गुरुकुल ५

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Sunday, 29 July 2012

आस्था और विश्वास


चंद लोग बदल देते हैं
समाज की दशा और दिशा
हम ऐसा क्यों मान लेते हैं?
एक अपवाद बन गया समाज का प्रतिबिम्ब?
आस्था और विश्वास की बुनियाद हिल गई?
एक आदमी की हरकत से

एक फकीर से सुनी कहानी याद आ गई

एक बार एक मुसाफिर के गुम हो गये
आस्था और विश्वास
बस उसने शुरू कर दिया तलाशना
कहाँ है वो? कहाँ मिलेगा?
कौन है, वो कैसा होगा?
जो सुलझा देगा मेरी समस्या?
तन्मयता से खोज देगा
मेरी गुम अमानत
न जाने कितने सवाल.
उत्तर देने वाला?

निकल पड़ा खोज में
मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा
दरगाह की चौखट पे सज़दे में
रख दिया सिर श्रद्धा से
जवाब मिल पाया?
लौट गया खाली हाथ
फिर क्या था फूट पड़ा गुबार
खूब गालियां बकी, तोड़-फोड़ की
कर दिया गन्दा पवित्र स्थल को

शुरू कर दिया सिलसिला
एक मंदिर से दूसरे मस्जिद तक
चर्च के चौखट से गुरूद्वारे के ताल तक
देने लगा आवाज़ निकल बाहर
सर्वत्र निरर्थक
मौन, घुप्‍प अँधेरा, मन के भीतर और बाहर
गुम हो गई सदा शून्य में

चलने लगा क्रम, एक गाँव से दूसरे नगर
न थमनेवाला संशय और गूँज
खोज की भी इन्तहां होती है?
कौन मन्नतों को करता है पूरा?
रूह से कैसे मुलाक़ात है होती?
आत्मा कहाँ वास करती है?

यात्रा का अंत हुआ वीरान दरगाह में
टूटी दीवारें,बंजर जमीं
तंग पगडण्डी दरख्तों के साये
लगा बरसों न कोई आया, न गया
न मांगी दुआ या पूरी हुई?

आज न जाने क्यूँ
न निकले अपशब्द, न उपजा क्रोध
शाम ढलने लगी
सूरज छुपाने लगा था मुख आसमां में
पैर उठ गए वापस लौटने को
अकस्मात् आवाज़ आई
ऐ जाने वाले मुसाफिर जरा ठहर

चौंक गया, किसने आवाज दी?
अज्ञात भय, कौन होगा ये?
चल पड़ा एक बार फिर
आई वही सदा वीराने से
जरा ठहर, आज क्यों मौन है?

मुसाफिर ने पूछा
तू कौन है मुझे बूझने वाला?
एक कांपती आवाज, मैं तेरी आस्था,
तेरा विश्वास, तेरी आत्मा

मुसाफिर ने पूछा

कैसे मानूं, कहाँ थे आज तक?
क्यों नहीं आये आज के पहले?

जब तक तुम व्याकुल थे
जिज्ञासा थी मन में
साक्षात्कार की ललक थी
मैं तुम्हारे संग चलता रहा
हर उस जगह जहाँ जहाँ तुम फिरे

लेकिन मैं तो हर जगह पाक रूह से
मिलने कुछ पूछने गया
कहीं कोई मिला ही नहीं
मिली ख़ामोशी तनहाई
आज ही तुम क्यूँ?

ऐसा नहीं सब थे वहां
और मैं तो साथ हमेशा
आज तुम्हारी आस्था टूट जाती पूरी
उठ जाता विश्वास
अब लाज़मी हो गया था
तुम्हारे हर सवाल का जवाब देना

ऐसा कभी मत सोचो
जवाब क्यों नहीं दिया गया?
आज तक किसी ने भी तुम्हारे
सवाल का जवाब देना
उचित नहीं समझा
तब तुम्हारा विश्वास था
कोई तो जवाब देगा ही

लेकिन तुम्हारी आज की
ख़ामोशी और हताशा ने
तोड़ दिये बंध समय और दिशा के
मुझे मजबूर कर दिया कहने
कि हर सवाल का जवाब है
ये बात अलग है
कि कभी-कभी हम मौन रह जाते हैं
और ये चुप्पी जवाब नहीं
कभी न सोचना

वादे के मुताबिक यह पोस्ट काव्य मंजूषा ब्लॉग
की मालकिन स्वप्न शैल मंजूषा को समर्पित


चित्र फ्लिकर से साभार.

Tuesday, 24 July 2012

विक्रम और वेताल 2

विक्रम ने हठ न छोड़ा
वेताल को कंधे पर लाद
चल पड़ा गंतव्य को

वेताल ने कहा
राजन विचार करके बोलो

संशय, भ्रम, आशंका से
मुक्त हो अब मौन तोड़ो
जाति, धर्म, वर्ग, रंग
समुदाय और वर्ण के भेद से परे
पूर्व प्राप्त परिणामों को
एक नई तुला पर तोलो

बंध जाये रिश्तों की डोर
माँ और बेटी के
पत्नी और प्रेमिका संग
घुलती जाये सुगंध
एक ही व्यक्ति में
पुत्र संग पति
न पड़े गाँठ
न बंटे रिश्ते
पिता और प्रेमी के मध्य
बनी रहे मर्यादा

मान्यतायें वही हों
न टूटे
सामाजिक बंधन या नियम
रीति रिवाज भी बने रहे
निर्वहन हो परम्पराओं का
कभी न पड़े दरार

वर्जनाएं भी रहें बनी
न हों सीमाओं का अतिक्रमण
खरे हों कसौटी पर
अपनी अपनी सार्थकता ले

वेताल ने कहा
राजन स्मरण रखो

पिता की छाया
प्रेम और स्पर्श पति का
पुत्र का अगाध स्नेह
त्याग प्रेमी का
बने दृढ़ आलिंगन

पत्‍नी का प्रेम और समर्पण
माँ की विशालता में
हो जाये तिरोहित
बेटी का रुदन
बिंध जाये हृदय में
और पथ निहारे
प्रेयसी बन?

अनजाना, अपरिचित, अपरिभाषित?
सरोकार या लगाव ?
अथवा कह दोगे समर्पण?

क्रमशः
31.10.2007



Saturday, 21 July 2012

विक्रम और वेताल


एक बार राजा विक्रम को वेताल ने चोर और ताले की कथा सुनार्इ

वेताल ने पूछा चोर कौन है?
जो पकड़ा गया या वह जो पकड़ा ही नहीं गया?
घर पर ताला क्यों लगाया जाये?
ताला किसके लिये लगाया जाये?
ताला कब लगाया जाये?
ताला लगाने का औचित्य क्या है?
प्रश्न सहज, सरल, स्वाभाविक है?
प्रश्नों का सिलसिला शुरू हुआ और लग गर्इ प्रश्नों की झड़ी,
यह पता ही नहीं चल रहा था
कि प्रश्नकर्ता कौन है? उत्तर किसे देना है?

वेताल ने कहा प्रश्न का उत्तर जान बूझकर न देने पर
सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।
हम वस्तु को सुरक्षित रखें?
वह भी ताला लगाकर किन्तु किससे सुरक्षित रखें?
उस आदमी से जिसे उसकी आवश्यकता ही नहीं,
या उससे जो हर हाल में उसे चुरायेगा ही

तब ताले का महत्व किसके लिये या
मर्यादा के लिये अनिवार्य मानकर जड़ दिया जाये?
किस भाव को सही या गलत माना जाये?
सत्य का उद्घाटन अति आवश्यक है?
न बतलाने पर सत्य आहत हो जायेगा?

मान लो सत्य उद्घाटित हुआ और वहां उपस्थित
सभी लोग बहरे हुए या उन्होंने बहरे होने का
नाटक कर दिया तो? सब कुछ जानकर भी
न माना तब क्या सत्य और क्या असत्य?
सत्य के अस्तित्व को ही नकार दिया गया?
किसी भी शाश्वत मूल्य को मानने से इंकार
कर देने पर समस्त नियम, नीति, मूल्य, आदर्श धरे रह गये?

अंत में राजा विक्रम को वेताल ने कहा याद रखो
अब प्रश्न करने का अधिकार मेरे पास सुरक्षित है।
आरक्षण का नियम लागू हो गया है

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किं?
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण: किं करिष्यति?
क्रमश:

31.10.2007

Sunday, 15 July 2012

पहेली



कभी मेरी सहेली बनकर
यदा-कदा पहेली बनकर
महानदी की धारा में
लहरों संग भंवर बन
मुखरित हो जाती हो

मैकल पर्वत श्रृखला सी
फैलकर ढलान में भी
एक दुसरे से सटकर
सम्मोहित कर जाती हो

और तुम कभी-कभी
गज गामिनी बन
निर्जन वन में विचरते
अपने ही सपनों के
कोमल कोपलों को
तोड़-मरोड़
रौंद-रौंद जाती हो?

क्यूं हिमखण्ड सी
विगलित शिखर में हो
अपना ही आंगन
बहा ले जाती हो

कभी-कभी
टूटता है धैर्य तुम्हारा?
पवन की रलता ले
स्वच्छंद उच्श्रृखल बन
अपने मंद झोंकों से
खुद का वजूद
शून्य में
छिन्न-भिन्न कर जाती हो

कभी सघन घन बन
पर्वत शिखर के
गिरि कंदराओं को भी
सिक्त कर जाती हो
ये विस्तार तुम्हारा
अथाह समुद्र सा
दूर-दूर तलक
और सिमटना कभी
सीप में मोती सा
कभी बदलना
स्वाति नक्षत्र के अमृत में
किसकी प्रतीति?

तब तुम्हें पाकर भी
बूझ नहीं पाता
फिर हर एक शै में
तेरा ही भ्रम
क्यूं हो जाता है?
और मैं यह कभी
जान ही नहीं पाया 
तुम मेरी कौन हो?

14.07.2012
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, 11 July 2012

नया द्वार


आँगन के पार
एक बंद द्वार
उम्र के पड़ाव पर
हर साल

एक दीवार इस पार
एक दीवार उस पार

डरता हूँ
हर बार

खोलते नया द्वार

कहीं ऐसा न हो कि
इस द्वार के पार हो
एक अलसाई सी
सरकती नदी

और




पुराने बरगद से बंधी
वही नाव
जिसका खेवनहार
मैं
और सवार भी

वही नाव
वही पतवार
बार&बार

न भरपाई की चिंता
न उतराई का भार

फिर क्यों?
डर जाता हूँ
हर बार
खोलते नया द्वार

06.07.2012
एक बार पुन तथागत ब्लॉग के सृजन कर्ता
श्री राजेश कुमार सिंह को उनके ही भाव उनके
ही शब्दों में लिखकर समर्पित, माध्यम बनकर
चित्र गूगल से साभार

Sunday, 8 July 2012

नेह

इन पीछे छूट चुके बरसों में
क्या खोया क्या पाया?
जब भी सोचा
मन भरमाया

बरसों बरस खड़ा रहा
बिजूका बनकर
खेतों में
पंछियों को डराते
पर कभी इंसान बन पाया?
रहा आधा बिजूका
आधा इंसान

नेह की बारिश नहीं होती
सूख गए खेत?
शायद उड़ गए पंछी?
किसी और देश?
मैं कभी न बन पाया
बिजूका

इन्सान
कोशिश करें
अगर कुछ बात बन जाये

रमाकांत सिंह ०६.०७ .२०१२
तेरा तुझको अर्पण ,क्या लागे मेरा
श्री राजेशकुमार सिंह तथागत ब्लॉग के सृजन कर्ता ने मेल किया है
मेरे जन्म दिन 06.07.2012 पर आपके जन्म दिन पर एक और
कविता लिखने की कोशिश की थी. पर बात कुछ बन नहीं पाई.
जैसी लिखी है, वैसे ही भेज रहा हूँ. दरअसल लग रहा है
ये दो अलग अलग कविताएँ हैं.
चित्र गूगल से साभार

Monday, 2 July 2012

घनी छांव


अकस्मात एक दिन
थम गर्इ सांसें
आस में बेवजह
पथरा गर्इ आंखें
सहते-सहते उपेक्षा
फैल गर्इ खामोशी
सफेद बर्फ जैसी

तमाम उम्र उसने काट दी
रिश्तों के धुन्ध में
खीज और बेबसी में
रेशों में हांफती

मेरी फटती रही छाती
देने को चंद कतरा
पार्इ थी जिससे सांसें
बिन मांगे कोख से
तंग बना डाला मैंने
अपने वजूद को
बिना किसी
शर्म-संकोच के

मरने पर हमने भी
छपवा दिया शोक पत्र
खेद और हर्ष संग
सूचित करना पड़ रहा है कि
मेरी प्यारी मां का
हृदयाघात से अचानक
पुरूषोत्तम मास, दिन बुधवार
अक्षय तृतीया, विक्रम संवत को
इंतकाल हो गया है
आप पधारें हमारे निवास पर
मृत आत्मा की शांति के लिये
शोक आकुल
पुत्र साथ में पुत्र वधु

बड़े ही फख्र से
लोग भी शरीक हुए
पूरी तवज्जो दी
सरे राह लोगों ने
बातों ही बातों में
बना दिया ज़न्नतनशीं
मृत्यु के बाद ही

दोज़ख से बदतर
जीवन में झोंककर

कैसे साक्षात्कार हुआ?
नर्क में स्वर्ग का
या एक रस्म की अदायगी?
वाह मेरे मालिक?
कैसा इंसाफ?
क्यूं कर न बोध हुआ?
कैसे ये चूक हुर्इ?

मां तो बस मां थीं
उसका अपराध?
बस गर्भ में धरना?
या जनना उस बीज को?
देना घनी छांव?
बनना वट वृक्ष सा


चित्र गूगल से साभार