विक्रम ने हठ न छोड़ा
वेताल को कंधे पर लाद
चल पड़ा गंतव्य को
वेताल ने कहा
राजन विचार करके बोलो
संशय, भ्रम, आशंका से
मुक्त हो अब मौन तोड़ो
जाति, धर्म, वर्ग, रंग
समुदाय और वर्ण के भेद से परे
पूर्व प्राप्त परिणामों को
एक नई तुला पर तोलो
बंध जाये रिश्तों की डोर
माँ और बेटी के
पत्नी और प्रेमिका संग
घुलती जाये सुगंध
एक ही व्यक्ति में
पुत्र संग पति
न पड़े गाँठ
न बंटे रिश्ते
पिता और प्रेमी के मध्य
बनी रहे मर्यादा
मान्यतायें वही हों
न टूटे
सामाजिक बंधन या नियम
रीति रिवाज भी बने रहे
निर्वहन हो परम्पराओं का
कभी न पड़े दरार
वर्जनाएं भी रहें बनी
न हों सीमाओं का अतिक्रमण
खरे हों कसौटी पर
अपनी अपनी सार्थकता ले
वेताल ने कहा
राजन स्मरण रखो
पिता की छाया
प्रेम और स्पर्श पति का
पुत्र का अगाध स्नेह
त्याग प्रेमी का
बने दृढ़ आलिंगन
पत्नी का प्रेम और समर्पण
माँ की विशालता में
हो जाये तिरोहित
बेटी का रुदन
बिंध जाये हृदय में
और पथ निहारे
प्रेयसी बन?
अनजाना, अपरिचित, अपरिभाषित?
सरोकार या लगाव ?
अथवा कह दोगे समर्पण?
क्रमशः
31.10.2007
वेताल को कंधे पर लाद
चल पड़ा गंतव्य को
वेताल ने कहा
राजन विचार करके बोलो
संशय, भ्रम, आशंका से
मुक्त हो अब मौन तोड़ो
जाति, धर्म, वर्ग, रंग
समुदाय और वर्ण के भेद से परे
पूर्व प्राप्त परिणामों को
एक नई तुला पर तोलो
बंध जाये रिश्तों की डोर
माँ और बेटी के
पत्नी और प्रेमिका संग
घुलती जाये सुगंध
एक ही व्यक्ति में
पुत्र संग पति
न पड़े गाँठ
न बंटे रिश्ते
पिता और प्रेमी के मध्य
बनी रहे मर्यादा
मान्यतायें वही हों
न टूटे
सामाजिक बंधन या नियम
रीति रिवाज भी बने रहे
निर्वहन हो परम्पराओं का
कभी न पड़े दरार
वर्जनाएं भी रहें बनी
न हों सीमाओं का अतिक्रमण
खरे हों कसौटी पर
अपनी अपनी सार्थकता ले
वेताल ने कहा
राजन स्मरण रखो
पिता की छाया
प्रेम और स्पर्श पति का
पुत्र का अगाध स्नेह
त्याग प्रेमी का
बने दृढ़ आलिंगन
पत्नी का प्रेम और समर्पण
माँ की विशालता में
हो जाये तिरोहित
बेटी का रुदन
बिंध जाये हृदय में
और पथ निहारे
प्रेयसी बन?
अनजाना, अपरिचित, अपरिभाषित?
सरोकार या लगाव ?
अथवा कह दोगे समर्पण?
क्रमशः
31.10.2007
घबरा कर तुम्हे मैंने बार-बार फूलपाश में जकड़ना चाह है
ReplyDeleteसखा-बन्धु-आराध्य
शिशु -दिव्य-सहचर
और अपने को नई व्याख्याएं देनी चाही हैं
सखी-साधिका-बांधवी-
माँ -वधु सहचरी
तुम आखिर हो मेरे कौन
धर्मवीर भारती की "कनुप्रिया" से साभार
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ReplyDeleteविक्रम और वेताल के माध्यम से ज़िन्दगी का पाठ सिखाती रचना. वेताल के इन प्रश्नों का जवाब किसी विक्रम के पास नहीं, फिर वेताल जा पहुंचेगा पेड़ पर. शुभकामनाएँ.
ReplyDeletemultidirectional.......but all in one....
ReplyDeleteवर्जनाएं भी रहें बनी
ReplyDeleteन हों सीमाओं का अतिक्रमण
खरे हों कसौटी पर
अपनी अपनी सार्थकता ले
सच है ..... मान्यताएं बनायें रखनी हैं तो ये भी होना ही चाहिए ....
बहुत खूब ..कुछ नया पढ़ने को मिला यहाँ.
ReplyDeleteविक्रम और वेताल का, ये सुंदर किस्सा
ReplyDeleteसवाल जबाब बन जाती,पश्नों का हिस्सा,,,,,
सुंदर प्रस्तुति,,,बधाई रमा कान्त जी\\\
संबंधों पर समग्र दृष्टि.
ReplyDeleteअति सुंदर।
ReplyDelete............
International Bloggers Conference!
बहुत सुंदर वेताल कथा
ReplyDeleteकथा के माध्यम ने एक जगह सबकुछ समेट दिया ... काश , विक्रम को पढनेवाले बेताल न बनें
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति..कुछ अलग सी !
ReplyDeleteइतने कठिन विकल्प...विक्रम के जवाब का इंतज़ार .
ReplyDeleteअनूठी / संतुलित प्रस्तुति.
गहनता से कही बात .... विक्रम बेताल का संवाद अच्छा लगा
ReplyDeleteवर्जनाएं भी रहें बनी
ReplyDeleteन हों सीमाओं का अतिक्रमण
खरे हों कसौटी पर
अपनी अपनी सार्थकता ले
bahut hi khubsurat sandesh deti rachna...
लोककथा के पात्रों द्वारा आपने समय के संबंधों को बखूबी व्याख्या की है।
ReplyDeletelazabab......
ReplyDeleteअपने प्रवाह में बहा कर अवाक करती रचना..अच्छी लगी..
ReplyDeleteअब आई विक्रम की बारी. देखेंगे विक्रम क्या कहता ई या करता है?
ReplyDeleteअद्भुत ...!!
ReplyDeleteविक्रम बैताल पर इतनी लम्बी कविता ....?
और अभी भी क्रमश :
आपमें एक जूनून है ....
समर्पण की सुंदर व्याख्या और चिंतन. बढ़िया कविता.
ReplyDeleteसही सवालों के सही जवाब।
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