गुरुकुल ५

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Tuesday, 28 August 2012

महत्वाकांक्षा

न जाने कैसे बन गई
रेयर अर्थ इलेमेंट
सोचा था मैंने ?
बन जाऊंगी पवन
मलयागिरी से आंगन तक
फ़ैल जाऊंगी यत्र तत्र सर्वत्र
बिखेरने अपनी गमक

ढल जाऊंगी लोहे सी
अनेक आकृतियों में ?
लिपट जाऊंगी तार बन ?
किसी ऊँचे गुम्बद को
बनकर पत्तर साया बन पाऊंगी ?
काला चमकदार रंग ले
कहाँ पता था ?
टूटना और बिखरना बीड़ की भांति

मैंने सदा सोचा
सोने का मूल्य, हीरे की चमक
आत्ममुग्ध अपनी नक्काशी पर
जग को लुभाने निकली चौराहे पर
मनमोहक, बनावटी स्वरुप ले अपना
जो विस्थापित हो सकता है ?

मुझे ये दर्प था चमकती रहूंगी
पारे सी फैलकर तरल बनी
अनजान लोगों के तापमापन में
शालीन गुणों को धत्ता दे
नैसर्गिक स्वरुप को बदलने में
टूट गई अनेक अवयवों में
विस्फोट से केन्द्रक के
उड़ गए परखच्चे

रासायनिक अभिक्रियाओं ने
जीवन मूल्यों से सराबोर अभिकारकों को
उदासीन कर अचानक
परिवर्तित कर दिया लवण और पानी में
कभी जहरीली गैस बन हो गई वाष्पित
और मैं अवक्षेपित हो बैठ गई?
सम गुण धर्मों संग बनी रहूंगी ?
जीवन के आवर्त सारणी में?

तुम्हें पाने की चाहत में ?
या तुमसा बन जाने की ललक ने ?
बदल दिया मेरा स्वरुप
कहाँ मैं मैं रही ?
फिर भी बनना है तुमसा
चाहे टूट जाये मेरी छवि
कहो इसे ललक मेरी
या कह दो महत्वाकांक्षा

23.दिसम्बर 2011
चित्र गूगल से साभार

Saturday, 25 August 2012

शमअ-ए-राह


हर सहर हाल जो, माज़ी में बदल जायेगा
दो कदम चलकर, सरेराह बिछड़ जायेगा
रुक गया तू भी गर, मसीहा की तरह
शमअ-ए-राह, कौन रहनुमा जलायेगा.

सूनी महफ़िल हर सजी, रात के अंधियारे में
साकी सजती ही रही, बाट में चौराहे में
उठ गया तू भी गर, हर सदा की तरह
शमअ-ए-राह, कौन रहनुमा दिखायेगा.


13.09.1979
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, 21 August 2012

दशा

1

धरती ने सूरज से कहा
तुम सदा
पूरब से ही क्यों निकलते हो?
बदलकर देखो अपनी दिशा?
एक बार

2

भूखा कभी भूख की
परिभाषा लिख पाता है?
भर पेट भूख को
परिभाषित कर जाता है

3

अरे नादां
पैर के नीचे
धरती
सिर के ऊपर
आसमां
फिर तू कैसे
हो गया महान?

21.08.2012
चित्र गूगल से साभार

Friday, 17 August 2012

विक्रम और वेताल 3


इस बार वेताल ने हठ न छोड़ा
निद्रा लीन विक्रम को उठाकर
कर ली सवारी कंधे की
राजन ये रेपीड फायर राउण्ड है
न रोकना न टोकना
तुम्हारा समय शुरू होता है अब

आसान है किसी रिश्ते को बनाना?
निभाना उससे कठिन?
बनाये रखें चिर स्थाई?
कितना सहज, सरल, कठिन, वा सुगम
रिश्तों में स्वार्थ?
या स्वार्थ पर रिश्ते
हम भी सीखें
रिश्तों का उपयोग दुरुपयोग?
वर्तमान से भविष्य तक?

रिश्तों की बाध्यता कब और कैसे?
नैसर्गिक रिश्ते ज्यादा मजबूत?
रहते हैं बिना स्वार्थ?
न बाध्यता न अनिवार्यता
रहें सदा जवाबदेह?
क्यों किसी की निष्ठा पर प्रश्न?

कोई सीमा या लिहाज?

बिखर जाते हैं
रिश्ते बनाम संबंध?
छवि टूटती है?
टूटन पर फर्क पड़ता है
परिणीति हत्या, आत्महत्या, पीड़ा?
मृत्यु सी भयावह?

रिश्तों का खेल बड़ा कठिन होता है?
पारिवारिक-व्यक्तिगत संबंधों का
सामाजिक-राजनैतिक कह दें
या धार्मिक प्रतिद्वन्दिता का?
पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका का
बन जाता है आसानी से
बिन कहे लपटों में बाप-बेटी भी?
भाई-बहन क्यों संदिग्ध?
इस मायाजाल से मुक्त
मां-बेटे का पवित्र रिश्ता?

कब, क्यों, किन हालात में?
इसकी प्रतीति है होती?
खुल जाती हैं कड़ियां?
बिखरती हैं लड़ियां?
बना रह पाता है
रहस्य पर रहस्य?
रिश्तों की गरिमा?
बरसों की कमाई छवि?
रिश्ते और विश्वास?
छन्न छनाक के बाद
दृष्टिगोचर मूलस्वरूप?

राजन
कहीं ऐसा तो नहीं?
हम अच्छे हैं मायने नहीं रखता?
हमें अच्छा दिखना चाहिए
बन गया है मानदण्ड?
या फिर हमें?

चलो छोड़ो

तुम दो मिनट बैठ चिंतन करो
मैं 120 घंटे में आता हूं

चित्र गूगल से साभार 
23.03.2011

Saturday, 11 August 2012

टूट पड़ें


वीणा के अंतिम तारों को
इतना न कसो की टूट पड़ें

ये तेरी है या मेरी
काँटों की है झरबेरी
उलझायेगा आँचल
ये अग्नि परीक्षा में
अंजुरी में धरे हाला को
गले में मत डालो


वीणा  के अंतिम तारों को
इतना न कसो की टूट पड़ें


ये अपने कर्म कदम
संकल्पों के दर्पण
चंचल व्यथित अंतर्मन
हर पल वेदना समर में
प्रारब्ध स्वर्ग भूतल कर
झंझावत मथ डालो


वीणा  के अंतिम तारों को
इतना न कसो की टूट पड़ें

09.08.1978
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, 7 August 2012

राम-कृष्ण


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

मैं प्रेम का प्रतीक हूं
यशोदानंदन, गोपाल, माखनचोर
जन्माष्टमी दिन बुधवार
रात 12 बजे रोहिणी नक्षत्र में

जन्म स्थान मथुरा के कारागार में
यमुना के लहरों ने चूमा है पैरों को
किन्तु मैंने पैर धरा गोकुल में

परमब्रह्म राम का अवतरण

चैत्र नवमी शुक्ल पक्ष अभिजीत नक्षत्र
दोपहर 12 बजे अयोध्या में
दशरथ नंदन बन राजप्रसाद में
सरयू नदी की चंचल लहरों के तीर
मर्यादा की स्थापना हेतु

कृष्ण जन्म में असीम शांति
मरघट का सन्नाटा, भय, चुप्पी
द्वापर के अंतिम चरण में
फिर भी लोग भजते हैं
वृन्दावन बिहारी, नटनागर
राधा-कृष्ण, कन्हैया, नंदलाला
कभी कहते मुझे रणछोर भी
16108 रानी-पटरानियां
एक रूप धरकर एक संग विवाह
कपट नहीं प्रेम से
भले ही छलिया कह गर्इ गोपियां
ब्रह्मा के मंत्रोचार से


प्रगटीकरण पर राजमहल में
हर्ष, उल्लास, मंगलगान, बधार्इ
त्रेता युग के मध्य चरण में
अजानबाहु बनकर एकपत्निक
विवाह जनकनंदनी सीता संग
सतानंद जी के मंगलाचरण से
विश्वामित्र-वशिष्ठ के मंत्रोच्‍चार पर

शूर्पणखा, मारीच, सुबाहु

बाली का वध, अहिल्या का उद्धार
युद्ध भी धर्म की रक्षा हेतु
अधर्म के नाश में
पुलत्‍स्‍य कुल के तर्पण में

निशाचरों के विनाश
धर्म स्थापना में

जीवन चरित का आद्योपांत

गायन, श्रवण, वाचन, लेखन
जनकल्याण में मंदोदरी का पुनर्विवाह

विभीषण का राज्याभिषेक

पूरे किये 11000 बरस
और 1000 वर्ष शापित
राजा दशरथ को मुक्त करने
शांतवन-ज्ञानवती के श्राप से

मेरी लीलाओं का आद्योपांत वर्णन कहां?

सूरदास ने लखा बचपन
मीरा ने गाये प्रेम के गीत
द्वारिकाधीश के उपदेश
गीता के श्लोक गढ़े कुरूक्षेत्र में
वेदव्यास-गजानन ने

इतिहास को साक्षी बनाया
नीति और धर्म में
शिशुपाल के वध
और बहन सुभद्रा हरण में
कात्यायनी पूजा में वस्त्र चुराकर
निर्वसना गोपियों को
कर पाप मुक्त वरूण से
दिया मानव मात्र के सदगति हेतु
उपदेश अर्जुन को युद्ध क्षेत्र में


संतुलन और नीति के श्वास दिये
जन्म और मृत्यु में
युद्ध महाभारत का हो
या यदुवंशियों का नाश
चाहे कंस-जरासंध का वध
मुचकुंद के वर के कारण
बिताये हैं धराधाम में बरस 125
या लगा दें विराम 130 वर्षों में
यदुवंश के नियंत्रण संग

07.08 2012
यह रचना मेरे स्वजनों को समर्पित जिनके पुण्य प्रताप से
आज तक मैं जिन्दा हूँ और जिन्होंने सदैव मार्गदर्शन दिया है
उनकी शुचिता को प्रणाम .
चित्र गूगल से साभार

Friday, 3 August 2012

मेरा भ्रम?


कितना अजीब लगता है
यह कहना

सचमुच?
छूट गर्इ गाड़ी?
चली गर्इ तुम?
छूट गया मैं
विक्षिप्त, विस्मित, अचंभित
जीने की उत्कट लालसा में

गुजर गये सुनहरे लम्हे
बीत जाने पर वक्त बेखुदी के
मुझे महसूस हुआ
अपना रीतापन

मैं तो फकत जीता रहा
ता-उम्र
तुम्हारी पूर्णता में
अपनी रिक्तता को

आज भी उसी मोड़ पर
सूनी पगडंडी पर
बबूल के साये तले
निहारता शून्य को
तुम्हारी प्रतीक्षा में
निरर्थक?
बिखरता टुकड़ों में

ये मेरा भ्रम?
या विश्वास तेरा?
जानना है तुमसे ही
तुम ही बतलाओ ना?

शब्द स:शब्द
न संशय न जिज्ञासा
न कौतुहल
सहज आग्रह
मृत्यु के पूर्व


एक सच्ची कहानी उसे ही समर्पित
जो मेरे इमान और जान से भी ज्यादा कीमती है।

चित्र गूगल से साभार