गुरुकुल ५

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Saturday 18 February 2012

तसव्वुर

तनहा तसव्वुर में बिंधकर कहीं खो गया
जैसे साहि़ल पे उठता सहर सो गया

देखा कभी रात में उठता कभी भोर में
चंचल-चंचल लहर नयनों के इन कोर में
अश्को-तबस्सुम सा जैसे बयां हो गया
तनहा खयालों में बिंधकर कहीं खो गया

बीती हुई रात से जुड़कर कई हादसे
बिखरे नये ख्वाब में मिलकर गले आज से
भूले नज़़्मों की तरह जैसे धुआं हो गया
तनहा खयालों में बिंधकर कहीं खो गया

गाहे देती सदा ख्वाबों खयालों में
लम्हे तबस्सुम के ग़़म के हिज़ाबों में
मुड़कर सरे-राह से जैसे बयां हो गया
तनहा तसव्वुर में बिंधकर कही खो गया

रमाकांत सिंह 15/07/1978 दंतेवाड़ा

7 comments:

  1. तन्हाई में हुए अनुभव को बेहतर शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है ...!

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  2. कोमल भावो की और मर्मस्पर्शी.. अभिवयक्ति .......

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  3. देखा कभी रात में उठता कभी भोर में
    चंचल-चंचल लहर नयनों के इन कोर में
    अश्को-तबस्सुम सा जैसे बयां हो गया

    बढ़िया अभिव्यक्ति....
    हार्दिक बधाईयाँ.

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  4. बीती हुई रात से जुड़कर कई हादसे
    बिखरे नये ख्वाब में मिलकर गले आज से
    भूले नज़्मों की तरह जैसे धुआं हो गया
    तनहा खयालों में बिंधकर कहीं खो गया

    क्या बात है !!
    बहुत सुंदर भाव !!

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  5. सुंदर शब्द, कोमल भाव !

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  6. खुदगर्ज थी सबा भी
    खुदगर्ज थी शब भी
    मैं तन्हाई ओढ़े जीता रहा ....

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  7. अनुपम हव संयोजन
    बहूत हि बढीया...

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