गुरुकुल ५

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Wednesday, 9 November 2011

दृष्टि


भारत महान की, आजादी के 65 बरसों की
उपलब्धियां अनेक हैं, साथ ही बीते बरसों में
दिल
एक नहीं अनेक बन गये हैं, बन गई नई दीवारें
भाषायी धरातल पर
बिन बिचारे टूटते गये, अनेकता की एकता
मजहब और स्वार्थ के नाम
बनती-बिगड़ती गई, देश नहीं स्वयं की
नीतियां, जीवन-दर्शन, मूल्य और आदर्श
नई दिशाएं, नई राहें
बंट गये लोग, धरम के नाम पर,
बढ़ते गये कर 32 के 120 करोड़
गला घोंटने एक दूसरे के गर्व कर राष्ट्रीयता पर
1
आत्मसम्मान ने कहीं चोट खाई,
विकसित और विकासशील मानस में
यद्यपि प्रक्षेपण हुआ, पृथ्वी से पृथ्वी का,
उपग्रहों का निमार्ण, कम्प्यूटर का प्रयोग
शांति की तलाश में,
और न जाने कब, दिलो-दिमाग पर
गिरा दिया बम भी, संप्रभुता को नष्ट करने,
कौन कहता है?
पाश्चात्य की चेरी है तकनीक
उन्नत है यहां भी, सूखे खेतों की दरारों में
कृषकाय किसानों के, पपडि़याये होठों पर
उन्नत हो गई है, दिमागी पैदावार
संकर फसलों की मानिंद, उदर पोषण में
2
स्वतंत्रता मिलती गई, परिवार कल्याण कार्यक्रमों में
बदले हैं मानदण्ड मृत्युदर के
और बढ़ गई है, औसत आयु बेवजह
उन्मूलन बीमारियों के साथ-साथ
कुरीतियों के भी बन पड़े हैं
और आजादी ने, स्वतंत्र कर दिया
जनसंख्या और हाथों को
अनिवार्यता का दौर शिक्षा और समझ में
लक्ष्य के निकट न सही दूर भी खड़े नहीं
हमारी मूल अवधारणा के पोषण में सम्पूरक बन
व्यक्ति, समाज, परिवार के साथ-साथ
देश के विनाश-विकाश में
3
परतंत्रता के बाद बनी, स्वाभिमान की अभिव्यक्ति
राष्ट्रभाषा हिन्दी
और आजादी के बाद भी, अपनी गिरफ्त में कसा
मुंह चिढ़ाता अभिमानी सा अंग्रेजी की अंग्रेजियत,
गहरे होते गये सांस्कृतिक विरासत पर
नैतिक मूल्य, आदर्श, जीवन-दर्शन, रीति-रिवाज
मेरे देश की माटी ने कला, साहित्य, संगीत, नृत्य,
नाटक में रंगीन चित्र बनाए हैं आसमान पर
और उभरे खून के छींटे, इतिहास के पन्नों पर
पर नहीं जनमा है इन वर्षों में
गौतम न गांधी, भीष्म न भगत
लक्ष्मी न अहिल्या, मीरा न सूर
4
स्थापित हुए नगर उद्योग, और आहत कर दिया
मनीषियों की अवधारणा को प्रतिपल, हर क्षण
प्रकृति भी लौटाती गई ज्यों के त्यों नहीं
ब्याज के बढ़ते दरों से समय के साथ-साथ
खिसकती जा रही है, पैरों तले धरती
बढ़ती जा रही है पैरों के ऊपर भूख
दिन ब दिन,
लोगों ने अपना बसेरा बदल दिया
परदेश को जान लिया
सूना हो गया मेरे सपनों का गांव
विदेशों से मेरी ही बुद्धि आने लगी मूल्य पर
टूट गई सीमाएं, समाप्त हो गये रियासत
5
सिलसिला भी टूट गया जनपद का,
रिवाजों, परंपराओं की बंदिशें
प्राचीन कुरीतियों के संग-संग बिखरते गये
बुनियादी संयुक्त परिवार,
समानता के चैराहे से नई दिशाएं मिली
महिलाओं और दलितों को राष्ट्र की मुख्य धारा में,
मन आज भी सशंकित है न्याय-अन्याय पर
अनुभवी हाथ छूटते गये, हाथ से रेत कणों की भांति
किन्तु निषेधात्मक परिवर्तन ने घर बना लिया
जनमानस में गहरे तक
6
अब तो नशा ही नशा है, राजनीति और अर्थ में
पहले वर्जना थी
आज आदर्श राज्य की नियति, निर्माण और विक्रय
परिवार, राष्ट्र के विकास और विघटन में
गांव की पगडंडियों से राष्ट्र की मुख्य धारा में
नहीं दृष्टिगोचर होता तो, बस दूर तलक
सादा जीवन उच्च विचार

रमाकान्त सिंह 1 जनवरी 1998

इसके आगे सब कुछ है और बाद भी।
क्षमा यदि कुछ गलत कह गया तो,
चित्र गूगल से साभार

1 comment:

  1. व्‍यापक दृष्टि, सार्थक चिंतन.

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