एक कथा सदियों पुरानी
एक नगर में यशश्वी राजा मार्तण्ड रानी मीनाक्षी देवी संग
इनकी कीर्ति चारों दिशाओं में चंदन सी महक रही थी
सुदूर घने जंगल मे एक तपस्वी अपनी तपस्या में मगन
पशु, पक्षी, जानवर निःशंक एक संग जीवन यापन में
एक दिन राजा बन की शोभा देखने निकले और भटक गये
घने जंगल में दूर आग जलती दिखी, आश्रय हेतु निकल पड़े
राजा मुनि आश्रम के सुचिता में पूरा श्रम थकान भूल गए
आश्रम में भार्गव मुनि के अतिरिक्त कोई न था
किन्तु जरूरत की सभी वस्तुओं से आश्रम परिपूर्ण था
रात्रि विश्राम और मुनि के आतिथ्य सत्कार से अभिभूत हो उन्हें नगर आमंत्रित किया और सेवा का अवसर मांगा
कालांतर में भार्गव मुनि काल की प्रेरणा से नगर पहुंचे
राजा और रानी देव् तुल्य मुनि को पाकर अति प्रसन्न हुए
उन्होंने मुनि की रुचि और प्रतिष्ठा अनुरूप स्वागत किया
राजा ने रानी को शयन कक्ष मुनि को देने आग्रह किया
रानी मीनाक्षी ने शयन कक्ष सुसज्जित कर सौंप दिया
शयन कक्ष में दीवाल पर एक संगमरमर में राजहंस बना था
उसके सामने खूंटी पर नित्य नियम रानी मीनाक्षी
अपने पिता की अंतिम दी गई निशानी मोतियों की माला
बड़े जतन से टांग दिया करती और प्रातः पुनः धारण करती
संजोग जो था रानी मीनाक्षी की उस दिन वो माला वहीं रह गई
भार्गव मुनि समय से आराम करने लगे किन्तु अर्धरात्रि को
अचानक निद्रा टूटी और देखते हैं कि राजहंस सशरीर
धीरे-धीरे एक एक मोटी के मनके को निगल रहा है
मुनि स्तब्ध रह गए अरे ऐसा क्यूं कर ,, क्या यह संभव?
मुनि ने मन मे विचार किया शायद यह मेरा भ्रम होगा
शायद थकान या राजाश्रय में चित्त का विकार होगा
चित्र सजीव हो और ऐसा कृत्य कदापि सम्भव नहीं !
ऐन केन प्रकारेण रात बीती, प्रातः वंदन कर राजा से विदा मांगी, राजा ने आग्रह किया एक दिन और रुकें .....
किन्तु काल ने कुछ और ही लिख रखा था ,,
मुनि रवाना होने को उद्यत हुए और रनिवास से खबर आई
शयन कक्ष में टँगी मोतियों की माला खूंटी पर नहीं है!!!!
रानी मीनाक्षी के पिता की अंतिम निशानी रनिवास से गुम
मुनि स्तब्ध हो गए ,,,, उन्होंने राजन से रात की बात कही
राजन कल रात राजहंस मोतियों की माला निगल रहा था
कौन करता विश्वास,,,, चित्र कभी सजीव होगा .....
राजा किंकर्तव्यविमूढ़... मुनि को अंगरक्षक बन्दी कर गए
पूरा राज्य इसी चिंता में आकुल रहा कि आखिर मुनि...
सब सोचने लगे राज्य के सन्यासी का ऐसा आचरण
इसी उहापोह में दिन बीत गया राजा मार्तण्ड चिंता मग्न
रात कटे न कटे अचानक शयन कक्ष में एक आहट हुई
राजा की आंखे खुली उन्होंने एक अनोखी बात देखी
राजहंस धीरे-धीरे मोतियों की माला उगल रहा था .....
राजा मार्तण्ड सोचने लगे मन का वहम होगा ,,,
किन्तु भोर में जैसे ही आंखे खुली ...खूंटी पर माला
राजा का मन पश्चाताप से भर गया,
सिर झुकाये मुनि के समक्ष पूरे वृत्तांत संग क्षमायाचना
भार्गव मुनि ने कहा ......राजन ! ...ये होनी थी जो घटी
कल प्रातः से रात तक मैने भी समाधि ले चिंतन किया
आखिर इस प्रकार ये होनी कैसे घटित हुई ,
तब ज्ञात हुआ .....प्रारब्ध
मैने आपके ही समान 50 वर्ष पूर्व जनकपुर में
रामाधीन का आतिथ्य स्वीकार कर अन्न ग्रहण किया था
राजन ने प्रश्न किया
मुनिवर आतिथ्य और अन्न का इस घटना से क्या संबंध है?
मुनि ने कहा होता है राजन!
आप मानो न मानो
तभी तो राजहंस का चित्र रानी मीनाक्षी की माला निगल गया
जाने अनजाने पाप और पुण्य के फल भी भुगतने होते हैं
राजन मैने रामाधीन के बरछा खेत का अन्न खाया था ।
बरछा खेत के निकट एक अशांत श्मशान है
जहां बरसों पहले चाण्डाल ( रमाकांत) को जलाया गया था
इस चांडाल ने अपनी मां , पिता , भाई बहन सबको कष्ट दिया
उन्हें इस कदर अन्न के एक एक दाने के लिए तरसाया,
अन्तोगत्वा वे सब भूखे प्यासे समय पूर्व मर गए।।
लोग मुरदे की राख नदी में बहाना भूल गये थे ।
एक सांड क्रोधित होकर उसे खुरों से खुरच रहा था
अपना क्रोध चांडाल के जले स्थान पर उतार रहा था ।।
उसकी राख उड़कर उस खेत तक गई, जहां अन्न उपजा
अन्न कर के रूप में राजकोष में
राज्य को संताप और राजा को आत्मग्लानि
रानी मीनाक्षी का मन क्लांत होना ,विधान में लिखा था
और दोष मेरे भाग्य में लिख गया ।।
राजन स्मरण रखें
दोष जाना अनजाना सब हमारे भाग और भाग्य का होता है ।