न जाने कैसे बन गई
रेयर अर्थ इलेमेंट
सोचा था मैंने ?
बन जाऊंगी पवन
मलयागिरी से आंगन तक
फ़ैल जाऊंगी यत्र तत्र सर्वत्र
बिखेरने अपनी गमक
ढल जाऊंगी लोहे सी
अनेक आकृतियों में ?
लिपट जाऊंगी तार बन ?
किसी ऊँचे गुम्बद को
बनकर पत्तर साया बन पाऊंगी ?
काला चमकदार रंग ले
कहाँ पता था ?
टूटना और बिखरना बीड़ की भांति
मैंने सदा सोचा
सोने का मूल्य, हीरे की चमक
आत्ममुग्ध अपनी नक्काशी पर
जग को लुभाने निकली चौराहे पर
मनमोहक, बनावटी स्वरुप ले अपना
जो विस्थापित हो सकता है ?
मुझे ये दर्प था चमकती रहूंगी
पारे सी फैलकर तरल बनी
अनजान लोगों के तापमापन में
शालीन गुणों को धत्ता दे
नैसर्गिक स्वरुप को बदलने में
टूट गई अनेक अवयवों में
विस्फोट से केन्द्रक के
उड़ गए परखच्चे
रासायनिक अभिक्रियाओं ने
जीवन मूल्यों से सराबोर अभिकारकों को
उदासीन कर अचानक
परिवर्तित कर दिया लवण और पानी में
कभी जहरीली गैस बन हो गई वाष्पित
और मैं अवक्षेपित हो बैठ गई?
सम गुण धर्मों संग बनी रहूंगी ?
जीवन के आवर्त सारणी में?
तुम्हें पाने की चाहत में ?
या तुमसा बन जाने की ललक ने ?
बदल दिया मेरा स्वरुप
कहाँ मैं मैं रही ?
फिर भी बनना है तुमसा
चाहे टूट जाये मेरी छवि
कहो इसे ललक मेरी
या कह दो महत्वाकांक्षा
23.दिसम्बर 2011
चित्र गूगल से साभार
रेयर अर्थ इलेमेंट
सोचा था मैंने ?
बन जाऊंगी पवन
मलयागिरी से आंगन तक
फ़ैल जाऊंगी यत्र तत्र सर्वत्र
बिखेरने अपनी गमक
ढल जाऊंगी लोहे सी
अनेक आकृतियों में ?
लिपट जाऊंगी तार बन ?
किसी ऊँचे गुम्बद को
बनकर पत्तर साया बन पाऊंगी ?
काला चमकदार रंग ले
कहाँ पता था ?
टूटना और बिखरना बीड़ की भांति
मैंने सदा सोचा
सोने का मूल्य, हीरे की चमक
आत्ममुग्ध अपनी नक्काशी पर
जग को लुभाने निकली चौराहे पर
मनमोहक, बनावटी स्वरुप ले अपना
जो विस्थापित हो सकता है ?
मुझे ये दर्प था चमकती रहूंगी
पारे सी फैलकर तरल बनी
अनजान लोगों के तापमापन में
शालीन गुणों को धत्ता दे
नैसर्गिक स्वरुप को बदलने में
टूट गई अनेक अवयवों में
विस्फोट से केन्द्रक के
उड़ गए परखच्चे
रासायनिक अभिक्रियाओं ने
जीवन मूल्यों से सराबोर अभिकारकों को
उदासीन कर अचानक
परिवर्तित कर दिया लवण और पानी में
कभी जहरीली गैस बन हो गई वाष्पित
और मैं अवक्षेपित हो बैठ गई?
सम गुण धर्मों संग बनी रहूंगी ?
जीवन के आवर्त सारणी में?
तुम्हें पाने की चाहत में ?
या तुमसा बन जाने की ललक ने ?
बदल दिया मेरा स्वरुप
कहाँ मैं मैं रही ?
फिर भी बनना है तुमसा
चाहे टूट जाये मेरी छवि
कहो इसे ललक मेरी
या कह दो महत्वाकांक्षा
23.दिसम्बर 2011
चित्र गूगल से साभार
गंभीर, वैचारिक रस-रसायन.
ReplyDeletebahut umda
ReplyDeleteकहाँ मैं-मैं रही ?
ReplyDeleteफिर भी बनना है तुमसा
बहुत सुन्दर है ये ललक भरी महत्वाकांक्षा.... गहन अभिव्यक्ति के लिए आभार
प्रेम में पूर्ण डूबा हृदय ही ऐसा सोच सकता है .
ReplyDeleteक्योंकि अपनी छवि को मिटा देना इतना आसान नहीं होता पूर्ण समर्पण की आवश्यकता होती है ,खुद को मिटा देने सदृश .
भावों की अभिव्यक्ति की उम्दा प्रस्तुति .
लाजवाब |
ReplyDeleteगहन शब्दों का रासायनिक मिश्रण, बहुत खूब...|
my recent post- "एक महान गायक की याद में..."
आभार...|
राम रसायन तुम्हरे पासा
ReplyDeleteसदा रहो रघुपति के दासा
अद्भुत उपमाएँ .... गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteगहन भाव सुन्दर अभिव्यक्ति... ओणम की शुभकामनायें..
ReplyDeleteबहुत ही शानदार और सराहनीय प्रस्तुति....
ReplyDeleteबधाई
इंडिया दर्पण पर भी पधारेँ।
कविता पढ़ते पढ़ते केमिस्ट्री की क्लास याद आ गयी..शायद किसी और को भी ऐसा लगा हो..विज्ञान और सहित्य का अनोखा मेल..
ReplyDeleteइस केमिस्ट्री को जीव विज्ञानियों की मेथड से समझने की ज़रूरत है।
ReplyDeleteगहन भाव लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति .. आभार
ReplyDeleteबेहतरीन लिखे हैं सर!
ReplyDeleteसादर
इस कविता में गहरे भावों के अतिरिक्त मेरे पहले प्यार (केमिस्ट्री)का ज़िक्र है इसलिए यह कविता मुझे द्विगुणित रूप से भा गयी.. एक बार राहुल सिंह जी ने रसायन शास्त्र के एक विषय पर पोस्ट लिखी थी और आज आपने इसी विषय पर एक कविता लिखी.. बहुत खूब!!
ReplyDeleteसलिल जी,
ReplyDeleteहम दोनों एक ही स्कूल के विद्यार्थी रहे हैं.
ये किस रूप गर्विता की चुनौती है जो मिटने मिटाने को अभिशप्त हो उठी है ?
ReplyDeleteकविता जोरदार है !
तुम्हें पाने की चाहत में ?
ReplyDeleteया तुमसा बन जाने की ललक ने ?
बदल दिया मेरा स्वरुप
कहाँ मैं मैं रही ?
फिर भी बनना है तुमसा
चाहे टूट जाये मेरी छवि
कहो इसे ललक मेरी
या कह दो महत्वाकांक्षा
gahan abhivyakti ....achchhi lagi rachna ...!!
वाह|||
ReplyDeleteगहन भाव लिए शानदार रचना...
:-)
वैचारिक पंक्तियाँ ......
ReplyDeleteगहरे भाव लिए शानदार रचना...!!!
ReplyDeleteमिटे बिन मिलता नहीं कुछ..सुन्दर प्रवाह...
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