गुरुकुल ५

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Sunday, 17 July 2011

एक बार फिर




कलयुग में उतावला
धर्मयुद्ध को अभिमन्यु
निहत्था।
समक्ष महारथियों के
युद्ध और विजय
नहीं।
मृत्यु नियति है
तब निरर्थक वीरता का प्रदर्शन
कुरुक्षे़त्र में ही क्यों
न्याय-अन्याय
धर्म-अधर्म
स्वजन का वध
जब सब नियत
एक बार फिर.....





छले गए हर युग में
कर्ण और एकलव्य
कुन्ती और द्रोण से
तार-तार द्रौपदी ही
और चक्षुहीन पितामह
कृष्ण
कर्म का संदेश ले
खुली आंखों से
सत्य का आग्रही बन
सृष्टि के मूल
विषमता को छलते
स्वयं के बुने तानों में
उलझते कसते गए
घटोत्कच पुत्र बर्बरीक का शीश मांग
युद्ध की विभीषिका देखने
एक बार फिर.....

सजेगा भीष्‍म
शर की शैया पर
संधान किया अर्जुन ने
शिखण्डी की आड़ से
गर्भ में आहत
परीक्षित पांचजन्य से
निर्विकार पांचाली
महायुद्ध के तांडव में
ध्वज पर पवन पुत्र
साक्ष्य बन बैठे
दुर्योधन के हृदय
और अंबर पर
अबाध सूर्य की प्रचण्डता
एक बार फिर.....

बंद होते गए द्वार
न्याय की प्रतीक्षा में
सत्य की खोज में
लोक कल्याण के
नपुंसक बनने से।
और हम सब
भ्रम में निरंतर
पानी पर लकीर खीचते
श्रमसाध्य बने
पीढी दर पीढी
अंधों से बदतर
एक बार फिर.....

10 comments:

  1. bhale lagate hain likhe pannon par

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  2. हर युग में यही घटता है,छली-बली के बीच।

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  3. आपकी इस रचना ने तो महाभारत का पूरा दृश्य ही सामने ला कर रख दिया बेहतरीन प्रस्तुति

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  4. सुनी पढी कितनी घटनाएं बिम्बित हो गईं...
    सुन्दर रचना...
    हार्दिक बधाई.

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  5. बंद होते गए द्वार
    न्याय की प्रतीक्षा में
    सत्य की खोज में
    लोक कल्याण के
    नपुंसक बनने से।
    और हम सब
    भ्रम में निरंतर
    पानी पर लकीर खीचते
    श्रमसाध्य बने
    पीढी दर पीढी
    अंधों से बदतर
    एक बार फिर.....
    हर युग की कमोबेश यही कहानी है.

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  6. बंद होते गए द्वार
    न्याय की प्रतीक्षा में
    सत्य की खोज में
    लोक कल्याण के
    नपुंसक बनने से।

    ....बहुत खूब...शास्वत सत्य का जीवंत और प्रभावी चित्रण..

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  8. आपकी रचना को म्हारा हरियाणा ब्लॉग पर लिंक किया है

    संजय भास्कर

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  9. महाभारत आज भी प्रासंगिक है...धृतराष्ट्र की सभा में सारे ज्ञानी और बलशाली लोगों के चुप रहने से ही युद्ध की नौबत आई...अब तो गलत को गलत बोलिए...कि लब आज़ाद हैं तेरे...

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