एक पुरानी लाइन याद आ गई
मैं रिश्तों को जीता हूँ ,,,, मैं रिश्तों में जीता हूँ।
मैं रिसतों में जीता हूँ ..... मैं रिसतों को जीता हूँ ।।
रिश्ते झेल नहीं पाओगे तो सांसों का थम जाना स्वाभाविक है ।
सांसें चाहे अपने स्वजन की थमें या हमारी थम जाएं ।
जीवन में चारों पुरुषार्थों में प्रथम पुरुषार्थ का सदैव सम्मान करें ।
आप यदि मोक्ष चाहते हैं तो, अन्यथा हमारी हैसियत बिना अर्थ के
उन लोगों के सामने जो हमारे ही अधीन हमारे ही हाथों में होते हैं , गली के खसुआये कुत्ते की तरह होती है,
एक उम्र के बाद अपनी जगह बनाने के लिए दृढ़ता पूर्वक निर्णय लें
बीती बातें, हैसियत, लेन देन सम्बन्ध आएंगे आड़े.... !
थोड़ा भूलें थोड़ा आड़ लें और कर जाएं थोड़ी मनमानी
कर लें थोड़ी सी धूर्तता......
अन्यथा आप बैठे रह जाएंगे खरताल बजाते और साथ के लोग
आपको बहैसियत बामुलाहिजा बैकुफ घोषित कर देंगे ।
कौन क्या सोचता है थोड़ा भूलना सीखिए...
आप राम बनें या कृष्ण या बन जाएं बुद्ध संग मीरा....
मैं आपको आलोचना से पाट दूंगा,
जबकि मैं हूँ ही आपसे...
नियति के पार कुछ भी नहीं
यदि आपको लगे कि उचित है तो अपने स्वजन की चलती सांसों की डोर को काटने में न हिचकें
न हम..... कर्ता हैं .....न कारण
निर्णय न ले सकें अपने पुत्र के हाथों को जीवन रक्षार्थ कटवाना तो
हाथ न बढ़ाये उसके पालन पोषण में ...न ही उसके संवर्द्धन में
जरूरी नहीं आपका निर्णय युगों तक याद रखा जाए
किंतु मनमानी तो कदापि नहीं, चाहे आपकी या स्वजन की ...
बस यूं ही बैठे-ठाले
18 मार्च 2024
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