्इ मशीन, और गुरु की भावनाएं महत्वपूर्ण निर्धारित कार्य को भी प्रभावित कर देती हैं?
विगत सोलह से अठारह वर्षों में शालेय प्रशिक्षण दिये जा रहे हैं प्रशिक्षण को यदि सूक्ष्म या व्यापक रूप में समझा जाये या परिभाषित किया जाये तो निश्चित ही कोर्इ न कोर्इ आयाम कहीं छूट जायेगा अथवा पंचम या षष्टम परिकल्पित आयाम को जोड़ना पड़ जायेगा इस स्थिति में प्रशिक्षण को पूर्ण स्वरूप में समझा पाना या समझ पाना निश्चित ही कठिन हो जावेगा।
अब यदि प्रशिक्षण का औचित्य खोजा जाये तो देश, राज्य, जिला, विकासखंड, संकुल और पाठशाला के लिये शिक्षक, छात्र, पालक व संस्था प्रमुख के लिये शिक्षा के मूल उद्देश्य हेतु अलग अलग स्वरूप बन जावेगा सभी इकार्इयां अलग अलग हैं किंतु सब एक दूसरे की पूरक और अन्योन्याश्रित हैं तब कहां एक इकाई को छोड़ कर दूसरी इकार्इ के बिन तीसरी के सहारे मूल लक्ष्य को पाया जा सकता है।
प्रशिक्षण की आवश्यकता व औचित्य पर विचार के निम्न बिन्दु बन सकते हैं-
1. शिक्षा के स्तर में सुधार।
2. शिक्षण कला में परिमार्जन।
3. प्रशिक्षित शिक्षकों को पुन: जागृत करना।
4. शिक्षण और शिक्षा के नये आयाम से परिचय कराना।
5. शिक्षकों को दायित्वों के प्रति सजग करना।
6. अप्रशिक्षित शिक्षकों को मानक स्थिति के समकक्ष बनाना।
7. नये शिक्षकों को पूर्व शिक्षकों के अनुरूप सहयोगी बनाना।
8. शिक्षा के परिवर्तन का प्रचार प्रसार करना।
9. नयी आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा प्रदान करना।
10. नयी तकनीक का प्रयोग करना, ज्ञान का विनिमय।
11. छात्र-छात्राओं को वर्तमान प्रतियोगी परीक्षाओं के अनुरूप सर्वश्रेष्ठ बनाना।
12. शिक्षकों को स्वमूल्यांकन की प्रेरणा देना।
13. अप्रशिक्षित शिक्षाकर्मियों सहयोगियों को शिक्षण विधि से परिचित कराना।
14. शिक्षा के मूल उददेश्यों की पूर्ति करना।
यह कहना उचित होगा? और न्याय संगत कि प्रशिक्षण का उद्देश्य है-
• सरकारी आदेश की खानापूर्ति करना?
• शिक्षा पर दिये गये बजट का उपयोग दिखाना?
• शिक्षकों को परेशान करने हेतु प्रशिक्षण में व्यस्त करना?
प्राचीनकाल में विद्यालय गुरुकुल हुआ करते थे जो राजआश्रित थे जहां गुरु की आज्ञा सर्वोपरि मानी जाती थी गुरूकुल में शिष्य केवल शिष्य होता था? जो शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त कर पूर्णता को प्राप्त करने के सीढ़ी पर अग्रसर किया जाता था? गुरुकुल में नैतिक मूल्यों, आदर्श, नीति, नियम, रीति-रिवाज, परंपराओं का निर्वहन प्रतिदिन के कार्यो में सम्पन्न करवाया जाता था। वहां शब्द ज्ञान के साथ-साथ व्यवहारिक ज्ञान का भी अनूठा संगम दृष्टिगोचर होता था। हम चाहे त्रेता युग या द्वापर युग की चर्चा करें गुरुशिष्य आचार्य द्रोण अर्जुन एकलव्य, परशुराम जी कर्ण, विश्वामित्र जी और वशिष्ठ के संग श्री राम लक्ष्मण की परंपरा ने सदैव माता-पिता समाज और राज्य को अभिभूत किया है।
एक तथ्य अनिवार्य है तब गुरु राजआश्रित थे ऐसा माना गया है यह कौन निर्धारित करेगा? कि हमारे समक्ष उपस्थिति दूध का गिलास आधा भरा है? या आधा गिलास खाली? सत्य क्या है? असत्य क्या है? राज गुरुआश्रित था या गुरु राजआश्रित थे? यह कहें तो कोर्इ अतिशयोक्ति न होगी कि इनका संबंध अन्योन्याश्रित होते हुए भी अपने आप में स्वतंत्र रहा होगा तभी अपेक्षित लक्ष्य की प्राप्ति हुर्इ। किसी एक को अलग कर कुछ भी पाना संभव है? शायद ये सब उस काल, परिस्थिति, पात्र एवं देश की परंपरा अनिवार्यता के अनिवार्य अंग रहे होंगे।
शिक्षा के संवर्धन तथा राज हित में गुरु का स्थान निर्विवाद रूप से सर्वोपरि रहा होगा तब ही तो श्रीरामचंद्र जी को अल्पवय में ही राक्षसों से युद्ध हेतु ऋषि आश्रम जाना पड़ा। हमने सदैव रामायण अथवा रामचरितमानस और अन्य ग्रंथों का अध्ययन स्नान करके आध्यात्मिक ढंग से किया है। हमने कभी भी उसके मारक स्वरूप पर ध्यान नहीं दिया। मर्यादा पुरषोत्तम राम को ही भजा है आदि पुरूष के रूप में, लक्ष्मण के अग्निबाण (मिसाइल) को समुद्र सोखते विचार ही नहीं किया। मारीच और सुबाहु को सौ योजन तक ले जाकर मार गिराना कहां भज पाये। इन सभी मारक या विध्वंसात्मक क्रियाओं को चिंतन के समकक्ष करके श्रवण या अध्ययन कहां किया? जो गुरुकुल की देन रही।
जीवन के प्रत्येक कार्य में चाहे वह प्रशिक्षण हो या निर्वहन, सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्ष होते ही हैं। प्रशिक्षण के भी पक्ष और विपक्ष में एक नहीं अनेक वार्ता की स्थिति बनती है। क्योंकि प्रशिक्षण लक्ष्य की प्राप्ति हेतु है न कि प्रशिक्षण, प्रशिक्षण के लिए। इसके बाद भी प्रशिक्षण अनिवार्य और अपेक्षित होता है। प्रत्येक ज्ञानवान शिक्षक का अपना-अपना, भिन्न-भिन्न मत हो सकता है। इसका अर्थ यह नहीं कि प्रशिक्षण गलत है या ये विद्वान।
प्रशिक्षण हमें निपुण कलाओं से युक्त और बहिर्मुखी बनाता है। ज्ञान को संग्रह की प्रवृत्ति (धनवंतरी) से मुक्त होकर परोसना सिखाता है। हम शायद धनवंतरी से चरक बनने की ओर अग्रसर होते हैं और
सर्वे भवन्तु सुखिन:सर्वे सन्तु निरामया
सर्वे भद्राणी पश्यन्तु
मा कश्चित् द:ख भाग भवेत
को चरितार्थ करता है। जैसे गुरु बिना ज्ञान की प्राप्ति संभव है? वैसे ही प्रशिक्षण के बिना अध्ययन अध्यापन की पूर्णता की प्राप्ति होती है? शायद आप भी सहमत हों कि अध्ययन-अध्यापन की कला को प्रशिक्षण नया आयाम देती है।
26.04.2004
अशुदधियों को दूर कर लें, वर्ना ध्यान वहीं अटका रहता है.
ReplyDeleteजी हाँ पुर्ण रूप से सहमत हूँ कि अध्ययन-अध्यापन की कला को प्रशिक्षण नया आयाम देती है।
ReplyDeleteराहुल जी,की बातों पर ध्यान दे,अशुद्धियों को थी कर ले,,,,,,
RECENT POST ,,,,फुहार....: न जाने क्यों,
अभिनव प्रयास है।
ReplyDeleteलेख सुविचारित प्रतीत होता है विनम्रता पूर्वक सुझाव है वाक्य रचना संतुलित और पूर्ण नहीं लगती किन्ही स्थानों पर .विषय की निरंतरता बाधित होती है थोड़े संपादन और पुनर्लेखन की आवश्यकता है .सादर
ReplyDeleteaccha prayas..prashikshan ki mahtta par.....
ReplyDeleteआप की बातो से पूर्णत: समर्थन करती हूँ ..प्रशिक्षण के बिना अध्ययन अध्यापन की पूर्णता की प्राप्ति नही हो सकती ..सार्थक लेख..
ReplyDeleteशिक्षा में हमेशा नए कि गुन्जाईस होती है
ReplyDeleteशिक्षा पद्धति में नित तुगलकी बदलाव हो रहा है,जिससे विद्यार्थियों का अध्ययन बहुत प्रभावित हो रहा है। शिक्षा जगत को तो सरकार ने एक प्रयोगशाला बना लिया। जो भी नयी सरकार आती है, सबसे पहले पाठ्यक्रम में बदलाव करती है। इसके फ़लस्वरुप विद्यार्थियों के परीक्षा परिणाम अनुकूल नहीं रहे।
ReplyDeleteबहुत सुंदर और व्यवहारिक सुझाव!!
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