पागल मन सोचने लगा
21 वीं सदी में
सूरज पूरब से नहीं
पच्छिम से निकल आवेगा
हवा का रुख बदल जायेगा
नक्षत्र अपना स्थान बदल लेंगे
नभ से बादल दूध बरसायेंगे
पहाड़ी झरनों से झरेंगे मोती
आसमान से बरस पड़ेगा अमृत
किसी ने कहा
अनहोनी कुछ नहीं
जो हुआ
अच्छा हुआ
जीवन वृत्त पर ही
विचरता है जीव
अरे
आज भी डूब गया
सूरज फिर पश्चिम में
पंछी चहक उठे शाखाओं पर
रवि के ताप से
चमक उठे तारे आसमान में
चाँद भी कहाँ निकल धरती से
कुत्ते की पूंछ आज भी
पोंगरी के इंतज़ार में
वही गाँव वही शहर
आदमी उगलता ज़हर
बहती नाली टूटा नहर
औरत और बेटी पर टूटता कहर
न बदला कल
ना ही कल
परछाइयों ने कभी साथ छोड़ा
कहाँ जला हाथ बरफ से
दिशा भ्रम हो जाये
ऐसी हवा कहाँ चली
न ही बढ़ा दरिया का पानी
सब कुछ रहा यथावत
मदहोशी में कब
झंकृत हो गये तंतु
संग में बैठे ठाले
हम नाहक परेशां होते रहे
ऐसे अनागत के
प्रतीक्षा और स्वागत में
31.12.2000
चित्र गूगल से साभार
25.12 2011 को शून्य कमेन्ट के साथ
प्रकाशित रचना का पुनः प्रकाशन
बहुत ही गहरा कटाक्ष... और एक दिन के जश्न में आकंठ डूब जाने वाले मदमत्त जनसमुदाय को एक सीख.. बहुत अच्छे!!
ReplyDeleteबहुत सही ..बहुत सटीक रचना..
ReplyDeleteऔरत और बेटी पर टूटता कहर
ReplyDeleteन बदला कल
ना ही कल
सच है ....
दुनिया हमसे नहीं , हमसे दुनिया है ...
ReplyDeleteमानो तो नव वर्ष -- न मानो तो एक और दिन !
ReplyDeleteउम्दा रचना।
.
''सबको मुबारक नया साल'' कहने का बहाना तो मिला ही.
ReplyDeleteहम नाहक परेशां होते रहे
ReplyDeleteऐसे अनागत के
प्रतीक्षा और स्वागत में,,,,निराले अंदाज में गहरा कटाक्ष,,,,
recent post: किस्मत हिन्दुस्तान की,
सूरज पूरब से निकलता है तो ऐसे हालात हैं...काश कभी पश्चिम से निकले और दुनिया बदल जाए !
ReplyDeleteकुछ नयी सोच लिए कविता .
बेहतरीन...............
ReplyDeleteकुछ बदलता नहीं.....भरम है कि टूटता नहीं...
सादर
अनु
संग में बैठे ठाले
ReplyDeleteहम नाहक परेशां होते रहे
ऐसे अनागत के
प्रतीक्षा और स्वागत में
....स्तिथियाँ नहीं बदलती ...क्योंकि मनोवृत्तियां नहीं बदलतीं ....बहुत सुन्दर और सटीक !
बहुत सुन्दर संवेदनशील रचना ...
ReplyDeleteवाह क्या बात है
ReplyDeleteसार्थक सन्देश देती रचना
बाहर सब कुछ वैसा ही रहता है..बदलना है तो भीतर को..सुंदर प्रस्तुति !
ReplyDeleteसार्थकता लिये सशक्त लेखन ...
ReplyDeleteमानो तो हर पल नया है ..
ReplyDeleteउम्मीदे जब जितनी ज्यादा होती है उनके पूरा ना होने से कष्ट भी उतना ही ज्यादा होता है. इसलिए खुद पर भरोसा ही सबसे अच्छा है.
ReplyDeleteसुंदर कविता मन को छू जाती है.
सुन्दर भाव. इस बदलाव की तारीख आने में ताखीर न जाने कब तक...
ReplyDeleteबदलाव सतत होते हुवे भी नहीं बदलता ... ओर तारीखें बदलने से तो कभी नहीं ...
ReplyDeleteसच ही तो है... हर दिन की तरह एक और दिन, जो कहलाता है नये वर्ष का पहला दिन... नया दिन...~शायद कर जाए कुछ नया, छेड़ जाए कुछ नयी लहरें... जो कर दें जागृत इंसानियत को इंसानों के अंदर...
ReplyDelete~सादर!!!
आपकी किस रचना को कम कहूँ ........... शिराएँ रक्त संचार से तन जाती हैं
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