कभी मेरी सहेली बनकर
यदा-कदा पहेली बनकर
महानदी की धारा में
लहरों संग भंवर बन
मुखरित हो जाती हो
मैकल पर्वत श्रृखला सी
फैलकर ढलान में भी
एक दुसरे से सटकर
सम्मोहित कर जाती हो
और तुम कभी-कभी
गज गामिनी बन
निर्जन वन में विचरते
अपने ही सपनों के
कोमल कोपलों को
तोड़-मरोड़
रौंद-रौंद जाती हो?
क्यूं हिमखण्ड सी
विगलित शिखर में हो
अपना ही आंगन
बहा ले जाती हो
कभी-कभी
टूटता है धैर्य तुम्हारा?
पवन की तरलता ले
स्वच्छंद उच्श्रृखल बन
अपने मंद झोंकों से
खुद का वजूद
शून्य में
छिन्न-भिन्न कर जाती हो
कभी सघन घन बन
पर्वत शिखर के
गिरि कंदराओं को भी
सिक्त कर जाती हो
ये विस्तार तुम्हारा
अथाह समुद्र सा
दूर-दूर तलक
और सिमटना कभी
सीप में मोती सा
कभी बदलना
स्वाति नक्षत्र के अमृत में
किसकी प्रतीति?
तब तुम्हें पाकर भी
बूझ नहीं पाता
फिर हर एक शै में
तेरा ही भ्रम
क्यूं हो जाता है?
और मैं यह कभी
जान ही नहीं पाया
तुम मेरी कौन हो?
14.07.2012
चित्र गूगल से साभार
अनजाने-सुहाने रिश्ते.
ReplyDeleteसहेली पहेली सी... कुछ रिश्ते ऐसे ही होते हैं...
ReplyDeleteसिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो.....कोई नाम ना दो
बहुत खूबसूरत अहसास... आभार
कुछ रिश्ते ऐसे होते है
ReplyDeleteजो अहसास से जुड़े होते है
भावनाओ से बंधे होते है
सुन्दर अहसास लिए कोमल भाव
व्यक्त करती रचना:-)
क्यूं हिमखण्ड सी
ReplyDeleteविगलित शिखर में हो
अपना ही आंगन
बहा ले जाती हो
बहुत उम्दा....
सुन्दर अहसासों का समुन्द्र समेटे,किसी हिमखण्ड सा शीतलता लिए खुबसूरत सी अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteऔर मैं यह कभी
ReplyDeleteजान ही नहीं पाया
तुम मेरी कौन हो?
अभिनव सोच
.एक भेद की बात बाबूसाहेब उपरोक्त प्रश्न अक्सर तब पूछा जाता जब जवाब मालूम हो
तब तुम्हें पाकर भी
ReplyDeleteबूझ नहीं पाता
फिर हर एक शै में
तेरा ही भ्रम
क्यूं हो जाता है?
और मैं यह कभी
जान ही नहीं पाया
तुम मेरी कौन हो?
अनुपम भाव संयोजित किए हैं आपने ..आभार
सुन्दर एहसास....
ReplyDeleteअनुपम प्रस्तुति .....
सादर
अनु
आपकी लेखनी से जो निकलता है वह दिल और दिमाग के बीच खींचतान पैदा करता है। बिल्कुल नए सोच और नए सवालों के साथ समाज की मौजूदा पहेलियों (जटिलताओं) को उजागर किया है ।
ReplyDeleteआज तो आपकी कविता अप्रतिम है..
ReplyDeleteशब्द ढूंढ रही हूँ कि क्या कहूँ !
सादर
सुन्दर भाव में पिरोई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
बेहतरीन:-)
सुन्दर भाव में पिरोई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
बेहतरीन:-)
उत्कृष्ट लेखन ....
ReplyDeleteभावों की सुंदर अभिव्यक्ति ......
कभी मेरी सहेली बनकर
ReplyDeleteयदा-कदा पहेली बनकर
वाह ...पहेली सी सहेली ..!!
सुंदर रचना ..!!
कभी सघन घन बन
ReplyDeleteपर्वत शिखर के
गिरि कंदराओं को भी
सिक्त कर जाती हो
ये विस्तार तुम्हारा
अथाह समुद्र सा
दूर-दूर तलक
और सिमटना कभी
सीप में मोती सा
कभी बदलना
स्वाति नक्षत्र के अमृत में
वाह ! बहुत सुंदर पंक्तियाँ और अनुपम भाव !
'और सिमटना कभी
ReplyDeleteसीप में मोती सा
कभी बदलना'
--
क्यूं हिमखण्ड सी
विगलित शिखर में हो
अपना ही आंगन
बहा ले जाती हो
--
वाह!बेहद खूबसूरत पंक्तियाँ !
यह एक उत्कृष्ट रचना पढ़ी आज. अति सुन्दर .बधाई!
बेहद खूबसूरत लिखा है..सोच को एक राह दिखाती हुई..
ReplyDeleteतब तुम्हें पाकर भी
ReplyDeleteबूझ नहीं पाता
फिर हर एक शै में
तेरा ही भ्रम
क्यूं हो जाता है?
और मैं यह कभी
जान ही नहीं पाया
तुम मेरी कौन हो?.....
रमाकांत जी ये जानने की नहीं महसूस करने की चीज है .....:))
मेरा कमेन्ट दिखाई नहीं दे रहा ?स्पैम में तो नहीं चल गया?
ReplyDeleteकुछ रिश्ते ऐसे ही होते हैं...
ReplyDeleteसिर्फ अहसास कराते है .....उनका कोई नाम नही होता ,,,,,
RECENT POST ...: आई देश में आंधियाँ....
क्यूं हिमखण्ड सी
ReplyDeleteविगलित शिखर में हो
अपना ही आंगन
बहा ले जाती हो
...... खूबसूरत पंक्तियाँ !
बहुत सुन्दर कोमल एहसास सुन्दर शब्द संयोजन की माला में गुंथी हुई प्यारी रचना बहुत पसंद आई
ReplyDeletebahut hi bhawpurn ahsas..
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