अकस्मात एक दिन
थम गर्इ सांसें
आस में बेवजह
पथरा गर्इ आंखें
सहते-सहते उपेक्षा
फैल गर्इ खामोशी
सफेद बर्फ जैसी
तमाम उम्र उसने काट दी
रिश्तों के धुन्ध में
खीज और बेबसी में
रेशों में हांफती
मेरी फटती रही छाती
देने को चंद कतरा
पार्इ थी जिससे सांसें
बिन मांगे कोख से
तंग बना डाला मैंने
अपने वजूद को
बिना किसी
शर्म-संकोच के
मरने पर हमने भी
छपवा दिया शोक पत्र
खेद और हर्ष संग
सूचित करना पड़ रहा है कि
मेरी प्यारी मां का
हृदयाघात से अचानक
पुरूषोत्तम मास, दिन बुधवार
अक्षय तृतीया, विक्रम संवत को
इंतकाल हो गया है
आप पधारें हमारे निवास पर
मृत आत्मा की शांति के लिये
शोक आकुल
पुत्र साथ में पुत्र वधु
बड़े ही फख्र से
लोग भी शरीक हुए
पूरी तवज्जो दी
सरे राह लोगों ने
बातों ही बातों में
बना दिया ज़न्नतनशीं
मृत्यु के बाद ही
दोज़ख से बदतर
जीवन में झोंककर
कैसे साक्षात्कार हुआ?
नर्क में स्वर्ग का
या एक रस्म की अदायगी?
वाह मेरे मालिक?
कैसा इंसाफ?
क्यूं कर न बोध हुआ?
कैसे ये चूक हुर्इ?
मां तो बस मां थीं
उसका अपराध?
बस गर्भ में धरना?
या जनना उस बीज को?
देना घनी छांव?
बनना वट वृक्ष सा
चित्र गूगल से साभार
गहरे सघन भाव, अनूठे शब्द.
ReplyDeleteइस सुंदर रचना के लिए सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय भाई रमाकांत जी....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
ReplyDeleteभावुक मन हो गया.....
सादर
अनु
उत्कृष्ट प्रस्तुति ||
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें |
मां तो बस मां थीं
ReplyDeleteउसका अपराध?
बस गर्भ में धरना?
या जनना उस बीज को?
देना घनी छांव?
बनना वट वृक्ष सा...मन को भावविभोर करती बहुत उत्कृष्ट प्रस्तुति ...बधाई रमाकन्त जी..
मां तो बस मां थीं
ReplyDeleteउसका अपराध?
बस गर्भ में धरना?
या जनना उस बीज को?
देना घनी छांव?
बनना वट वृक्ष सा
गहन भाव, भावुक करती रचना...
बहुत मार्मिक रचना...माँ तो बस माँ ही होती है....
ReplyDeleteभाव , शब्द की मार ...बहुत गहन है.
ReplyDeleteभावपूर्ण!
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी कविता.
मन को झकझोरती रचना।
ReplyDeleteमार्मिक रचना! समय सचमुच कितना बदल गया है। :(
ReplyDeleteअक्सर किसी के जाने के बाद अफ़सोस होता है ......कि हम ऐसा न करते तो ...या हम यह क्यूँ बोले...या कुछ और .....जीवन भर आप अपने किये का लेखा जोखा करते रहिये ...जानेवाला तो अपने हिस्से का दर्द लेकर चला जाता है ......बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति
ReplyDeleteगहन भाव लिए मन को छूती प्रस्तुति
ReplyDeleteकल 04/07/2012 को आपके ब्लॉग की प्रथम पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
'' जुलाई का महीना ''
मार्मिक अभिव्यकि कन्या भ्रूण हत्या समान अपराध
ReplyDeleteबहुत उम्दा गहन अभिव्यक्ति,,,सुंदर रचना,,,,रमा कान्त जी बधाई ,,,,,
ReplyDeleteMY RECENT POST...:चाय....
माँ ही तो है जो दर्द और पीड़ा सह कर वात्सलय, आशीष के साथ जीवन देती है।
ReplyDeleteसुंदर रचना के लिए आभार
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उम्दा प्रस्तुति के लिए आभार
प्रवरसेन की नगरी प्रवरपुर की कथा
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
♥ पहली फ़ूहार और रुकी हुई जिंदगी" ♥
♥शुभकामनाएं♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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bahut sundar rachna ...utkrisht.
ReplyDeleteमां तो बस मां थीं
ReplyDeleteउसका अपराध?
बस गर्भ में धरना?
या जनना उस बीज को?
देना घनी छांव?
बनना वट वृक्ष सा
भाव विह्वल करती अंतर्मन को छूती पंक्तियाँ !!
प्रभावशाली रचना ...
ReplyDeleteमार्मिक रचना........
ReplyDeleteमां तो बस मां थीं
ReplyDeleteउसका अपराध?
बस गर्भ में धरना?
.....भावपूर्ण!
मन को झकझोरती मर्मस्पर्शी कविता....!!