उतरकर स्वर्ग से नीचे
जमीं पर पांव धर लो?
सहचरी हो मेरी
मैं जानता हूं तुम्हे
न पूजो मानकर ईश्वर
न बन साधिका तुम विचरो
सृजन संकल्प ले जग का
श्रृष्टि संताप हरने को
भटकती प्रेम की खातिर
धरकर रूप माया का
बन घन आसमां में
नित निज प्रेम पथ पर
जब कभी आसमां से
मिलन के रंग डूबी
वसुधा पर उतरती
विव्हल उन्मुक्त गति ले
बिन बूझे अमंगल को
श्रृष्टि को भाव मंगल से
प्रेम से सिक्त कर जाना
नियति है तुम्हारी
जन्म से तुम मधुर हो
उफनती गिरि धरा से
नदी बन हो तरंगित
सदा मिलने समंदर से
प्रतीक्षा में प्रिय के
संज्ञा शून्य, महा ठगिनी
उद्विग्न और चंचल
कहां फिर जान पाती हो
दिव्य अपनी नियति को ?
गगन से शून्य तक भटकाव
और अस्तित्व के ठहराव में
अम्बर से उतरकर
तुम्हारी मधुरता
विलीन हो जाती है
समुद्र से मिलकर
प्रलय और सृजन का
तुम्हारा चंचल सौन्दर्य
और सम्मोहक भाव देख
थम जाता है काल भी
भर जाता है न खारापन?
प्रलय मैं सह नहीं सह सकता
सृजन तुम कर नहीं सकती
परी सी स्वर्ग से नीचे
जमीं पर पांव मत धरो
विचरो आसमां में तुम
सदा ही आसमां के पास
मैं खुश हूँ
आज भी हर पल
धरा से देखकर तुमको
मेरा सिर गर्व से तना
०६ जुलाई २०१३
मैं खुश हूँ
ReplyDeleteआज भी हर पल
धरा से देखकर तुमको
मेरा सिर गर्व से तना...
बहुत खूब,सुंदर प्रस्तुति,,,
RECENT POST : अपनी पहचान
पुराने प्रेम-पत्र की तरह भावपूर्ण.
ReplyDeleteप्रलय मैं सह नहीं सह सकता
ReplyDeleteसृजन तुम कर नहीं सकती..
मंगलकामनाएं..
प्रलय और सृजन का
ReplyDeleteतुम्हारा चंचल सौन्दर्य
और सम्मोहक भाव देख
थम जाता है काल भी
प्रकृति देवी को समर्पित सुंदर भाव सुमन...
मैं खुश हूँ
ReplyDeleteआज भी हर पल
धरा से देखकर तुमको
मेरा सिर गर्व से तना
बहुत ही भावपूर्ण रचना...
prem ki khushbu se sarabor ..sundar rachna..
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteकल 18/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
यशवंत माथुर जी आपके सहृदयता और ***परी*** को नयी पुरानी हलचल में शामिल करने के लिए आभार
Deleteवाह ; बहुत बढ़िया...
ReplyDeleteबिन बूझे अमंगल को
ReplyDeleteश्रृष्टि को भाव मंगल से
प्रेम से सिक्त कर जाना
नियति है तुम्हारी
ये काम प्रेम का है ... जो रहता है सहचरी के साथ ... जीवन में आता है पल पल ...
भाव मय ...
बहुत सुंदर पंक्तियां ....
ReplyDeleteअच्छी रचना...अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगीं.
ReplyDeleteप्रलय और सृजन ...
ReplyDeleteअति सुन्दर !
अहा! अति सुन्दर काव्य-कृति.. आनंद से अभिभूत हुई..
ReplyDeleteप्रलय और सृजन अदबुद्ध काव्य कृति...आभार
ReplyDeleteनिसंदेह साधुवाद योग्य लाजवाब अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteकिस पारी की बात हो रही है रमाकांत जी ....?
ReplyDeleteबहरहाल शब्दों की अच्छी कलाकारी की आपने ....
आदरणीया हरकीरत * हीर * जी आपने कल्पना और प्रेम को छूने की कोशिश की आपकी पारखी नज़रों को प्रणाम
Deleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबिल्कुलसही बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .....!!
ReplyDeleteशायद पहली बार आना हुआ आपके ब्लॉग में,
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
आभार...