गुरुकुल ५

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Sunday, 18 December 2011

जीना सिखलाएं

प्रत्येक माता-पिता अपनी संतान को अपनी सोच अनुसार अपनी संतान की क्षमता से भी ऊपर ले जाकर शिक्षित करने एवं योग्य बनाने में परम आनंद का अनुभव करते हैं। इस आनंद की प्राप्ति में हम अपने सुखों का त्याग करते हैं, और अनेक कठिनाइयों एवं आलोचनाओं के साथ प्रतिकार का सामना करते हैं। जीवन के इस आपा-धापी में हर पिता अपनी संतान को अपने समकक्ष खड़ा पाता है। पिता पीछे मुड़ कर निहारता है, कहीं उसके जिम्मेदारियों के निर्वहन में कुछ छूट तो नहीं गया, क्या उसने वर्तमान में अपेक्षित मापदंडों को स्पर्श किया? हम विचार करते हैं कि मेरे माता-पिता ने जिन जीवन आदर्श मूल्यों को अपनी क्षमता में मेरे लिए तय किये थे मैंने उसको पूर्ण किया या नहीं। क्या मैं भी कर्तव्य निर्वहन के उस श्रेणी में आ पाया?

यदि हम मध्यमवर्गीय परिवार की संतान हैं तो यहाँ परेशानियाँ और अभाव ही हमारे रिश्‍तेदार और संगी रहते हैं। हमारे माता-पिता द्वारा हम सभी के समग्र विकास का प्रयास किया जाता है और इसी कालक्रम में माता-पिता का साथ भी छूटता चला जाता है और असीम संभावनाओं को साथ लेकर हमारा युवा मन खुले आसमान में सूर्य के घोड़े पर सवार हो निकल़ पड़ता है, प्रकाश की गति से भी तेज, निरंतर।

समय बीता और समय के संग हम खड़े हो गये अपने माँ-बाप के स्थान पर, जूझना शुरू कर दिया, मन विचार करने लगा कि हम कितना समय निकाल पाये अपने संतान के परवरिश में। शुरू हो गई हाथी और अंधों की कहानी, जिसे पूंछ मिली उसने कहा रस्सी, जिसने छुआ पेट उसने कहा संदूक, जिसने पाया पैर वह कह उठा खम्भा और जिसके हाथ लगा कान, वह चिल्ला उठा अरे नहीं हाथी बिल्कुल सूपा जैसा है। बस हम भी प्रयास करते हैं उन्हें जीवन के सार को समझाने का, जो हमारे सोच-विचार अनुसार सही लगता है। इसी कालक्रम में हम भी प्रतिदिन कुछ नया करने की चाह में व्यस्त रहे, और कुछ चाही-अनचाही स्थिति के कारण अपेक्षित फल को सफल बनाने में हम भी अशक्त होते चले जाते हैं, और फंस जाते हैं 99 के चक्कर में। अपनी इस सोच के कारण ही शायद हम जीवन के आनंद का सत्यानाश कर देते हैं, आज मैं अपनी संतान को क्या सिखलाऊँगा? और विचारों की पूर्णता-अपूर्णता, अपेक्षित-अनपेक्षित की सोच में कभी-कभी हम हताश और निराश भी हो जाते हैं।

मैं ऐसा मानता हूँ कि बच्चों की परवरिश में घर के पुरुष का निसंदेह महत्वपूर्ण योगदान होता है, किन्तु माँ, बहन, बेटी, चाची, नानी, दादी, बुआ, मौसी का भी महत्वपूर्ण स्थान उनके परवरिश में होता है और संयुक्त परिवार में यही दायित्व उसकी परिधि में रहने वाले अन्य रिश्‍तेदारों का भी बन जाता है, मैं निःसंतान हूँ, अतः इन दायित्वों के निर्वहन में मुझसे अनेक गलतियाँ हुई, किन्तु माताश्री एवं बहनों के संयुक्त अद्‌भुत योगदान के कारण बच्चों के व्यक्तित्व में नये आयाम ने पाँव पसारे, कुछ धनात्मक और बहुत सारे ऋणात्मक। परिवार में शानू (युवराज सिंह) का जन्म हुआ। शानू मेरी भान्जी का लड़का है, शनैः-शनैः उसका व्यक्तितव नये ढंग से संवरकर मेरे सामने आया। मुझे सदैव यह भ्रम बना रहा कि, यह सब करिश्‍मा मेरे व्यक्तित्व के कारण हुआ। मैं भी दुनिया के अन्य पिता/पालक की भांति खुद ही अकेले में अपनी पीठ थपथपाकर खुश होकर शाबासी ले लेता हूँ। अन्य बच्चों की भांति शानू का पालन पोषण भी जीवन का एक अनिवार्य दायित्व बनता गया जिसे मैंने कभी बड़ी गंभीरता से नहीं लिया। मेरी व्यक्तिगत सोच है कि यदि उसके भाग्य में नेक प्रतिभावान इंसान बनना लिखा है तो उसे ईश्‍वर का आशीर्वाद प्राप्त होगा और कोई भी अवरोध उसके मार्ग में नहीं आयेगा। मैं इतना महान इन्सान नहीं कि मुझे उसके भाग्यविधाता बनने का गौरव प्राप्त हो।

एक शिक्षक होने के नाते मैंने अपने अध्यापन के 37 वर्षो में यह पाया कि अपनी-अपनी प्रतिभा के बल पर मेरे पढ़ाये कुछ बच्चे समाज में डॉक्टर, इंजीनियर, डिप्टी कलेक्टर, रेन्जर, अधिकारी, शिक्षक आदि पदों पर सम्मान पा रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर एक सिरे से कुछ विद्यार्थी फेल होकर गाँव में गाय, बैल भी चरा रहे हैं। यदि इन स्थापित बच्चों के कारण मैं कहीं गर्व अनुभव करता हूँ तो कभी-कभी इन अनुत्तीर्ण बच्चों के कारण मुझे आत्मग्लानि भी होती है। मैं इन अनुत्तीर्ण बच्चों की जिम्मेदारी भी लेता हूँ, शायद मेरे समर्पण, निष्ठा, सेवा, त्याग और परिश्रम में कहीं कमी रह गयी, जिसका खमियाजा इन बच्चों को फेल होकर चुकाना पड़ा। विद्यालय में अध्यापन कार्य के साथ-साथ कई अन्य दायित्वों का पालन किया जाता हैं। स्वाभाविक है शरीर थक जाता है किन्तु घर आने पर जैसे ही शानू दौड़कर मुझसे लिपटता है उसे छूकर अपनी पूरी थकान भूल जाता हूँ, तुरन्त नयी ऊर्जा नये उत्साह से भर जाता है। मैं पूरा स्नेह उड़ेल देता हूँ उसके 90 प्रतिशत जायज-नाजायज मांगों को बिना परवाह किये पूरा करता हूँ। मैंने प्रयास किया उसे किसी चीज की कमी न रह जाये जो मैंने बचपन में न पाने पर महसूस किया। आज उसे मिले ही, कल नहीं था, न परिस्थितियां थी, जिसके कारण हमें मिला नहीं, न ही वे लोग थे जो हमारे बारे में सोचते। आज है, जी भरकर मैं आनंद लूंगा अपने बुढ़ापे में उसका बचपन जी कर। हर पिता की भांति मेरी भी यही चाह है कि वह पूर्ण पुरूष बने जिस पर हम सबको गर्व हो।

हम प्रयास करें कि बच्चे को विकास के लिए पूरा अवसर और स्थान मिले जहां उसका व्यक्तित्व पल्लवित हो लेकिन कभी-कभी ऐसा भी महसूस करता हूँ कि हमारा लाड़ प्यार उसे थोड़ा सा बिगाड़ देता है। शायद यह उसके व्यक्तित्व का अनोखा हिस्सा हो जिसे लोग बिगाड़ समझ रहे हैं, वहीं कल उसका कवच-कुण्डल बने। शायद तब कोई शस्त्र उसे भेद नहीं पाये। मैं समझता हूँ कि मेरे द्वारा अख्तियार किया गया मार्ग बेहतर है, लेकिन यह मानने में भी कोई संकोच नहीं कि इससे बेहतर कोई राह नहीं हो सकता। इस सीखने-सिखाने के सफर को ज्यादा बोझिल करना उचित नहीं होता। बच्चे को हर हाल में अवसर मिले बढ़ने का अपनी जड़ें जमाने का, कोई पिता या पालक अपनी सोच को कहीं लिखकर या क्रियान्वित करके अपने दायित्वों की इति नहीं कर डालता, सबके लिए नियम है? मैंने कभी बच्चों को यह नहीं सिखलाया कि विषम परिस्थितियों में वह दूसरों का मुँह ताके अथवा अपनी बारी का इंतजार करें। उसे इस कदर सांचे में ढालने का प्रयास किया है कि वह अपना स्थान स्वयं सुनिश्चित करें। अवसर दिया गया कि वह निर्भीक बनें।

युवराज जन्म से ही अन्य बच्चों की भांति दयालु, व्यवहार कुशल और जिज्ञासु है। बाकी सभी बातें समय के साथ-साथ अच्छी संगत में अपने आप सीखता चला जायेगा। आप अपने बच्चे को उनलोगों से प्रतिदिन मिलवायें जिन्हें आप सम्मान देते हैं, जो आपसे हजार गुना प्रतिभाशाली हैं, जिनके व्यवहार, आचरण, निष्ठा, कार्य कुशलता, नियम, और जीवन शैली आदि का लोहा उसके विभाग के लोग ही नहीं समाज के लोग भी मानते हैं, जिससे यही गुण उनके अद्‌भुत व्यक्तित्व का हिस्सा बने ऐसे लोगों का आशीर्वाद उसे सदैव प्राप्त हो। यह उनके व्यक्तित्व में समय-समय पर झलके। ऐसे ही लोगों के आशीर्वाद ने मुझे आश्‍वस्त कर दिया है कि आने वाले समय में वह अपने अस्तित्व की रक्षा करने में सक्षम रहेगा, कोई भी व्यक्ति उसे नपुंसक की संज्ञा से नवाजने के पहले एक हजार बार सोचेगा। बीते कुछ वर्षो में मेरे द्वारा उसके लिए कोई ऐसा कार्य नहीं किया गया जिसका मुझे पछतावा हो। जिसने उसके व्यक्तित्व के विकास को अवरूद्ध किया हो। इस संसार में कोई भी व्यक्ति अमर नहीं होता। कल मैं भी मरूंगा। मेरी आंख बंद होने के पहले वह इतना स्वावलंबी बन जाये कि लोग उसे अपना सहारा बनाने में गर्व अनुभव करें। यहाँ पुनः एक बार कहना चाहूँगा कि मेरा जीना या मरना उसके व्यक्तित्व के विकास में न सहायक है न बाधक। लोग उससे प्यार करते हैं उसे वो सब मिल जाता है जिसकी उसे जरूरत है बस यह मेरा भ्रम है कि मैं कहीं हूँ, जिसमें जीकर मैं खुश हो जाता हूँ।

आज हर जगह आरोप-प्रत्यारोप का दृश्‍य देखकर मुझे अत्यन्त निराशा होती है, ऐसी स्थिति में मैं संतुष्ट होता हूँ कि मैंने सदैव बच्चों को देश के प्रति समर्पित होने के भाव और निष्ठापूर्वक अपना कार्य शतप्रतिशत क्षमता में पूर्ण करना सिखलाया। यदि बच्चे खुद को प्यार करना सीख गये, तब वे दूसरों से भी प्यार करना सीख जायेंगे। जो बच्चा अपना आदर करेगा, वह अपने साथ-साथ दूसरों के भी सम्मान की रक्षा करेगा। राष्ट्र से व्यक्ति और व्यक्ति से ही राष्ट्र बने। यदि लोग मुझे मेरे मरने के बाद शानू के रूप में या मेरे पढ़ाये बच्चों के रूप में याद करते हैं तो मुझे अपने जीवन की सार्थकता पर थोड़ी सी सन्तुष्टि होगी।

कभी-कभी मन दुखी हो जाता है कि हम किन लोगों के दिशा निर्देश पर कार्य कर रहे हैं, जिन्हें चोर कैसे कहा जाए, लेकिन उन्हें साहूकार भी कहना उचित नहीं होगा। कितने ऐसे लोग हैं जिनकी निष्ठा एवं समर्पण पर हमें कभी अफसोस न हो, शायद ये लोग गिनती पर होंगे जिनकी निष्ठा पर कोई प्रश्‍न चिन्ह नहीं है। आज बच्चों को कुछ सिखलाने के पूर्व एक हजार बार सोचना आवश्‍यक हो गया है कि उसे किस क्षेत्र में उसे डाला जाय जहाँ अपराधियों एवं भ्रष्ट लोगों की दखलंदाजी न हो। जिस गली-कूचे, शहर को हम प्यार करते हैं, उसके स्वरूप को इन सज्जनों ने इतना रौंद दिया है कि उसका स्वरूप ही अजनबी लगने लगा है। बस मैंने कोशिश की है कि बच्चा उन गलियों में पूरे आत्मविश्‍वास के साथ निर्भीकता से गुजरे।

बच्चों का दिन भर खेलना और पढ़ना, खेल में सदा कुछ न कुछ बनाना, उनका कभी न थकने वाला क्रम होता है। शानू नये खिलौने को तोड़कर उसे भी नया बनाने का प्रयास करता है। शिक्षा में गणित का नया जोड़-घटाव समझ में आया। नये मित्र बने, नये रिश्‍तेदारों से मुलाकात हुई जिन पर आज अभिमान किया जा सकता है । जीवन का महत्वपूर्ण पल हाथों से छूटा तो बहुत कुछ सीखने को भी मिला। मैंने कोशिश की कि इन सबको उड़ेल दूं बच्चों में गाहे-बगाहे प्रार्थना, राष्ट्रीय पर्व, अध्यापन काल, पौधा रोपण अथवा मध्यान्ह भोजन के समय भी प्रतिदिन कुछ ऐसी बातें कह जाता हूँ, जिनके पालन में विद्यार्थियों को थोड़ी कठिनाई होती है, किन्तु इन वर्षो में कभी भी किसी बच्चे ने इनकार नहीं किया। बच्चों के चेहरे पर झलकने वाला आत्मविश्‍वास मुझे असीम शांति और आनंद देता है। किसी पुरस्कार की अपेक्षा में कार्य नहीं करना चाहिए, ऐसा भी नहीं कि प्रशंसा और पुरस्कार अच्छे नहीं लगते। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्‌' का भाव बच्चों में बचपन से ही आरोपित होना चाहिए गौण वस्तुओं की चिन्ता व्यर्थ है। उन्हें जीवन मूल्यों से इतना सराबोर कर दो कि उन्हें किसी पुरस्कार की परवाह न हो। क्योंकि ये पुरस्कार और कागजी उपलब्धियां आज बिकाऊ हो गये हैं इनकी कीमत हर जगह अलग-अलग है। कुछ मिल जाते हैं अधिकारियों के पैर छूने से, तो कुछ मिल जाते हैं उपहार ले जाने से, और जो नहीं मिल पाये उसके लिए थोड़ा शरीर दिखलाकर प्राप्त किया जा सकता है। तब यह सब कुछ खोखला लगता है। तब मैं बच्चों के लिए गुनगुना उठता हूँ:-

खुदी को कर बुलन्द इतना, कि हर तदबीर से पहले
खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है?

आज कला, संगीत, शिक्षा, खेल आदि सब में उपलब्धि का आकलन उससे प्राप्त धन से किया जा रहा है। प्रतिभा का आकलन उसके गुणों से कम धन से ज्यादा किया जा रहा है और कभी-कभी हम स्वयं भी अपना आकलन अपने जेब के वजन से करने लगते हैं, तब मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हम सब आज कुबेर के नौकर नहीं चोबदार बन गये हैं। मेरे पिताजी ने सदैव मुझे यह सिखलाया कि जीवन में धन आवश्‍यक है जीवन-यापन के लिए, किन्तु धन ही सब कुछ नहीं है। भले ही पुरूषार्थ का प्रथम चरण अर्थ है किन्तु अंतिम चरण मोक्ष ही है। धन पर आश्रित होकर जीवन मूल्यों को त्यागकर जीवन जीना शालीनता की श्रेणी में कैसे कहा जा सकता है? विद्यालय के बच्चों में मैंने यहीं सतत्‌ आरोपित करने का प्रयास किया और शानू भी इससे अछूता नहीं रहा। मैं आज गर्व करता हूँ उसके गड़रिएपन पर कि उसे यह मालूम नहीं कि सौ का नोट मूल्य में एक रूपये के सिक्के से ज्यादा मूल्यवान है। आज भी वह सौ के नोट पर एक रूपया के सिक्के को भारी समझता है। यही भोलापन उसे राजा भोज के राज्य का चरवाहा बनाता है और मेरा परम शिष्य।

एक समय था जब गांधीजी ने लोगों को नशा मुक्ति का संदेश दिया। आज हम बच्चों को संदेश दें विवकेशील होकर जीवन जीने का। शायद यह भी नशा मुक्ति का संदेश हो। विद्यालय और घर में नशा को प्रतिबंधित रखें, आज शानू यह बतलाता है कि नशा बुरी बात है। जब कभी हम दवा दारू या शराब की बातें करते हैं वह घर को सिर पर उठा लेता है, शायद उसे ईश्‍वर ने जन्म से ही नशे के दुष्‍प्रभाव को बतला दिया है। ईश्‍वर को मेरा प्रणाम। क्यों नहीं सिखलाएं कि किसी भी व्यक्ति या राष्ट्र के विकास और विनाश में नशा ही महत्वपूर्ण स्थान बन गया है, आप भी मानते हैं कि नशा ने युवा वर्ग को दिग्भ्रमित और पंगु सा बना दिया है। कल तक जिन आदर्श, जीवन मूल्यों की रक्षा की खातिर हम अपना सर्वस्व त्याग देते थे वह आज सब बदलता चला जा रहा है। विचारणीय प्रश्‍न बन गया है। कल तक हमारे बुजुर्गो ने जिन अवगुणों को त्यागने की बात कही थी, वे आज प्रथम स्थान पर मुँह चिढ़ाते खड़े है जिन विचारों का कल तक घोर विरोध किया जाता था, आज उन्हीं तथाकथित विचारों अवगुणों को गुण में निरूपित कर नये समाज की नींव रखी जा रही है। हम सिखलाएं, अच्छा कार्य करने के लिए समय निकालें न कि जनहित को आहत करने वाले। किसी आदर्श की कल्पना में जीवन नहीं बिताया जा सकता, किन्तु किसी गलीज चीज को भी जीवन में महत्वपूर्ण स्थान नहीं दिया जाना चाहिए।

वर्तमान समाज में रावण का भाई कुबेर ही आदर्श पुरूष बन बैठा है, हमारे आदर्श, हैसियत, व्यक्तित्व यहाँ तक कि हमारी सफलता का आकलन भी हमारे धनी होने से नाप-तौल दिया जाता है। सब लोग यह जानना चाहते हैं कि हमारे पास क्या है? हमने कितना बटोर रखा है। भले ही लोग यह जानना चाहते हैं कि कौन क्या करता है? और कल वह व्यक्ति क्या करेगा? इसके साथ ही कल क्या कर सकता है? किन्तु ये सभी बातें बच्चों के लिए न कल मायने रखती थीं, न आज किसी महत्व का है। शायद किसी बच्चे को इन सब महत्वहीन बातों से कोई लेना-देना नहीं और उन्हें अवगत भी क्यों कराया जाय? इन महत्वहीन बातों से, क्योंकि जीवन में शायद महत्वपूर्ण है प्रेम, दया, सहानुभूति, ममता, सहयोग, सानिध्य, आनंद जो जीवन का मूल आधार है।

युग परिवर्तन के साथ अवतारों का मुखौटा बदल सकता है और क्रमिक काल में शायद हम भी बदलते हुए मुखौटों से अछूते न रहें, बच्चों को यह सिखलाएं कि वे अपना जीवन बड़ी सादगी से बिना मुखौटे के जिएं, हो सकता है धन के कारण हमें परसु, परषोत्तम या परसुराम की संज्ञा मिले किन्तु किसी भी युग में धन का महत्व सर्वोपि‍र नहीं रहा। आज मन डोलता है बच्चों को क्या सिखलाएं? बच्चों को सिखलाएं, वह हर हाल में खरा उतरे? वह जिस दुनिया में साँस ले रहा है वहाँ वह विषमताओं से सामना कैसे करेगा? आने वाले समय में वह सर्वश्रेष्ठ ही बना रहे? उसे जीवन जीने की कला में माहिर करें कई महत्वपूर्ण और गूढ़ प्रश्‍न हैं? उन्हें क्या सिखलाया जाय? सब से ज्यादा महत्वपूर्ण किसे कहें? क्या हम बच्चों को यह सिखलाएं कि जीवन में सफल होने के लिए किस गलत विद्या का प्रयोग करें, अपने लक्ष्य को पाने के लिए लोगों से धोखाधड़ी कैसे करें? क्या हम अपनी ही संतान को सिखला दें कि धनवान बनने के लिए वह किन आदर्शों, जीवन मूल्यों, नैतिकताओं की हदों को पार कर माता-पिता और पूर्वजों का नाम डुबाएं और इन सबसे ऊपर अपने अस्तितव की रक्षा में अपनी मौलिकता को बचाकर किन मानदंडों को जीवित रखे, किसे अपनाएं?

क्या सिखला दें बच्चों को अति आदर्शवादी बनना। जब वह समाज में खड़ा हो तो उसे मां की पेट से पैदा हुआ मूर्ख साबित होना पड़े। मैं भक्त हूँ उस महापुरूष का जिन्होंने कहा है कि श्रेष्ठ उद्‌देश्‍यों की प्राप्ति के लिए गलत रास्ते भी सही है। मैं बच्चों को लक्ष्य तक पहुँचाना चाहता हूँ चाहे वे पहाड़ लांघ कर जावें या उफनती नदी तैरकर। बस उन्हें पाना है अपनी मंजिल। हम बच्चों को एकमात्र जीना सिखलाएं। वे जीना सीख गये तो समय उन्हें अपने आप सब कुछ सिखला देगा। तब न मैं होऊँगा और न आप। रामराज्य की कल्पना/इच्छा राजा दशरथ की थी किन्तु जब रामराज्य की स्थापना हुई तो दशरथ जी नहीं थे, इसके बाद रामचरितमानस में लखन का त्याग, सीताजी का वाल्‍मीकि आश्रम में लव-कुश संग रहना, अश्‍वमेध यज्ञ और पिता के यज्ञ को चुनौती देना आप स्वयं जानते हैं। बस तब ये भावी पीढ़ी जो भी रास्ता अपनाएंगे, वही सही होगा। हम जब तक जीवित हैं तब तक ही हमारे रास्ते, हमारे ढंग, विचार, मूल्य, नैतिकता, जीवनदर्शन का महत्व है। मैंने यह देखा है कि किसी महान व्यक्ति के मृत्यु के बाद उसके मूल्यों की कैसी धज्जियाँ उड़ती है। यह किसी व्यक्ति को समझाना आवश्‍यक नहीं। बस आने वाली पीढ़ी जीवित रहे फिर काल, परिस्थिति, पात्र, देश अनुसार उनके मूल्य भी मूल्यवान बनते चले जाएंगे या बनाये जा सकते हैं, जीना सिखलाएं साथ ही जीवन मूल्यों के साथ जीवित रहना।

सीखने के लिए अति आवश्‍यक हो जाता है कि सर्वकालिक, सार्वभौमिक, सर्वसुलभ, सर्वग्राह्य, और सर्वमान्य मूल्य क्या हैं? जिन्हें आधार मानकर सिखलाया जाए। निर्मल ज्ञान ग्रहण करने के लिए निर्मल मन और सुपात्र, कौन होगा?, केवल बच्चों में। उनका मार्गदर्शन करें। आने वाले समय में बच्चे अपना मार्ग स्वयं चुनेंगे, खुला आसमान उनका स्वागत करेगा, जहाँ वो पंख लगाकर उड़ेंगे, सीखेंगे, शून्य में गोता लगाना और जब धरती पर उतरेंगे तो लोग उसे देखकर मंत्रमुग्ध हो जायेंगे।

अंत में एक महत्वपूर्ण बात भी सोचता हूँ कि बच्चों को सिखलाने वाला किस श्रेणी का है? वह कितना निर्मल है, कितना पवित्र है, किस भाव से अपने ज्ञान को बिना किसी अपेक्षा के निर्विकार बांट रहा है, सिखलाने वाला सीखने वाले की तुलना में योग्य है अथवा नहीं। यदि अयोग्य गुरू सिखलाएगा तो जीवन कितना उपयोगी सिद्ध होगा, जीवन जीने की कला कैसे होगी तब जनकल्याणकारी अथवा ... ... ...

फिर भी आशा ही जीवन में सुखों का संचार करती है। बच्चों को कैसा भी सिखलाएं बस जीना ही सिखलाएं, फिर समय सिखलाएगा सही या गलत।

इसी आशा में जीवन की डोर थामे, यात्रा निरंतर ... ... ...

रमाकांत सिंह
दिनाँक - 17-07-2010

5 comments:

  1. इसी तरह सीखते-सिखाते बीत जाती है जिंदगी.

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  2. बेहतरीन आलेख.....हर अभिभावक के लिए विचारणीय

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  3. ' प्रतिभा का आकलन उसके गुणों से कम धन से ज्यादा किया जा रहा है'-
    बहुत सही कहा आपने.
    आप के विचार बहुत अच्छे लगे.
    बहुत ही अच्छा लेख है .

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  4. very touching article

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  5. from Reema Srivastava

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