गुरुकुल ५

# गुरुकुल ५ # पीथमपुर मेला # पद्म श्री अनुज शर्मा # रेल, सड़क निर्माण विभाग और नगर निगम # गुरुकुल ४ # वक़्त # अलविदा # विक्रम और वेताल १७ # क्षितिज # आप # विक्रम और वेताल १६ # विक्रम और वेताल १५ # यकीन 3 # परेशाँ क्यूँ है? # टहलते दरख़्त # बारिस # जन्म दिन # वोट / पात्रता # मेरा अंदाज़ # श्रद्धा # रिश्ता / मेरी माँ # विक्रम और वेताल 14 # विनम्र आग्रह २ # तेरे निशां # मेरी आवाज / दीपक # वसीयत WILL # छलावा # पुण्यतिथि # जन्मदिन # साया # मैं फ़रिश्ता हूँ? # समापन? # आत्महत्या भाग २ # आत्महत्या भाग 1 # परी / FAIRY QUEEN # विक्रम और वेताल 13 # तेरे बिन # धान के कटोरा / छत्तीसगढ़ CG # जियो तो जानूं # निर्विकार / मौन / निश्छल # ये कैसा रिश्ता है # नक्सली / वनवासी # ठगा सा # तेरी झोली में # फैसला हम पर # राजपथ # जहर / अमृत # याद # भरोसा # सत्यं शिवं सुन्दरं # सारथी / रथी भाग १ # बनूं तो क्या बनूं # कोलाबेरी डी # झूठ /आदर्श # चिराग # अगला जन्म # सादगी # गुरुकुल / गुरु ३ # विक्रम वेताल १२ # गुरुकुल/ गुरु २ # गुरुकुल / गुरु # दीवानगी # विक्रम वेताल ११ # विक्रम वेताल १०/ नमकहराम # आसक्ति infatuation # यकीन २ # राम मर्यादा पुरुषोत्तम # मौलिकता बनाम परिवर्तन २ # मौलिकता बनाम परिवर्तन 1 # तेरी यादें # मेरा विद्यालय और राष्ट्रिय पर्व # तेरा प्यार # एक ही पल में # मौत # ज़िन्दगी # विक्रम वेताल 9 # विक्रम वेताल 8 # विद्यालय 2 # विद्यालय # खेद # अनागत / नव वर्ष # गमक # जीवन # विक्रम वेताल 7 # बंजर # मैं अहंकार # पलायन # ना लिखूं # बेगाना # विक्रम और वेताल 6 # लम्हा-लम्हा # खता # बुलबुले # आदरणीय # बंद # अकलतरा सुदर्शन # विक्रम और वेताल 4 # क्षितिजा # सपने # महत्वाकांक्षा # शमअ-ए-राह # दशा # विक्रम और वेताल 3 # टूट पड़ें # राम-कृष्ण # मेरा भ्रम? # आस्था और विश्वास # विक्रम और वेताल 2 # विक्रम और वेताल # पहेली # नया द्वार # नेह # घनी छांव # फरेब # पर्यावरण # फ़साना # लक्ष्य # प्रतीक्षा # एहसास # स्पर्श # नींद # जन्मना # सबा # विनम्र आग्रह # पंथहीन # क्यों # घर-घर की कहानी # यकीन # हिंसा # दिल # सखी # उस पार # बन जाना # राजमाता कैकेयी # किनारा # शाश्वत # आह्वान # टूटती कडि़यां # बोलती बंद # मां # भेड़िया # तुम बदल गई ? # कल और आज # छत्तीसगढ़ के परंपरागत आभूषण # पल # कालजयी # नोनी

Thursday, 27 December 2012

जीवन

नव वर्ष की शुभकामना 

इस धरा पर जन्म लिया कालजयी बना?
श्रृष्टि के प्रारंभ से अवतरण या प्रकटीकरण हो
पैरों ने स्पर्श किया वसुधा को जवाब देना पड़ा?
धर्म की रक्षा या अधर्म के नाश में बने कालजयी?

प्रति पल प्रश्न पर प्रश्न शाश्वत क्या है?
जीवन है क्या, जीवन का मूल?
जन्म की सार्थकता कैसे?
क्या खो दिया, क्या पा लिया?

हम प्रति पग कैसे चले?
किसकी छांव में बैठे?
किसने हमें दुत्कार दिया?
किसका आश्रय मिला?

किसने हमारा शोषण किया?
किसका हमने शोषण कर दिया?
कब हम गिर पड़े?
किसके कंधे का सहारा लिया?

किसको बनाया हमने  सीढ़ी?
सीढ़ी बन गए किनके?
किस पड़ाव पर रुक गये?
संजोग से रखा कदम और गिर पड़े?

किन सत्कर्मों से लड़खड़ा गये कदम?
मंजिल की चाह में ही अपना ली पगडण्डी?
कहाँ से लौटना पड़ा?
कौन राह से लौट गया वापस?

छुट गया कौन बीच राह में?
क्यों किसे हमने छोड़ दिया?
ज़िन्दगी में
पड़ाव, लक्ष्य, ठहराव, शांति, तुष्टि,

कर दें परिभाषित परम और चरम कैसे?
हमने जो जिया वही सब सच?
यही सबका सच?
अंत या मोक्ष?

न इसके आगे?
न इसके पीछे?

06.07.2010
चित्र गूगल से साभार  

Saturday, 22 December 2012

विक्रम वेताल 7

यत्र नार्यस्त पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः?

राजन क्या आप ही
न्याय प्रिय विक्रमादित्य हो?
न्याय और विद्वान के संरक्षक?
तब आज जिह्वा पर ताला क्यों?

क्या बलात्कारी आपका पुत्र?
या आपका हितैषी?
राजदार जो संकट मोचक?
या जोरू का भाई?

क्या उसे कल भारत रत्न देना है?
या किसी महापुरूष की संतान?
है कोई  युग पुरुष?
जिसे फांसी  दे देने से

मानवता कलंकित हो जाएगी?

लोग सड़क पर उतरें?
एवज में बेटी के बलात्कार के?
क्यों कोई मुह ताके न्याय के?
न्याय बिन गुहार के मिले?

उम्र कैद उचित?
या तथाकथित अंग भंग?
या मानवाधिकार का सहारा लें?
बचा डालें अपनी बहन सौपने कल?

गैंग रेप कोई महान कृत्य?
जिस पर बहस ज़रूरी?

फांसी के अतिरिक्त कोई अन्य सजा कारगर?
संविधान में संशोधन ज़रूरी?

राजन
भोथरी हो गई तुम्हारी तलवार?
आज कोई गड़रिया चढ़ेगा टीला पर?
राजा भोज खोजेगा सिहासन बत्तीसी?

शायद त्वरित उचित न्याय ही रोके
जन आक्रोश और बलात्कार

21.12.2012
यह रचना *** अस्किनी *** संग 
हर बेटी, बहन, माँ, को समर्पित
चित्र गूगल से साभार
  

Tuesday, 18 December 2012

बंजर



1*
बंजर जमीं पर
रोप दिए मैंने
बिना बुझे
नीम और जामुन
लोग तोड़ते हैं दातून
बच्चे खाते हैं जामुन
फैला जाते हैं कचरा?
खाद बनाने

2*
मेरे पूर्वजों ने
धरा में बना दिए गड्ढे
भर जाता है बारिश का जल
डूब जाते हैं जानवर और बच्चे
शरीर की अगन बुझाने
अन्न के लिये
आज वो जल भी दे जाता है

3*
एक नन्ही सी गौरैया
हर बरस बिन नागा
बनाती  है अपना घोसला
आज वो बस गई है
मेरे पुराने चित्र के पीछे
मन सशंकित हो उठता है
कभी-कभी सोचता हूँ
मेरे जाने के बाद
ये घोसला न उजड़ जाये?

4*
परिवर्तन और परिवर्तन का खौफ
दिल और दिमाग पर
पैठ गया है जड़ें जमाकर
लेकिन क्या करें?
पुरखों ने सिखाया है
करम और विश्वास
चल पड़े हैं हम भी
पुरखों की राह पर?

05.06.2012
चित्र गूगल से साभार

Thursday, 13 December 2012

मैं अहंकार



अहंकार बोल उठा?
1*
पिताजी ने एक दिन कहा
तुम मेरी तरह मत बनना
अन्यथा मेरी भांति मरने के बाद
लोग तुम्हें भी मूर्ख कहेंगे
2*
भाई ने राह चलते कहा
तुम इतने अच्छे क्यों हो?
मेरा काम तुमने कर दिया
मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकता
3*
माँ ने थकी सी आवाज में कहा
तुमने अपने पिता के दायित्वों का
कर दिया निर्वहन
मैं चलती हूँ अनंत यात्रा में
4*
यह तुम्हारा कर्तव्य था?
5*
मित्र ने सांझ की बेला में कहा टहलते
तुम भी निकले खानदानी जड़ भरत
दुनियादारी ही भूल गये
तुम्हारी चिता को आग कौन लगायेगा?
6*
एक लड़की बहुत प्यार कर बैठी
आप इतने भले क्यों हो?
आपने मेरा कितना ख्याल रखा
लेकिन मैं साथ नहीं दे सकती
7*
एक दिन लोगो ने सुना
रमाकांत चल बसा
अरे मर गया?
चलो अच्छा हुआ
मर गया, मर गया
8*
कुछ मन से कुछ अनमने
हो गये इकट्ठे झोकने आग में

एक कानाफूसी हुई

जीया भी तो किसके लिये?
और मर भी गया तो किसके लिये?

13.12.2012
chitra googal se sabhar
             

Friday, 7 December 2012

पलायन




प्रवास या पलायन
पलायन या बचाव
समय की मांग?
स्व के लिये संघर्ष?

अभी तो जी लें
सोचेंगे फिर
बच गए तभी तो
कुछ पाएंगे?

आत्मा ने कहा?
जाओ भाग जाओ?
चलो पहले
प्राण बचाओ?

कृष्ण रणछोर?

बैक फुट पर आना
मैदान छोड़ना?
या पूर्ण आवेग से?
लौटना लक्ष्य की ओर

एक मुहीम अनुसार
नए छितिज की तलाश?

एक उत्साह एक उमंग?
सब व्याकुलता में?
जीवन की व्यर्थता की ?
अपूर्णता या पूर्णता की खोज में

जिसने छोड़ भी दिया
क्या पा लिया?
जिसने पा लिया
उसने क्या खो दिया?

सब कुछ बीत जाने पर
किया धरा निरर्थक?
समझौता किससे?
किसके सामने घुटने टेकना?

प्रवास कहाँ?
किसके लिये?
जीवन पुनः?
यही जीवन की सार्थकता?

ज्यों जहाज का पंछी
पुनि पुनि जहाज पर आय

समुद्र को पार कर पाना संभव?

नए राह की तलाश क्यों?
या नए राह की तलाश में?
सब कुछ छुट जाने पर
है वापसी संभव?

शाश्वत मार्ग?
जो चुना गया?
संभावनाओं की तलाश में?
या समस्त संभावनाएं समाप्त?

जीवन या मृत्यु?
मृत्यु या जीवन?
संघर्ष के बाद?
संघर्ष बिन विक्षुब्ध?

15.10.2012
चित्र गूगल से साभार

Saturday, 1 December 2012

ना लिखूं




जब भी लिखती हूँ
बुरा मानते हो?

ना लिखूं तब क्यों
बुरा मानते हो?

जानते हो हाल--दिल
तन्हाइयों में?

ख्वाब-रंज-सुकुं
नसीब होते हैं?

दर्द--दिल
कहाँ जानते हो?

लौटकर फिर साहिल से
फिर साहिल को लौटती हूँ

29.10. 2012
चित्र गूगल से साभार 

Saturday, 24 November 2012

बेगाना



* मुस्कुराकर मृत्यु ने
बढाकर हाथ बड़े प्यार से
स्वागत किया
बड़े भोर

* रोती ज़िन्दगी ने
सम्हलने न दिया
हर राह हर एक मोड़ पर
ताने लिये

* ज़िन्दगी आज ही
क्यूँ लगती है अपनी?
पीपल ठूंठ पर बैठा
खोजता साया धूप के

* सिसकता बचपन मेरा
लगाता रहा गले
हर बार मुड़कर
ग़म और मायूसी को

* धीरे धीरे मेरे अपनों ने
छुड़ाया दामन
मैं बेबस अवाक रहा
अँधेरी रात में

* देखता हूँ नसीब
नहर के ठहरे
गंदले धार पर
चेहरा बड़े विश्वास से

* ज़रूरत अब कैसी और कहाँ?
सब कुछ बीत गया?
भरम भी टूटा
बंद दरवाजे से

* समझा जिसे बेगाना
चला आया वही शाम से
बांटकर दर्द
सारे ले गया

   
 22.10. 2012
समर्पित मेरी * ज़िन्दगी * को
जो हर बार मेरे दर्द बाँट
ले जाती है संग अपने

चित्र गूगल से साभार

Saturday, 17 November 2012

विक्रम और वेताल 6


अकलतरा पूर्व विधायक श्री राकेश कुमार सिंह के आज 17.11.2012 को आकस्मिक निधन पर
पोस्ट उनकी स्मृति में समर्पित

 राजन
आप ही परमपिता की संतान हो?
हो गई इति?
पूरी कर ली
मन की मुराद?
क्या मिल गया आपको
वातावरण को दूषित करके?

क्या आपके दीया  जला देने से
मंगलू का घर हो गया रोशन?
आपने जलाये थे घी के दीये?
फिर क्यों?
पिछले बरस आपके धमाके से
पुनिया की आँखों से
चली गई रोशनी

बांटी है आपने सदा
अंधे को कम्बल?
और भूखे को चश्मा?
ज्ञान रखते हैं?
जीव और परिस्थिति की
अपनी मौलिक आवश्यकता

लोक कल्याण
क्या है?

राजन
पूर्णता या आदर्श की सोचते हो?
ये सभी दास हैं?
देश, काल, परिस्थिति, और पात्र के
सभी सापेक्ष होते हैं?
नहीं बदलते एक दुसरे के सापेक्ष?

चलो बदलकर देखो?
किसी एक को दुसरे के सापेक्ष
कोई भी चीज या मान्यता
रह पायेगी नियंत्रण में?
परिकल्पना एक निश्चित काल की
संतान होती है?

परिकल्पना बटन दबाते ही पुरे हों
तब सार्थकता सिद्ध होती है?

रामराज्य की परिकल्पना
राजा दशरथ जी की थी?
पूर्ण होने में समय लगा?
रामराज्य में अयोध्या पति
अपने पिता संग?

बदलती हैं मान्यताएं?
बदल जाते हैं मापदंड?
हर्ष-उल्लास
बदल जाते हैं शोक में?
प्रदूषित कर दिया जनमानस को?

पीढ़ी भले नई है
तीज-त्योहार वही हैं?
जीवन, पल, क्षण, हमारे ही?
या न हों तब भी
कर दें सत्यानाश श्रृष्टि का?

राजन
विस्मृत कर दिया?
दीया के प्रकाश में
दैहिक, दैविक, भौतिक, ताप से मुक्त
रामराज्य?
या उन्मुक्त, स्वछन्द, उदण्ड जीवन शैली?

क्यों नहीं?

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुखः भाग भवेत

12.11.2001
चित्र गूगल से साभार

Monday, 12 November 2012

लम्हा-लम्हा



तू नहीं तेरी यादें नहीं
तो दिवाली कैसी?

तू नहीं तेरा चेहरा नहीं
तो फिर दिवाली मेरी?

तू है?
तेरी तन्हाइयों संग

ये दिवाली?
दिवाली मेरी?

लम्हा-लम्हा
गुजर गई ज़िन्दगी

सोचता हूँ तेरे बिन
कटेगी ये ज़िन्दगी?

रोशनी में कटती नहीं
अंधेरों में क्या खाक जी पाऊंगा

मेरी ज़िन्दगी को समर्पित
12नवम्बर 2012
चित्र गूगल से साभार

Friday, 9 November 2012

खता





बंद पलकों में तेरे ख्वाब सजाऊं कैसे
यूँ हरेक शाम तेरी याद जब रुलायेगी


मैं हर सितारे से तेरे दर पता पूछूँगा
सूनी राहों से तेरी जब भी सदा आयेगी


मैं हरेक मोड़ से अपनी खता पूछूँगा
बंद होठों से जब भी गीत गुनगुनाओगी


कभी-कभी बीत जाता है एक युग और हम
खड़े रहते हैं वहीँ के वहीँ जहाँ हम कल खड़े थे .

मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ बीत गये 14.04.1978 से
आज तक शायद 34 बरस 06 महीने 26 दिन।

10.11.2012
चित्र गूगल से साभार

Friday, 2 November 2012

बुलबुले




1*
इंट-पत्थर-मिट्टी की
बातें करते हो
बुलंद लोगों को भी
टुकड़ों में बंटे
गिरते-ढहते देखा है

2*
झूठी आशा
खोखली दिलासा से
हो जाती हैं आँखें नम
दिल बहलता नहीं
तार-तार होता है

3*
बुलबुले सावन के हैं
बनते हैं फुट जायेंगे
फिर छिछोरी बातों पर
सर उठाकर
गर्व करें

4*
हर बरस लगते हैं मेले
आयेगा कद्रदां कोई
भांप लेगा
आँखों से दिल की बातें
जान लेगा नीयत हमारी

20.10.2012
चित्र गूगल से साभार 

Thursday, 25 October 2012

मै हूँ ना



मेरी मृत्यु पर

* मत उठाना
मेरे प्यार को
बड़े जतन से सुलाया है
सहलाकर गेंसुओं को

* न करना बात
देख पाऊंगा
तपन चेहरे की
बंद आँखें हैं मेरी

* खिलाकर भोज
मेरी ज़िन्दगी को
दुखाना दिल भी
यूँ तुमको भाता है

* संदेशा देना वहां
जहाँ कोई बाट तके
बैठा रहे
बस द्वार पर

* न लेना और देना
आज ऐवज मेरे
खुली मुट्ठी
न बाँध पाऊंगा

* चलो बैठो
किसी दरख़्त के साये तले
करो तुम बात
मैं सुनता रहूँगा

* न गाना गीत
स्वर दे पाऊंगा
बंद होठ हिले तो
लोग खफ़ा होंगे

* चलो हंस लो
टोकना-रोकना
छोड़ा मैंने
तुम दिल की बात कहो

* न करना इंतज़ार
बड़ी मुद्दत के बाद
आई है नींद
सोने दे

* आज तुम हो
मै हूँ ना
तुम करो अपनी
कौन रोकेगा

* है पता मुझको
इंतज़ार किसको
मेरे आने-जाने
एक पल ठहरने का

* जाना है
चले जायेंगे
ये बेरुखी क्यूँ
हर घडी

22.10.2012
समर्पित * मेरी जिंदगी * को
जो मेरी जान और इमान  से भी
ज्यादा कीमती जिसके बिना
सब कुछ बेमानी सा लगता है

चित्र गूगल से साभार  

Friday, 19 October 2012

जन्मदिन

जन्मदिन की शुभकामना 20.10.2012

मैंने जन्म ले लिया?
शास्त्रगत या वैज्ञानिक?
निर्धारित कर दिया गया?
जन्मतिथी, जन्मांक, मूलांक

अंकित कर?
काटा गया गर्भनाल?
मुक्त हो गया था मैं गर्भ से?
जन्म के योग से?

कहीं ऐसा तो नहीं?
हमने जन्म ही नहीं लिया
आपने समझ भर लिया
काट दिया गर्भनाल

डिम्बआसन  जुड़ा गर्भ से
गर्भनाल जुड़ा अपरा से
गर्भनाल से जुड़ा शिशु
तब जन्म कैसा?

यदि मैं मृत
तब जन्म?
भाग्य का निर्धारण किस आधार पर?
जब जन्म और मृत्यु एक ही पल में

जन्म शास्त्रसम्मत?
वा लोकसम्मत?
जैसे मृत्यु वैज्ञानिक
या शास्त्रसम्मत

जन्मतिथि का निर्धारण
जन्म समय का निर्धारण
प्राकृतिक जन्म पर?
या अप्राकृतिक कृत्य द्वारा?

जन्मतिथि और समय को ही
बदल डाला कृत्रिम उपादानों से
चिकित्सकीय सलाह पर
ग्रह, नक्षत्र, राशि को मांगकर?

कभी कभी जब घट जाता है
होनी जिसे अक्सर
कह देते हैं अनहोनी
आँख मूंदकर


किस अंक की गणना के आधार पर
ग्रह, नक्षत्र, राशि, कुंडली?
कैसी गणना?
जब आधार ही निराधार


बना दी कुंडली जो बतलाती है?
लिंग लड़का या लड़की
मृत या जीवित
विवाहित या अविवाहित

कालसर्प योग, विवाह
जन्म, मृत्यु
संस्कार, दान, पुण्य
सरल किन्तु सदा जटिल

एक आधारहीन
जन्मदिन, जन्म समय
जन्मांक, मूलांक
प्राण वायु के गणना पर?

20.10.2012
कुंडली की  धारणा सदैव भ्रमित करती है?
जन्मदिन, समय, कभी कभी असहज कर
देते है जीवन चक्र को तो मन प्रश्न कर उठता है

यह रचना मेरी मानस पुत्री *श्रीमती आभासिंह*
को उसके जन्मदिन 20 अक्टूबर 2012 को
सस्नेह समर्पित



Saturday, 13 October 2012

संवाद


तुम जानती हो?
कि मैं सब कुछ जानता हूं

सब कुछ?

लेकिन तुम्हारी आँखों ने तो
कभी कुछ नहीं कहा

अरे तुम नहीं जानते?
मैं तो समझती थी

तुम समझती हो?
तुमने कहा और मैंने मान लिया?

मैंने ऐसा कब कहा?

तुम्हे अपने किये पर
कोई ग्लानि नहीं?



क्यों?
होना चाहिये?

नहीं मैं अपनी शर्तों पर
अपनी ज़िन्दगी जीती हूँ
मैं क्यों उसकी परवाह करूँ?
जिसे मेरी फिक्र नहीं

क्या यह एक छल नहीं?

ऐसा तुम सोचते हो
मैं नहीं

ये तुम्हारी नादानी वा जिद?

बिलकुल नहीं

यह एक शैली है
जीवन शैली

मैं अब तुमसे पूछती हूं
तुम्हे संकोच
या कभी ग्लानि
तब मैं क्यों
अपना जीवन खपाऊँ?

आर या पार
जीवन कहाँ बार-बार


चित्र गूगल से साभार


Saturday, 6 October 2012

अपने हैं?



1
आसमां को देखकर भी
टेकरी पर चढ़ने के बाद ही
सब लोग
तुमसे
लगने लगते हैं?
क्षुद्र

2
बस तुम
एक वही काम
क्यों नहीं जानते?
जिसके लिये
परमात्मा ने तुम्हे जन्म दिया

3
अपना किया धरा छोड़कर
क्यों हर पल?
खोजते हो खुद को
औरों में

4
बरसों बरस
न सरोकार
सुख दुःख से
न उन लोगो से
जो तुम्हारे हैं
जिन्हें तुमने
अपना माना ही नहीं
कहने में शर्म नहीं?
मैं इस नगर का
वासी हूं?
और
ये मेरे
अपने हैं?

अष्टमी श्राद्ध पक्ष 2011
पूज्य बाबूजी स्व श्री जीत सिंह की स्मृति में
06.10.2012
चित्र गूगल से साभार 

Monday, 1 October 2012

विक्रम वेताल 5


आज
अशांत और उद्विग्न विक्रम ने
वट वृक्ष के डाल पर चला दी तलवार
अचंभित वेताल धड़ाम से भूमिशात
राजन
आपने न्याय किया?

राजन आपको ज्ञात है?
मृत्यु के बाद
चोट का एहसास होता है?
आँखें उठाकर देखो

मुखमुद्रा बदली सी क्यों है?
परिधान और परिवेश भी?
खादी कुर्ता और ये टोपी क्यों?
चेहरे पर कुटिल मुस्कान में ख़ामोशी

उल्टा मैं लटकता हूँ?
और इनके कार्य प्रति पल?
राजन मैं मरकर भी समझता हूँ
और ये अपनी जानें

ये हरसिंगार के फूल
और झिलमिल करती रोशनी
ये तेज, ये प्रदीप्ति
वर्ष में एक बार ही?

हर बरस पोंछ दी जाती हैं मूर्तियां
पुरे बरस धूल ज़मने के लिये?
जन्मदिन पर ही?
धो देते हैं पखेरुओं के बीट
अगले साल तक भूलने के लिए?

राजन
किसने कहा था?
अपमानित करने के लिये
प्रतिमा स्थापित करें?

अकस्मात् शिल्पी के कृति के
होठ हिले और शब्द झरे
एक आग्रह फिर ललकार
अप्रसन्नता से रोष भरे

हाथ नहीं लगाना मुझे
तोड़ने या निर्जन वन में छोड़ने के लिए
अब घिन सी आती है
तुम पर नहीं खुद के कृत्य पर

क्यों नित नये स्वांग रचकर
जन्मदिन मानते हो?
कीर्तन और शांति के गीत गा
छलनी कर, तार-तार कर जाते हो

चलो पकड़ो अपनी राह
या चल पड़ो मेरी राह
साहस जुटाओ
गोली खाओगे?
कठिन हैं राहें?
स्वदेश प्रेम की?

गरीबों की आह?
न फूलों की चाह?
न काँटों की राह?
अकेले-अकेले?

राजन आज तो मौन तोड़ो
मृत शिराओं में खून छोड़ो

आज न सत्य का आग्रह
न गलत पर विस्मय
न वाणी में स्वधर्म
मौन मुस्कराहट धर चौराहे पर

संपूर्णतः मुक्त
ध्यानमग्न, निर्लिप्त, निश्चल
30 जनवरी 1948 से
हे महात्मन
मेरा प्रणाम स्वीकार करें

Wednesday, 26 September 2012

आदरणीय


1

हे परम आदरणीय
आप प्रतिदिन आते थे
सब्जी खरीदने वास्ते
सौ का नोट रोज दिखलाते थे

हमें कहाँ अकल थी
मुफ्त में आश्वासन पा जाते थे
चिल्हर नहीं होने पर फ़ोकट में
साग सालन घर पहुंचा आते थे

हे तात
चौराहे पर
हम आपके सिवाय
किसकी मूर्ति लगवाते

 2

हे गुणी
घर में भूखे बच्चों
फटेहाल माँ, बहन, बीबी
दर्द से कराहते पिता को
अँधेरे में तनहा छोड़कर

रास्ते की अंधी भिखारन को
एक रूपया का सिक्का उछालकर
रखैल से मिलने का
पथ प्रशस्त कर लिया?

 20.09.2o12
चित्र गूगल से साभार         

Friday, 21 September 2012

बंद


विक्रम ने हठ न छोड़ा
कर दिया बंद का ऐलान
वेताल ने कहा
कल तुमने किया था बंद
बिना लोगो की सहूलियत को जाने?
तुम्हें कोई मलाल नहीं?

आज मैं तुमसे पूछूं?
राजन जरा सोचो
लोगो को सच का पता लग गया?
तो तुम्हारे कहाँ पर लात मारेंगे?
बिना तुमसे पूछे

किसे परवाह है तुम्हारे बंद की
न ये स्व स्फूर्त बंद था
न ही किसी जायज मांग पर
ये तो एक परंपरा का निर्वहन है

कल के बंद का कारण बतलाओ?
तुम खुद आज के बंद का कारन जान जाओगे?
कभी बंद से कुछ बदला या बदल पाओगे?
क्या बंद और क्या खुला?

तुम्हारे आवाज पर जिन्होंने बंद किया था
बिना तुम्हे बतलाये खोल दिया?
बुरा मान गये?
मैं तो तुम्हारी सहनशीलता का कायल हूँ

बसें चलीं मां की दवाई ला पाया?
गर्भवती बहन ने क्यों दम तोड़ दिया?
किराना दुकान खुला मिला?
रामू क्यों भूख से रोता रहा?

कितना बेचता, कितना लुटाता
कितना लुटता,क्या घर लाता?
जनरल स्टोर भी नहीं खुला न ही होटल
आज मंगलू को जूठन भी नसीब हुआ?

डर से बंद रहे पाठशाला?
खुली मिली बिन कहे मधुशाला?

वेताल ने झकझोर कर विक्रम को नींद से जगाया
राजन ये क्या?

तुमने देखा जिन लोगों ने बंद किया था?
खोल दिए उन्होंने ही दरवाजे तमाशे के बाद
डर से सड़ न जाये टमाटर और मिठाइयाँ
सावित्री भी सौदा सुलफा लेकर घर चली गई?

वेताल ने कहा राजन
अद्भुत है तुम्हारी ख़ामोशी
और दुधारी तलवार
कौन कटता है, कौन काटता?

एक और त्रासदी

सुनसान सडकों पर अचानक जुट गए लोग
किसी को कोई ऐतराज नहीं हुआ
कौन रोक पाया जानेवाले को?
बंद का असर हो गया बेअसर?

भारत बंद रहा?

लेकिन वो निकल लिये अकेले यात्रा पर
हल्की बारिश की फुहार में भी चल पड़े
संग संग बेटी, पत्नी, बहन, मित्र,सगे सम्बन्धी
नहीं रोक पाए ये यात्रा अनन्त

फिर कैसा बंद?

सन्नाटा भी गूंजता है?
और शोर में भी श्मशान की ख़ामोशी तैरती है?

हर सुबह की शाम होती है?
हर शाम की रात होती है?
हर रात की उजली सुबह होती है?
बंद का असर सूरज की किरणों पर?

कोई भी पार्टी?
कोई भी मुद्दा?
संकट के अवसर पर?
या निदान की खोज में? 

सर्वमान्य हल?
सर्वग्राह्य आज?
सर्वत्याज्य कल?
बंद कल, बंद आज, बंद कल?

 20.09.2012
चित्र फ्लिकर से साभार
श्री नंदकिशोर गुप्ता जी जिन्हे प्रेम से सभी नंदू बाबू कहते हैं
20.09.2012 को अनंत यात्रा पर निकल पड़े . उन्हे मेरी श्रद्धांजली 

Sunday, 16 September 2012

अकलतरा सुदर्शन

सुबह सकारे अशोक बजाज जी के ग्राम चौपाल पर पढ़ा श्री के सी सुदर्शन जी नहीं रहे
घूम गया बचपन, झनझना गया शरीर, टूट गई तन्द्रा, जी उठे पल
एक सौम्य, शांत, गठीला, धीर, गंभीर व्यक्तित्व मानस पटल पर
अकलतरा के साफ सुथरे सड़क पर अपने बालसखा लल्ला जी संग

स्व दुखीराम ताम्रकार लल्ला भैया, रमेश कुमार दुबे, स्व नर्मदा प्रसाद देवांगन,
पुनीत राम देवांगन, हीरालाल देवांगन, जगदीश अग्रवाल कुकदिहा, पुनीत राम
सूर्यवंशी, संग स्व प्रताप सिंह जी ये सब बालसखा अपने परंपरागत गणवेश में
शामिल नज़र आये धुंधले धुंधले से, स्टेशन के सामने चट्टान पर संघ दक्ष कराते

स्मृति में घूमने लगे बड़े बुजुर्ग श्री रामाधीन जी दुबे, शिवाधीन जी दुबे, नर्मदा
प्रसाद दुबे जी, भुवन प्रसाद दुबे जी, स्व पुकराम जी, रामलाल जी जायसवाल
लम्बी फेहरिस्त में शामिल थे राधेश्याम शर्मा, स्व छगन लाल शर्मा, शेखर दुबे,
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि ... ... प्रार्थना करते कभी गोल घेरे में राष्ट्रगान

अकलतरा का प्रतीक दल्हा पहाड़ या दल्हा प्रतीक मैकल श्रृंखला का एकमात्र
अकेला पर्वत आज सदियों से लोगों को आकर्षित करता अचल, अडिग, मौन
समय का साक्षी जिसे नागपंचमी को उलटे तरफ से चढ़ने का साहस किया
शायद 1955 56 में सुदर्शन जी संग लल्ला भैया, रमेश दुबे, प्रताप सिंह जी,
अपने बालमित्रों की टोली बना जो आज भी परंपरा में शामिल हर बरस

शांतिलाल पुरोहित जी का आवास, चूना भट्टा के समीप जहाँ की शान्ति
विस्तृत मैदान बौद्धिक चर्चा को विस्तार देती शामिल रहते सुबह की किरणें
लटिया, कल्याणपुर से कोटमीसोनर की पगडण्डी आज भी साक्षी भाव से
स्मरण करते श्री के सी सुदर्शन जी को भीगी आँखों से भाव भीनी श्रद्धांजली ले

बाल ब्रह्मचारी सुदर्शन जी का अपनत्व अकलतरा से ऐसा जुड़ा कि वो
यहाँ के हो गये और अकलतरा उनका हो गया, आपको रायगढ़ संघ के
प्रचार और प्रसार का दायित्व सौपा गया और श्री यादव राव कालकर जी
को बिलासपुर का प्रभार दिया गया बिलासपुर का संघ कार्यालय का नामकरण
कालकर के ही नाम पर किया गया है. दो कुर्ता, दो धोती, दो बंडी, दो लंगोट, और
एक गमछा कुल संपत्ति. जो मिला खा लिया, कोई मांग नहीं, कोई शिकायत नहीं

शायद नागपुर के बाद अकलतरा को संघ का दूसरा या तीसरा बड़ा केंद्र कहना अति नहीं होगा
तिलई निवासी स्व श्री गौरीशंकर कौशिक जी को भी याद करना ज़रूरी रहा
ग्राम तिलई भी संघ संचालन का ग्रामीण केंद्र रहा जहाँ इन्हें असीम प्रेम मिला
अकलतरा रेलवे स्टेशन के सामने चावल मिल मैदान संघ संचालन का मूल केंद्र रहा

एक घटना का जिक्र किया गया जो उनकी सहनशीलता की पराकाष्ठा को
बतलाता है शायद ये वाकया हो बापू महात्मा गाँधी के हत्या के आसपास की
शिवरीनारायण में किसी सज्जन ने सुदर्शन जी पर हाथ उठा दिया कान का पर्दा
फट गया, खून निकल आया लोगों ने विरोध जताने को कहा किन्तु उन्होंने माफ़ कर दिया

अकलतरा सरस्वती शिशु मंदिर उद्घाटन के साथ ही साक्षी है इनका प्रेम
अपने बालसखा लल्ला भैया स्व श्री दुखीराम जी ताम्रकार के घर का गृह प्रवेश.
अकलतरा नगर और इनके सानिध्य में रहे जन उनके निधन का समाचार सुनकर
याद कर उठे उनका अकलतरा के प्रति निश्छल प्रेम और संघ की दीवानगी
दक्षिण भारतीय ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर सादगी की झलक दिखी उनके चरित में.

16.09.2012

Tuesday, 11 September 2012

विक्रम और वेताल 4


राजा विक्रम ने जैसे ही
सिहासन बत्तीसी को छुआ
वेताल ने कहा
राजन आज नहीं
आज आपके लिये हॉट सीट है

किसी भी प्रश्न के उत्तर पर
मन मांगी मुराद
सभी ऑप्शन हैं
फोन अ' फ्रेंड
डबल डिप
बुला लो एक्सपर्ट
या करो ऑडिएंस पोल

राजन स्मरण रखना
यह जीवन और मरण का उत्तर है
किसी चलचित्र का कैसेट नहीं
जिसे रिवाइंड कर लो
फारवर्ड कर डालो
रिवर्स कर फिर बजा डालो
कोई ऑप्शन नहीं
प्ले और ऑफ़

राजन चिंतन नहीं
ये तुम्हारा धीरज है?
या मज़बूरी तुम्हारी?
वा नियति हम सबकी?
जहाँ हम सब मूक दर्शक?
आज घड़ी की सुई भी थम गई है?

गीता का उपदेश मत सुनाना
जो हुआ अच्छा हुआ
जो होगा अच्छा होगा
तुम जानते हो पुत्र शोक?
पिता का आहत हृदय?
शरीर का पञ्चभूत में मिलना?

राजन मौन तोड़ो
तर्क नहीं उत्तर
व्यथित मन शांत कैसे हो?
पिता शोकमुक्त कैसे हो?
बहन हँसे कैसे?
दादी के आंसू कौन पोछेगा?
माँ दिया कब जलायेगी?
परिवार कभी हँस पायेगा?

10.09.2012
बी.एस.पाबला भाईजी को समर्पित
बाबू गुरप्रीत सिंह की याद में

Thursday, 6 September 2012

क्षितिजा

तुमने हर बार मुझे पुकारा
क्षितिजा-क्षितिजा-क्षितिजा

हम मिले
जमीं और आसमां की तरह
तुमने कब याद रखा?
मैं मिली तुमसे
पहाड़ों के सर्पिल मोड़ पर
चांदनी की रोशनी में
ख़ुशी में झूमते
ग़मों से दूर गाफिल
संग-संग मुस्कुराते
काले घने बादलों के बीच
कह दिया तुमने
क्षितिजा
तब भी मुझे

हम कभी मिले
समंदर की लहरों पर
सूरज की किरणों संग
इन्द्रधनुष बन
सुबह की ओस में
भीगी संध्या में
भीनी पुरवईया में
हर बार तुमने
पुकारा मुझे
क्षितिजा-क्षितिजा-क्षितिजा

मैं जीना चाहती हूँ
हर जनम
क्षितिज दर क्षितिज
तुम्हारी ही क्षितिजा बन

23.08.1998
चित्र फ्लिकर से साभार

Sunday, 2 September 2012

सपने

युवराज सिंह
सुबह की किरणों ने आँगन को
उजाले से भर दिया
लेकिन
रात को चूल्हा नहीं जल पाया
सोमवार को लकड़ी गीली थी
मंगलवार को मिशराइन ने
चावल नहीं दिये थे

बेटा बुधवार को रामबाई चाची संग
आटा पिसवाने गई थी
तू तो जानता है,
गुरुवार लक्ष्मी का वार है

पिछले इतवार हमने क्या खाया था?
चल चूल्हा जलाते हैं
इस शुक्रवार नहीं करेंगे
संतोषी माता का व्रत

और सुन मेरे राजा लल्ला
हम नहीं जायेंगे
प्रसाद खाने नहर किनारे
शनि मंदिर, आज शनिवार है

शानू ने अपनी माँ के गले में
बड़े प्यार से बाहें डाली
और धीरे से कहा
कोई बात नहीं

चलो सो जाते है
सपने में राहुल की माँ आयेगी
मालपुआ लायेगी
दोनों खायेंगे?

तुम काम पर चले जाना
मैं स्कूल चला जाऊंगा
दिन तो रोज ही आते हैं
ऐसे सपने कहाँ आते हैं ?

02.09.2012

Tuesday, 28 August 2012

महत्वाकांक्षा

न जाने कैसे बन गई
रेयर अर्थ इलेमेंट
सोचा था मैंने ?
बन जाऊंगी पवन
मलयागिरी से आंगन तक
फ़ैल जाऊंगी यत्र तत्र सर्वत्र
बिखेरने अपनी गमक

ढल जाऊंगी लोहे सी
अनेक आकृतियों में ?
लिपट जाऊंगी तार बन ?
किसी ऊँचे गुम्बद को
बनकर पत्तर साया बन पाऊंगी ?
काला चमकदार रंग ले
कहाँ पता था ?
टूटना और बिखरना बीड़ की भांति

मैंने सदा सोचा
सोने का मूल्य, हीरे की चमक
आत्ममुग्ध अपनी नक्काशी पर
जग को लुभाने निकली चौराहे पर
मनमोहक, बनावटी स्वरुप ले अपना
जो विस्थापित हो सकता है ?

मुझे ये दर्प था चमकती रहूंगी
पारे सी फैलकर तरल बनी
अनजान लोगों के तापमापन में
शालीन गुणों को धत्ता दे
नैसर्गिक स्वरुप को बदलने में
टूट गई अनेक अवयवों में
विस्फोट से केन्द्रक के
उड़ गए परखच्चे

रासायनिक अभिक्रियाओं ने
जीवन मूल्यों से सराबोर अभिकारकों को
उदासीन कर अचानक
परिवर्तित कर दिया लवण और पानी में
कभी जहरीली गैस बन हो गई वाष्पित
और मैं अवक्षेपित हो बैठ गई?
सम गुण धर्मों संग बनी रहूंगी ?
जीवन के आवर्त सारणी में?

तुम्हें पाने की चाहत में ?
या तुमसा बन जाने की ललक ने ?
बदल दिया मेरा स्वरुप
कहाँ मैं मैं रही ?
फिर भी बनना है तुमसा
चाहे टूट जाये मेरी छवि
कहो इसे ललक मेरी
या कह दो महत्वाकांक्षा

23.दिसम्बर 2011
चित्र गूगल से साभार

Saturday, 25 August 2012

शमअ-ए-राह


हर सहर हाल जो, माज़ी में बदल जायेगा
दो कदम चलकर, सरेराह बिछड़ जायेगा
रुक गया तू भी गर, मसीहा की तरह
शमअ-ए-राह, कौन रहनुमा जलायेगा.

सूनी महफ़िल हर सजी, रात के अंधियारे में
साकी सजती ही रही, बाट में चौराहे में
उठ गया तू भी गर, हर सदा की तरह
शमअ-ए-राह, कौन रहनुमा दिखायेगा.


13.09.1979
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, 21 August 2012

दशा

1

धरती ने सूरज से कहा
तुम सदा
पूरब से ही क्यों निकलते हो?
बदलकर देखो अपनी दिशा?
एक बार

2

भूखा कभी भूख की
परिभाषा लिख पाता है?
भर पेट भूख को
परिभाषित कर जाता है

3

अरे नादां
पैर के नीचे
धरती
सिर के ऊपर
आसमां
फिर तू कैसे
हो गया महान?

21.08.2012
चित्र गूगल से साभार

Friday, 17 August 2012

विक्रम और वेताल 3


इस बार वेताल ने हठ न छोड़ा
निद्रा लीन विक्रम को उठाकर
कर ली सवारी कंधे की
राजन ये रेपीड फायर राउण्ड है
न रोकना न टोकना
तुम्हारा समय शुरू होता है अब

आसान है किसी रिश्ते को बनाना?
निभाना उससे कठिन?
बनाये रखें चिर स्थाई?
कितना सहज, सरल, कठिन, वा सुगम
रिश्तों में स्वार्थ?
या स्वार्थ पर रिश्ते
हम भी सीखें
रिश्तों का उपयोग दुरुपयोग?
वर्तमान से भविष्य तक?

रिश्तों की बाध्यता कब और कैसे?
नैसर्गिक रिश्ते ज्यादा मजबूत?
रहते हैं बिना स्वार्थ?
न बाध्यता न अनिवार्यता
रहें सदा जवाबदेह?
क्यों किसी की निष्ठा पर प्रश्न?

कोई सीमा या लिहाज?

बिखर जाते हैं
रिश्ते बनाम संबंध?
छवि टूटती है?
टूटन पर फर्क पड़ता है
परिणीति हत्या, आत्महत्या, पीड़ा?
मृत्यु सी भयावह?

रिश्तों का खेल बड़ा कठिन होता है?
पारिवारिक-व्यक्तिगत संबंधों का
सामाजिक-राजनैतिक कह दें
या धार्मिक प्रतिद्वन्दिता का?
पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका का
बन जाता है आसानी से
बिन कहे लपटों में बाप-बेटी भी?
भाई-बहन क्यों संदिग्ध?
इस मायाजाल से मुक्त
मां-बेटे का पवित्र रिश्ता?

कब, क्यों, किन हालात में?
इसकी प्रतीति है होती?
खुल जाती हैं कड़ियां?
बिखरती हैं लड़ियां?
बना रह पाता है
रहस्य पर रहस्य?
रिश्तों की गरिमा?
बरसों की कमाई छवि?
रिश्ते और विश्वास?
छन्न छनाक के बाद
दृष्टिगोचर मूलस्वरूप?

राजन
कहीं ऐसा तो नहीं?
हम अच्छे हैं मायने नहीं रखता?
हमें अच्छा दिखना चाहिए
बन गया है मानदण्ड?
या फिर हमें?

चलो छोड़ो

तुम दो मिनट बैठ चिंतन करो
मैं 120 घंटे में आता हूं

चित्र गूगल से साभार 
23.03.2011

Saturday, 11 August 2012

टूट पड़ें


वीणा के अंतिम तारों को
इतना न कसो की टूट पड़ें

ये तेरी है या मेरी
काँटों की है झरबेरी
उलझायेगा आँचल
ये अग्नि परीक्षा में
अंजुरी में धरे हाला को
गले में मत डालो


वीणा  के अंतिम तारों को
इतना न कसो की टूट पड़ें


ये अपने कर्म कदम
संकल्पों के दर्पण
चंचल व्यथित अंतर्मन
हर पल वेदना समर में
प्रारब्ध स्वर्ग भूतल कर
झंझावत मथ डालो


वीणा  के अंतिम तारों को
इतना न कसो की टूट पड़ें

09.08.1978
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, 7 August 2012

राम-कृष्ण


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

मैं प्रेम का प्रतीक हूं
यशोदानंदन, गोपाल, माखनचोर
जन्माष्टमी दिन बुधवार
रात 12 बजे रोहिणी नक्षत्र में

जन्म स्थान मथुरा के कारागार में
यमुना के लहरों ने चूमा है पैरों को
किन्तु मैंने पैर धरा गोकुल में

परमब्रह्म राम का अवतरण

चैत्र नवमी शुक्ल पक्ष अभिजीत नक्षत्र
दोपहर 12 बजे अयोध्या में
दशरथ नंदन बन राजप्रसाद में
सरयू नदी की चंचल लहरों के तीर
मर्यादा की स्थापना हेतु

कृष्ण जन्म में असीम शांति
मरघट का सन्नाटा, भय, चुप्पी
द्वापर के अंतिम चरण में
फिर भी लोग भजते हैं
वृन्दावन बिहारी, नटनागर
राधा-कृष्ण, कन्हैया, नंदलाला
कभी कहते मुझे रणछोर भी
16108 रानी-पटरानियां
एक रूप धरकर एक संग विवाह
कपट नहीं प्रेम से
भले ही छलिया कह गर्इ गोपियां
ब्रह्मा के मंत्रोचार से


प्रगटीकरण पर राजमहल में
हर्ष, उल्लास, मंगलगान, बधार्इ
त्रेता युग के मध्य चरण में
अजानबाहु बनकर एकपत्निक
विवाह जनकनंदनी सीता संग
सतानंद जी के मंगलाचरण से
विश्वामित्र-वशिष्ठ के मंत्रोच्‍चार पर

शूर्पणखा, मारीच, सुबाहु

बाली का वध, अहिल्या का उद्धार
युद्ध भी धर्म की रक्षा हेतु
अधर्म के नाश में
पुलत्‍स्‍य कुल के तर्पण में

निशाचरों के विनाश
धर्म स्थापना में

जीवन चरित का आद्योपांत

गायन, श्रवण, वाचन, लेखन
जनकल्याण में मंदोदरी का पुनर्विवाह

विभीषण का राज्याभिषेक

पूरे किये 11000 बरस
और 1000 वर्ष शापित
राजा दशरथ को मुक्त करने
शांतवन-ज्ञानवती के श्राप से

मेरी लीलाओं का आद्योपांत वर्णन कहां?

सूरदास ने लखा बचपन
मीरा ने गाये प्रेम के गीत
द्वारिकाधीश के उपदेश
गीता के श्लोक गढ़े कुरूक्षेत्र में
वेदव्यास-गजानन ने

इतिहास को साक्षी बनाया
नीति और धर्म में
शिशुपाल के वध
और बहन सुभद्रा हरण में
कात्यायनी पूजा में वस्त्र चुराकर
निर्वसना गोपियों को
कर पाप मुक्त वरूण से
दिया मानव मात्र के सदगति हेतु
उपदेश अर्जुन को युद्ध क्षेत्र में


संतुलन और नीति के श्वास दिये
जन्म और मृत्यु में
युद्ध महाभारत का हो
या यदुवंशियों का नाश
चाहे कंस-जरासंध का वध
मुचकुंद के वर के कारण
बिताये हैं धराधाम में बरस 125
या लगा दें विराम 130 वर्षों में
यदुवंश के नियंत्रण संग

07.08 2012
यह रचना मेरे स्वजनों को समर्पित जिनके पुण्य प्रताप से
आज तक मैं जिन्दा हूँ और जिन्होंने सदैव मार्गदर्शन दिया है
उनकी शुचिता को प्रणाम .
चित्र गूगल से साभार

Friday, 3 August 2012

मेरा भ्रम?


कितना अजीब लगता है
यह कहना

सचमुच?
छूट गर्इ गाड़ी?
चली गर्इ तुम?
छूट गया मैं
विक्षिप्त, विस्मित, अचंभित
जीने की उत्कट लालसा में

गुजर गये सुनहरे लम्हे
बीत जाने पर वक्त बेखुदी के
मुझे महसूस हुआ
अपना रीतापन

मैं तो फकत जीता रहा
ता-उम्र
तुम्हारी पूर्णता में
अपनी रिक्तता को

आज भी उसी मोड़ पर
सूनी पगडंडी पर
बबूल के साये तले
निहारता शून्य को
तुम्हारी प्रतीक्षा में
निरर्थक?
बिखरता टुकड़ों में

ये मेरा भ्रम?
या विश्वास तेरा?
जानना है तुमसे ही
तुम ही बतलाओ ना?

शब्द स:शब्द
न संशय न जिज्ञासा
न कौतुहल
सहज आग्रह
मृत्यु के पूर्व


एक सच्ची कहानी उसे ही समर्पित
जो मेरे इमान और जान से भी ज्यादा कीमती है।

चित्र गूगल से साभार

Sunday, 29 July 2012

आस्था और विश्वास


चंद लोग बदल देते हैं
समाज की दशा और दिशा
हम ऐसा क्यों मान लेते हैं?
एक अपवाद बन गया समाज का प्रतिबिम्ब?
आस्था और विश्वास की बुनियाद हिल गई?
एक आदमी की हरकत से

एक फकीर से सुनी कहानी याद आ गई

एक बार एक मुसाफिर के गुम हो गये
आस्था और विश्वास
बस उसने शुरू कर दिया तलाशना
कहाँ है वो? कहाँ मिलेगा?
कौन है, वो कैसा होगा?
जो सुलझा देगा मेरी समस्या?
तन्मयता से खोज देगा
मेरी गुम अमानत
न जाने कितने सवाल.
उत्तर देने वाला?

निकल पड़ा खोज में
मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा
दरगाह की चौखट पे सज़दे में
रख दिया सिर श्रद्धा से
जवाब मिल पाया?
लौट गया खाली हाथ
फिर क्या था फूट पड़ा गुबार
खूब गालियां बकी, तोड़-फोड़ की
कर दिया गन्दा पवित्र स्थल को

शुरू कर दिया सिलसिला
एक मंदिर से दूसरे मस्जिद तक
चर्च के चौखट से गुरूद्वारे के ताल तक
देने लगा आवाज़ निकल बाहर
सर्वत्र निरर्थक
मौन, घुप्‍प अँधेरा, मन के भीतर और बाहर
गुम हो गई सदा शून्य में

चलने लगा क्रम, एक गाँव से दूसरे नगर
न थमनेवाला संशय और गूँज
खोज की भी इन्तहां होती है?
कौन मन्नतों को करता है पूरा?
रूह से कैसे मुलाक़ात है होती?
आत्मा कहाँ वास करती है?

यात्रा का अंत हुआ वीरान दरगाह में
टूटी दीवारें,बंजर जमीं
तंग पगडण्डी दरख्तों के साये
लगा बरसों न कोई आया, न गया
न मांगी दुआ या पूरी हुई?

आज न जाने क्यूँ
न निकले अपशब्द, न उपजा क्रोध
शाम ढलने लगी
सूरज छुपाने लगा था मुख आसमां में
पैर उठ गए वापस लौटने को
अकस्मात् आवाज़ आई
ऐ जाने वाले मुसाफिर जरा ठहर

चौंक गया, किसने आवाज दी?
अज्ञात भय, कौन होगा ये?
चल पड़ा एक बार फिर
आई वही सदा वीराने से
जरा ठहर, आज क्यों मौन है?

मुसाफिर ने पूछा
तू कौन है मुझे बूझने वाला?
एक कांपती आवाज, मैं तेरी आस्था,
तेरा विश्वास, तेरी आत्मा

मुसाफिर ने पूछा

कैसे मानूं, कहाँ थे आज तक?
क्यों नहीं आये आज के पहले?

जब तक तुम व्याकुल थे
जिज्ञासा थी मन में
साक्षात्कार की ललक थी
मैं तुम्हारे संग चलता रहा
हर उस जगह जहाँ जहाँ तुम फिरे

लेकिन मैं तो हर जगह पाक रूह से
मिलने कुछ पूछने गया
कहीं कोई मिला ही नहीं
मिली ख़ामोशी तनहाई
आज ही तुम क्यूँ?

ऐसा नहीं सब थे वहां
और मैं तो साथ हमेशा
आज तुम्हारी आस्था टूट जाती पूरी
उठ जाता विश्वास
अब लाज़मी हो गया था
तुम्हारे हर सवाल का जवाब देना

ऐसा कभी मत सोचो
जवाब क्यों नहीं दिया गया?
आज तक किसी ने भी तुम्हारे
सवाल का जवाब देना
उचित नहीं समझा
तब तुम्हारा विश्वास था
कोई तो जवाब देगा ही

लेकिन तुम्हारी आज की
ख़ामोशी और हताशा ने
तोड़ दिये बंध समय और दिशा के
मुझे मजबूर कर दिया कहने
कि हर सवाल का जवाब है
ये बात अलग है
कि कभी-कभी हम मौन रह जाते हैं
और ये चुप्पी जवाब नहीं
कभी न सोचना

वादे के मुताबिक यह पोस्ट काव्य मंजूषा ब्लॉग
की मालकिन स्वप्न शैल मंजूषा को समर्पित


चित्र फ्लिकर से साभार.

Tuesday, 24 July 2012

विक्रम और वेताल 2

विक्रम ने हठ न छोड़ा
वेताल को कंधे पर लाद
चल पड़ा गंतव्य को

वेताल ने कहा
राजन विचार करके बोलो

संशय, भ्रम, आशंका से
मुक्त हो अब मौन तोड़ो
जाति, धर्म, वर्ग, रंग
समुदाय और वर्ण के भेद से परे
पूर्व प्राप्त परिणामों को
एक नई तुला पर तोलो

बंध जाये रिश्तों की डोर
माँ और बेटी के
पत्नी और प्रेमिका संग
घुलती जाये सुगंध
एक ही व्यक्ति में
पुत्र संग पति
न पड़े गाँठ
न बंटे रिश्ते
पिता और प्रेमी के मध्य
बनी रहे मर्यादा

मान्यतायें वही हों
न टूटे
सामाजिक बंधन या नियम
रीति रिवाज भी बने रहे
निर्वहन हो परम्पराओं का
कभी न पड़े दरार

वर्जनाएं भी रहें बनी
न हों सीमाओं का अतिक्रमण
खरे हों कसौटी पर
अपनी अपनी सार्थकता ले

वेताल ने कहा
राजन स्मरण रखो

पिता की छाया
प्रेम और स्पर्श पति का
पुत्र का अगाध स्नेह
त्याग प्रेमी का
बने दृढ़ आलिंगन

पत्‍नी का प्रेम और समर्पण
माँ की विशालता में
हो जाये तिरोहित
बेटी का रुदन
बिंध जाये हृदय में
और पथ निहारे
प्रेयसी बन?

अनजाना, अपरिचित, अपरिभाषित?
सरोकार या लगाव ?
अथवा कह दोगे समर्पण?

क्रमशः
31.10.2007



Saturday, 21 July 2012

विक्रम और वेताल


एक बार राजा विक्रम को वेताल ने चोर और ताले की कथा सुनार्इ

वेताल ने पूछा चोर कौन है?
जो पकड़ा गया या वह जो पकड़ा ही नहीं गया?
घर पर ताला क्यों लगाया जाये?
ताला किसके लिये लगाया जाये?
ताला कब लगाया जाये?
ताला लगाने का औचित्य क्या है?
प्रश्न सहज, सरल, स्वाभाविक है?
प्रश्नों का सिलसिला शुरू हुआ और लग गर्इ प्रश्नों की झड़ी,
यह पता ही नहीं चल रहा था
कि प्रश्नकर्ता कौन है? उत्तर किसे देना है?

वेताल ने कहा प्रश्न का उत्तर जान बूझकर न देने पर
सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।
हम वस्तु को सुरक्षित रखें?
वह भी ताला लगाकर किन्तु किससे सुरक्षित रखें?
उस आदमी से जिसे उसकी आवश्यकता ही नहीं,
या उससे जो हर हाल में उसे चुरायेगा ही

तब ताले का महत्व किसके लिये या
मर्यादा के लिये अनिवार्य मानकर जड़ दिया जाये?
किस भाव को सही या गलत माना जाये?
सत्य का उद्घाटन अति आवश्यक है?
न बतलाने पर सत्य आहत हो जायेगा?

मान लो सत्य उद्घाटित हुआ और वहां उपस्थित
सभी लोग बहरे हुए या उन्होंने बहरे होने का
नाटक कर दिया तो? सब कुछ जानकर भी
न माना तब क्या सत्य और क्या असत्य?
सत्य के अस्तित्व को ही नकार दिया गया?
किसी भी शाश्वत मूल्य को मानने से इंकार
कर देने पर समस्त नियम, नीति, मूल्य, आदर्श धरे रह गये?

अंत में राजा विक्रम को वेताल ने कहा याद रखो
अब प्रश्न करने का अधिकार मेरे पास सुरक्षित है।
आरक्षण का नियम लागू हो गया है

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किं?
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण: किं करिष्यति?
क्रमश:

31.10.2007

Sunday, 15 July 2012

पहेली



कभी मेरी सहेली बनकर
यदा-कदा पहेली बनकर
महानदी की धारा में
लहरों संग भंवर बन
मुखरित हो जाती हो

मैकल पर्वत श्रृखला सी
फैलकर ढलान में भी
एक दुसरे से सटकर
सम्मोहित कर जाती हो

और तुम कभी-कभी
गज गामिनी बन
निर्जन वन में विचरते
अपने ही सपनों के
कोमल कोपलों को
तोड़-मरोड़
रौंद-रौंद जाती हो?

क्यूं हिमखण्ड सी
विगलित शिखर में हो
अपना ही आंगन
बहा ले जाती हो

कभी-कभी
टूटता है धैर्य तुम्हारा?
पवन की रलता ले
स्वच्छंद उच्श्रृखल बन
अपने मंद झोंकों से
खुद का वजूद
शून्य में
छिन्न-भिन्न कर जाती हो

कभी सघन घन बन
पर्वत शिखर के
गिरि कंदराओं को भी
सिक्त कर जाती हो
ये विस्तार तुम्हारा
अथाह समुद्र सा
दूर-दूर तलक
और सिमटना कभी
सीप में मोती सा
कभी बदलना
स्वाति नक्षत्र के अमृत में
किसकी प्रतीति?

तब तुम्हें पाकर भी
बूझ नहीं पाता
फिर हर एक शै में
तेरा ही भ्रम
क्यूं हो जाता है?
और मैं यह कभी
जान ही नहीं पाया 
तुम मेरी कौन हो?

14.07.2012
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, 11 July 2012

नया द्वार


आँगन के पार
एक बंद द्वार
उम्र के पड़ाव पर
हर साल

एक दीवार इस पार
एक दीवार उस पार

डरता हूँ
हर बार

खोलते नया द्वार

कहीं ऐसा न हो कि
इस द्वार के पार हो
एक अलसाई सी
सरकती नदी

और




पुराने बरगद से बंधी
वही नाव
जिसका खेवनहार
मैं
और सवार भी

वही नाव
वही पतवार
बार&बार

न भरपाई की चिंता
न उतराई का भार

फिर क्यों?
डर जाता हूँ
हर बार
खोलते नया द्वार

06.07.2012
एक बार पुन तथागत ब्लॉग के सृजन कर्ता
श्री राजेश कुमार सिंह को उनके ही भाव उनके
ही शब्दों में लिखकर समर्पित, माध्यम बनकर
चित्र गूगल से साभार

Sunday, 8 July 2012

नेह

इन पीछे छूट चुके बरसों में
क्या खोया क्या पाया?
जब भी सोचा
मन भरमाया

बरसों बरस खड़ा रहा
बिजूका बनकर
खेतों में
पंछियों को डराते
पर कभी इंसान बन पाया?
रहा आधा बिजूका
आधा इंसान

नेह की बारिश नहीं होती
सूख गए खेत?
शायद उड़ गए पंछी?
किसी और देश?
मैं कभी न बन पाया
बिजूका

इन्सान
कोशिश करें
अगर कुछ बात बन जाये

रमाकांत सिंह ०६.०७ .२०१२
तेरा तुझको अर्पण ,क्या लागे मेरा
श्री राजेशकुमार सिंह तथागत ब्लॉग के सृजन कर्ता ने मेल किया है
मेरे जन्म दिन 06.07.2012 पर आपके जन्म दिन पर एक और
कविता लिखने की कोशिश की थी. पर बात कुछ बन नहीं पाई.
जैसी लिखी है, वैसे ही भेज रहा हूँ. दरअसल लग रहा है
ये दो अलग अलग कविताएँ हैं.
चित्र गूगल से साभार

Monday, 2 July 2012

घनी छांव


अकस्मात एक दिन
थम गर्इ सांसें
आस में बेवजह
पथरा गर्इ आंखें
सहते-सहते उपेक्षा
फैल गर्इ खामोशी
सफेद बर्फ जैसी

तमाम उम्र उसने काट दी
रिश्तों के धुन्ध में
खीज और बेबसी में
रेशों में हांफती

मेरी फटती रही छाती
देने को चंद कतरा
पार्इ थी जिससे सांसें
बिन मांगे कोख से
तंग बना डाला मैंने
अपने वजूद को
बिना किसी
शर्म-संकोच के

मरने पर हमने भी
छपवा दिया शोक पत्र
खेद और हर्ष संग
सूचित करना पड़ रहा है कि
मेरी प्यारी मां का
हृदयाघात से अचानक
पुरूषोत्तम मास, दिन बुधवार
अक्षय तृतीया, विक्रम संवत को
इंतकाल हो गया है
आप पधारें हमारे निवास पर
मृत आत्मा की शांति के लिये
शोक आकुल
पुत्र साथ में पुत्र वधु

बड़े ही फख्र से
लोग भी शरीक हुए
पूरी तवज्जो दी
सरे राह लोगों ने
बातों ही बातों में
बना दिया ज़न्नतनशीं
मृत्यु के बाद ही

दोज़ख से बदतर
जीवन में झोंककर

कैसे साक्षात्कार हुआ?
नर्क में स्वर्ग का
या एक रस्म की अदायगी?
वाह मेरे मालिक?
कैसा इंसाफ?
क्यूं कर न बोध हुआ?
कैसे ये चूक हुर्इ?

मां तो बस मां थीं
उसका अपराध?
बस गर्भ में धरना?
या जनना उस बीज को?
देना घनी छांव?
बनना वट वृक्ष सा


चित्र गूगल से साभार

Friday, 29 June 2012

फरेब

मैं जानता हूं
हर फरेब
मेरे प्रत्येक प्रश्न पर
तुम्हारा जवाब
फिर क्यों
तुमसे ही पूछना चाहता हूं?
क्यों सुनना चाहता हूं?

सब

तुम भी जानती हो?
कि सदैव की भांति
आज भी
तुम झूठ ही बोलोगी
यह जानते हुए भी
कि हर बार बोला गया झूठ
तुम्हारा चेहरा बयां कर जाता है


फिर ऐसा क्यों?

मैं कहां जान पाया?
तुम्हारी मजबूरी
मक्कारी या धूर्तता
और एक झूठ को
छुपाने के लिए बोला गया
झूठ पर झूठ

पर ये मेरा ही मन है
जो नहीं त्याग पाता
अपनी आस्था और हठ
एक सच सुनने की
जो तुम्हारी आंखें बोल जातीं हैं
तमाम बंदिशों को तोड़कर

और मैं चलता चला जाता हूं
तुम्हारे एक झूठ से
दूसरे झूठ की
अंतहीन यात्रा में


आँखे जो भी कहेंगी
होठों से निकली ध्वनियाँ
उसे काटती रहेंगी

01.03.2011
चित्र गूगल से साभार
अंतिम तीन लाइन तथागत ब्लाग के सृजनकर्ता
श्री राजेश कुमार सिंह के सौजन्य से

Monday, 25 June 2012

पर्यावरण



पर्यावरण और शिक्षा विद्यालय में
1 तारे, बादल, नक्षत्र मंडल, मौसम,
2 नदी, नाला, पहाड़, खड्ड-खार्इ,
3 मैदान, मिट्टी, खनिज,
4 वनस्पति, फल, फूल,
5 कीट-पतंगे,
6 पशु, पक्षी,
विदयालय में उपरोक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखकर अध्ययन-अध्यापन शुरू करें।

गांवों में वैज्ञानिकता का ज्ञान प्रारंभिक स्तर से ही मिल जाता है, नित्य कर्म को जाते वक्त वनस्पति, जीव, जन्तु, मिटटी-पत्थर, मौसम, पानी का स्रोत, औषधीय वनस्पति का ज्ञान, इसी प्रकार तैरने में सभी अंगों की देखभाल, स्वयं से स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता, दातुन तोड़ते वक्त पर्यावरण के प्रति प्रेम, सजगता, उन्मुखता, चेतनता, क्रिया-प्रतिक्रिया, विस्तार का ज्ञान, क्रमिक स्तर पर शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक ज्ञान की उपलब्धि प्राप्त हो जाती है। सजीव-निर्जीव, सब्जी, फल, फूल, पक्षी, जानवर, पशु, कीट-पतंगों का जीवन चक्र, मौसम का व्यवहार, मिट्टी-पत्थर, बादल का महत्व, उपयोगिता, तथा इनकी अन्योन्याश्रितता का अध्ययन आवश्यक हो जाता है।

प्रकृति का मूल, जड़- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर, का वृहद और व्यावहारिक ज्ञान और अध्ययन एवं प्राकृतिक उपादानों का दोहन, स्रोत, महत्व, उपयोगिता, अन्योन्याश्रितता का सूक्ष्म विवेचन और अध्ययन भी आवश्यक है। प्रकृति का दूसरा भाग चेतन- वनस्पति, निम्नवर्गीय जीव एवं उच्चवर्गीय जीवों में प्राणी, सरीसृप, मछली, उभयचर, स्तनधारियों का व्यापक अध्ययन करें।

नक्षत्र विज्ञान का अलौकिक ज्ञान, सूर्य, चंद्र, पृथ्वी तथा भूगर्भ विज्ञान के साथ अन्य आकाशीय पिण्डों, ग्रहों का अनंत तक विस्तृत ज्ञान तथा संभावनाएं शामिल हैं। वर्ष, महीना, दिन, सुबह, शाम, दोपहर, रात, ब्रह्म मुहुर्त, गोधूलि बेला, आधी रात, अलसुबह, सूर्योदय, सूर्यास्त, पल, क्षण, पहर, ऋतु, उपऋतु, संवत, विक्रम संवत, शक संवत, हिन्दी के महीने, अंग्रेजी महीने, पखवाड़ा, कृष्ण पक्ष, शुक्ल पक्ष, तिथियां, अमावस्या, पूर्णिमा, सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण, राशियां, चद्रमंडल, सूर्यमंडल का सहज और सरल अनिवार्य परिवेशगत ज्ञान समाहित हो।

भाषा विज्ञान, ध्वनि विज्ञान, लिपि की दृष्टि से व्यक्तिगत एवं राष्‍ट्रीय हित में पूरक एवं संपूरक विकास की स्थिति में स्वरूप सदैव तदर्थ परिस्थिति परिवेशजन्य ज्ञान अनिवार्य है। वास्तव में इसके आगे भी बहुत कुछ है, और पीछे भी सब कुछ अनंत तक विस्तृत है और इन सबके उपर प्रत्येक जाति, धर्म, समुदाय, वर्ग द्वारा प्रचलित उनकी गणना व अवधारणा को ध्यान में रखकर ज्ञान का स्वरूप निर्धारित करें ताकि पर्यावरण का ज्ञान लोक हित में जाति, धर्म, लिंग, समुदाय, रंग, वर्ग के भेद से परे ज्ञान हो क्योंकि औपचारिक, नियमित, व्यवस्थित, स्थिर, एवं वैज्ञानिक पाठयक्रम के साथ ही हम शिक्षा के मूल उद्देश्य की पूर्ति कर पायेंगे।


बालकों के सर्वागींण विकास के लिये उसके शारीरिक, चारित्रिक, आध्यात्मिक, नैतिक, विकास के साथ उसके सांस्कृतिक व मानसिक विकास के पटों को भी खोलना पड़ेगा, जहां उसे अपने मूल्य, आदर्श, नीति, जीवन शैली की स्पष्ट झलक दिखलार्इ पड़े। माता-पिता, अभिभावक के साथ-साथ राष्ट्र भी उस पर गर्व कर सके और उसे स्‍वयं अपने भारतीय होने पर गर्व हो।


06.04.2003
चित्र गूगल से साभार

Thursday, 21 June 2012

फ़साना


तुम सदा
सब कुछ कर सकती थीं
लेकिन
तुमने कभी चाहा ही नहीं
बस उलझी रहीं
अपने ख्वाबों खयालों में

मैने सदा चाहा
लेकिन
तुम्हारी चाहत में
कभी कुछ कर न सका
जो मैने चाहा

तुम कहां अंतर कर सकीं?
मेरे चाहने और तुम्हारे चाहने में

हर बार की तरह
इस बार भी बदल दिया
मेरी र्इच्छा को
अपनी अनिच्छा से
और मेरी चाहत
बस चाहत ही रह गर्इ
चाहत न बन सकी

हम एक और एक मिलकर
ग्यारह बने रहे
एक और एक होकर भी
एक नहीं बन पाये

01.03.2011
चित्र गूगल से साभार
एक सच्ची कहानी उसे समर्पित 
जो मेरे इमान और जान से भी ज्यादा कीमती है।

Tuesday, 19 June 2012

लक्ष्य


शिक्षण एक कला है यह कला जन्मजात गुणों से युक्त गुरु सहज ढंग से निभा लेता है दूसरी ओर अव्यस्थित चीजों, पाठ्य वस्तुओं, पाठ्यक्रमों को निर्धारित नियमानुसार विधि सम्मत समय पर पूर्ण कर पाना कहां सम्भव बन पड़ता है तब नये नियमों का निर्धारण कर लक्ष्य की प्राप्ति ... ! ऐसी परिस्थिति में नियमों का उल्लंघन स्वाभाविक बन जाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों मे कोर्इ भी कार्य करता है तो अपेक्षित परिणाम प्रभावित होगा ही कार्य का सम्पादक गुरु है न कि कोर्इ मशीन, और गुरु की भावनाएं महत्वपूर्ण निर्धारित कार्य को भी प्रभावित कर देती हैं?


विगत सोलह से अठारह वर्षों में शालेय प्रशिक्षण दिये जा रहे हैं प्रशिक्षण को यदि सूक्ष्म या व्यापक रूप में समझा जाये या परिभाषित किया जाये तो निश्चित ही कोर्इ न कोर्इ आयाम कहीं छूट जायेगा अथवा पंचम या षष्टम परिकल्पित आयाम को जोड़ना पड़ जायेगा इस स्थिति में प्रशिक्षण को पूर्ण स्वरूप में समझा पाना या समझ पाना निश्चित ही कठिन हो जावेगा।

अब यदि प्रशिक्षण का औचित्य खोजा जाये तो देश, राज्य, जिला, विकासखंड, संकुल और पाठशाला के लिये शिक्षक, छात्र, पालक व संस्था प्रमुख के लिये शिक्षा के मूल उद्देश्य हेतु अलग अलग स्वरूप बन जावेगा सभी इकार्इयां अलग अलग हैं किंतु सब एक दूसरे की पूरक और अन्योन्याश्रित हैं तब कहां एक इकाई को छोड़ कर दूसरी इकार्इ के बिन तीसरी के सहारे मूल लक्ष्य को पाया जा सकता है।

प्रशिक्षण की आवश्यकता व औचित्य पर विचार के निम्न बिन्दु बन सकते हैं-
1. शिक्षा के स्तर में सुधार।
2. शिक्षण कला में परिमार्जन।
3. प्रशिक्षित शिक्षकों को पुन: जागृत करना।
4. शिक्षण और शिक्षा के नये आयाम से परिचय कराना।
5. शिक्षकों को दायित्वों के प्रति सजग करना।
6. अप्रशिक्षित शिक्षकों को मानक स्थिति के समकक्ष बनाना।
7. नये शिक्षकों को पूर्व शिक्षकों के अनुरूप सहयोगी बनाना।
8. शिक्षा के परिवर्तन का प्रचार प्रसार करना।
9. नयी आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा प्रदान करना।
10. नयी तकनीक का प्रयोग करना, ज्ञान का विनिमय।
11. छात्र-छात्राओं को वर्तमान प्रतियोगी परीक्षाओं के अनुरूप सर्वश्रेष्ठ बनाना।
12. शिक्षकों को स्वमूल्यांकन की प्रेरणा देना।
13. अप्रशिक्षित शिक्षाकर्मियों सहयोगियों को शिक्षण विधि से परिचित कराना।
14. शिक्षा के मूल उददेश्यों की पूर्ति करना।
यह कहना उचित होगा? और न्याय संगत कि प्रशिक्षण का उद्देश्य है-
• सरकारी आदेश की खानापूर्ति करना?
• शिक्षा पर दिये गये बजट का उपयोग दिखाना?
• शिक्षकों को परेशान करने हेतु प्रशिक्षण में व्यस्त करना?

प्राचीनकाल में विद्यालय गुरुकुल हुआ करते थे जो राजआश्रित थे जहां गुरु की आज्ञा सर्वोपरि मानी जाती थी गुरूकुल में शिष्य केवल शिष्य होता था? जो शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त कर पूर्णता को प्राप्त करने के सीढ़ी पर अग्रसर किया जाता था? गुरुकुल में नैतिक मूल्यों, आदर्श, नीति, नियम, रीति-रिवाज, परंपराओं का निर्वहन प्रतिदिन के कार्यो में सम्पन्न करवाया जाता था। वहां शब्द ज्ञान के साथ-साथ व्यवहारिक ज्ञान का भी अनूठा संगम दृष्टिगोचर होता था। हम चाहे त्रेता युग या द्वापर युग की चर्चा करें गुरुशिष्य आचार्य द्रोण अर्जुन एकलव्य, परशुराम जी कर्ण, विश्वामित्र जी और वशिष्ठ के संग श्री राम लक्ष्मण की परंपरा ने सदैव माता-पिता समाज और राज्य को अभिभूत किया है।

एक तथ्य अनिवार्य है तब गुरु राजआश्रित थे ऐसा माना गया है यह कौन निर्धारित करेगा? कि हमारे समक्ष उपस्थिति दूध का गिलास आधा भरा है? या आधा गिलास खाली? सत्य क्या है? असत्य क्या है? राज गुरुआश्रित था या गुरु राजआश्रित थे? यह कहें तो कोर्इ अतिशयोक्ति न होगी कि इनका संबंध अन्योन्याश्रित होते हुए भी अपने आप में स्वतंत्र रहा होगा तभी अपेक्षित लक्ष्य की प्राप्ति हुर्इ। किसी एक को अलग कर कुछ भी पाना संभव है? शायद ये सब उस काल, परिस्थिति, पात्र एवं देश की परंपरा अनिवार्यता के अनिवार्य अंग रहे होंगे।

शिक्षा के संवर्धन तथा राज हित में गुरु का स्थान निर्विवाद रूप से सर्वोपरि रहा होगा तब ही तो श्रीरामचंद्र जी को अल्पवय में ही राक्षसों से युद्ध हेतु ऋषि आश्रम जाना पड़ा। हमने सदैव रामायण अथवा रामचरितमानस और अन्य ग्रंथों का अध्ययन स्नान करके आध्यात्मिक ढंग से किया है। हमने कभी भी उसके मारक स्वरूप पर ध्यान नहीं दिया। मर्यादा पुरषोत्तम राम को ही भजा है आदि पुरूष के रूप में, लक्ष्मण के अग्निबाण (मिसाइल) को समुद्र सोखते विचार ही नहीं किया। मारीच और सुबाहु को सौ योजन तक ले जाकर मार गिराना कहां भज पाये। इन सभी मारक या विध्वंसात्मक क्रियाओं को चिंतन के समकक्ष करके श्रवण या अध्ययन कहां किया? जो गुरुकुल की देन रही।

जीवन के प्रत्येक कार्य में चाहे वह प्रशिक्षण हो या निर्वहन, सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्ष होते ही हैं। प्रशिक्षण के भी पक्ष और विपक्ष में एक नहीं अनेक वार्ता की स्थिति बनती है। क्योंकि प्रशिक्षण लक्ष्य की प्राप्ति हेतु है न कि प्रशिक्षण, प्रशिक्षण के लिए। इसके बाद भी प्रशिक्षण अनिवार्य और अपेक्षित होता है। प्रत्येक ज्ञानवान शिक्षक का अपना-अपना, भिन्न-भिन्न मत हो सकता है। इसका अर्थ यह नहीं कि प्रशिक्षण गलत है या ये विद्वान।

प्रशिक्षण हमें निपुण कलाओं से युक्त और बहिर्मुखी बनाता है। ज्ञान को संग्रह की प्रवृत्ति (धनवंतरी) से मुक्त होकर परोसना सिखाता है। हम शायद धनवंतरी से चरक बनने की ओर अग्रसर होते हैं और
सर्वे भवन्तु सुखिन:
सर्वे सन्तु निरामया
सर्वे भद्राणी पश्यन्तु
मा कश्चित् द:ख भाग भवेत
को चरितार्थ करता है। जैसे गुरु बिना ज्ञान की प्राप्ति संभव है? वैसे ही प्रशिक्षण के बिना अध्ययन अध्यापन की पूर्णता की प्राप्ति होती है? शायद आप भी सहमत हों कि अध्ययन-अध्यापन की कला को प्रशिक्षण नया आयाम देती है।

26.04.2004

Friday, 15 June 2012

प्रतीक्षा


क्यों करूं प्रतीक्षा?
तुम्हारी तरह मैंने भी
सीख लिया अब
किसी और का हाथ थामना
कन्धे पर सिर रखना
दुखड़ा सुनाना अपने अंदाज में
भिगा देना कन्धे
और छोड़ जाना
आंसुओं के दाग

तुम्हारी दासतां को
दरकिनार कर दिया मैंने
तोड़ दिये बंधन
करता हूं विचरण
विहग सा निस्सीम गगन में

गाता हूं
मुक्ति के गीत
जिसको स्वर दिये थे
तुमने कभी
अब ध्वनित है वही

करता हूं बंधन मुक्त
तुम्हें भी मोह से
और हो जाता हूं मुक्त
तुम्हारे पाश से

गगन तुम्हारा
विस्तार तुम्हारा
विचरण करो
पखेरू सदृश्य
पंख फैलाकर
चूर थकन से कभी
मस्ती मगन यदि

आना तुम्हारा मेरी छांव में
डैने समेटे
पलकें बिछाये
बाहें फैलाकर
प्रतीक्षा-प्रतीक्षा
प्रतीक्षा-प्रतीक्षा,
प्रतीक्षा?

करते थे जैसे हम
एक दूजे की कभी

17.03.2010
चित्र गूगल से साभार
तथागत ब्लाग के सृजन कर्ता श्री राजेश कुमार सिंह
को समर्पित उनकी रचना धर्मिता पर

Tuesday, 12 June 2012

एहसास



बादल छंटते नहीं
सूरज ढल जाता है

चांद दिखता ही नहीं
रौशनी ये कैसी है?

वक्त

थम गया मौत की मानिंद
यक ब यक मेरे ज़ानिब



दर्द ये कैसा बेहिस?
एहसास होता ही नहीं

कैसा ये बेअदब
हम दोनों का रिश्ता है?

16.03.2012
(चित्र गूगल से साभार)
तथागत ब्लाग के सृजन कर्ता श्री राजेश कुमार सिंह
को समर्पित

Saturday, 9 June 2012

स्पर्श



खामोशी कहां टूटती है?
बढ़ती जाती है दूरियां
शब्दहीनता से
संवादहीनता के
स्पर्श तराश देते हैं
हमें बुत की तरह


तुम्हारा तर्क,
तुम्हारी खामोशी,
तुम्हारे फरेब ने
खुद ब खुद
उजागर कर दिया
तुम्हारे अंतर्मन को





तुम मुंह फेरो
या विस्तृत आसमां की तरह
फैल जाओ ब्रम्हाण्ड में
क्षुद्र आत्मरक्षा में

अब सब निरर्थक

30.04.2011
(चित्र गूगल से साभार)