गुरुकुल ५

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Sunday 25 December 2011

अनागत/नववर्ष



पागल मन सोचने लगा
21 वीं सदी में
सूरज पूरब से नहीं
पच्छिम से निकल आवेगा

हवा का रूख बदल जायेगा
नक्षत्र अपना स्थान बदल लेंगे
नभ से बादल दूध बरसायेंगे
पहाड़ी झरनों से झरेंगे मोती

आसमान से बरस पड़ेगा अमृत
किसने कहा
अनहोनी कुछ नहीं
जो हुआ
अच्छा होगा

जीवन वृत्त पर ही
विचरता है जीव
अरे
आज भी डूब गया
सूरज फिर पच्छिम में,

पंछी चहक उठे शाखाओं पर
रवि के ताप से
चमक उठे तारे आसमान में
चांद भी कहॉ निकला धरती से

कुत्ते की पूंछ आज भी
पोंगरी के इंतजार में
वही गांव
वही शहर

बहती नाली
टूटा नहर
न कल
ना ही कल

परछाईयों ने भी कभी साथ छोड़ा
कहॉ जला हाथ बरफ से
दिशा भ्रम हो जाये
ऐसी हवा कब चली

न ही बढ़ा दरिया का पानी
सब कुछ रहा यथावत्‌
मदहोशी में
झंकृत हो गये थे तंतु

संग में बैठे-ठाले
हम नाहक परेशां होते रहे
ऐसे अनागत के
प्रतीक्षा और स्वागत में।

रमाकान्त सिंह 31/12/2000
चित्र गूगल से साभार

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