एक कथानुसार महाभारत काल में पांडवों और कौरवौं में दुर्योधन और युधिष्ठिर के मध्य योग्य शासक के चयन का दायित्व विदुर को सौंपा गया। विदुर नीति निपुण थे अत: उनके द्वारा दुर्योधन और युधिष्ठिर से एक ही अपराध के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए सजा निर्धारित करने के लिए कहा गया। दुर्योधन ने विचारकर सजा निर्धारित किया जब सबका अपराध एक ही है तब उन्हें सजा भी एक ही मिलनी चाहिए। किन्तु युधिष्ठिर ने सजा निर्धारित किया-
शूद्र को सबसे कम सजा मिलनी चाहिए
वैश्य को उससे दो गुना अधिक,
क्षत्रिय को उससे तीन गुना अधिक
और ब्राह्मण को उससे चार गुना अधिक सजा मिलनी चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति को सजा में अधिकता या कमी उनके धर्मशास्त्र, नैतिकता, लोकाचार, जीवन दर्शन, मूल्यों के ज्ञान के आधार पर दिया गया जो उनमें वर्णानुसार पाया ही जाना चाहिए और अपराध का भाव उन गुणों को विलोपित करती है ऐसा कथन युधिष्ठिर का था।
एक दूसरी कथा में एक ही अपराध के लिए चार अलग-अलग वर्ण के लोगों को एक ही दण्ड दिया गया। किन्तु चारों वर्णों के सजा के परिणाम अलग-अलग मिले-
एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली,
दूसरा व्यकित गांव छोड़कर चला गया,
तीसरा व्यक्ति दरवाजा बंद करके रो रहा था,
और चौथा व्यकित चौराहे पर हंसकर निर्लज्जता से घटना क्रम को सुना रहा था।
मैं सोचने लगा शायद संस्कारों के कारण उनके व्यवहार में यह सब हुआ।
मन सोचने लगा?
''जन्मना जायते शूद्र:, संस्कारद द्विज उच्यते।।''
जन्म से मनुष्य एक प्रकार का पशु ही है। उसमें स्वार्थपरता की वृत्ति अन्य जीवन-जन्तुओं जैसी ही होती है, पर उत्कृष्ट आर्दशवादी मान्यताओं द्वारा वह मनुष्य बनता है।
आज हर बच्चा जन्म से
ब्राह्मण ही पैदा होता है
संस्कारों से
वह क्षत्रिय बन जाता है
संस्कार उसे
वैश्य बना जाता है
और संस्कारों के ही कारण
शूद्र रह जाता है।
अब कहां बच्चा जन्म से
शूद्र जन्म ले पाता है?
06.07.2000
एन इंडियन इन पिट्सबर्ग ब्लॉग के रचियता
श्री अनुराग शर्मा जी को सादर समर्पित
चित्र गूगल से साभार
गुरुकुल ५
Wednesday, 30 May 2012
Friday, 25 May 2012
सबा
हर शाम सुहानी आये
खुशियों के सबा लाये
मौजे-तबस्सुम के
सुबहे-मसर्रत में
हर सफर बीत जाये
ज़ाम मए-तरब
हो मुबारक तुझे
रहगुजर के खिजा
खार दे दे मुझे
शबे-इंतजार भी
रौशन सहर लाये
शाम आती रहे
बिन्ते-महताब बन
रूए-ताबां रहे
हश्र की रात तक
ये अश्को-तबस्सुम का
कारवां भी गुजर जाये
17.08.1978
चित्र गूगल से साभार
सबा=प्रात: समीर, मौजे-तबस्सुम=मुस्कान तरंग, सुबहे-मसर्रत=खुशी का
सबेरा,बिन्ते-महताब=चांद की बेटी, रूए-ताबां=ज्योर्तिमय, हश्र=प्रलय,
अश्को-तबस्सुम=आंसू और मुस्कान, कारवां=काफिला, जाम मए-तरब=
आनंद रूपी मदिरा, खिजां=पतझड़, रहगुजर=रास्ता, शबे-इंतजार=प्रतीक्षा
की रात, रौशन=प्रकाशित, सहर=सुबह,
Monday, 21 May 2012
विनम्र आग्रह
एक विनम्र आग्रह
जो बदल सकती है
अटूट रिश्तों में
ये मानवीय संबंध
बंध जाते है संस्कारों में
लेन-देन परिवारों का
पुराने रिश्तों का
अक्सर ये होता है
हम जीवंत कर देते हैं
अपनी नर्इ पीढ़ी को
और कभी-कभी
व्यकितगत क्षुद्रता में
निजी कुंठा के कारण
गांठ बांध बैठते हैं
फन फैलाकर उठता है
हमारा मिथ्या अहंकार
कर देता है सत्यानाश
प्रेम और सृषिट का
क्यों करें विरोध?
कैसी प्रतिद्वंदिता?
नये संबंधों से?
जिन्हे अंकुरित करने
हमने ही लिया है संकल्प
रिश्ता बने न बने
पुराने रिश्तों में
न लगे घुन, न बढ़े कटुता
यही क्या कम है?
प्रेम-परिचय, दया-मया
मिले कल भी जस का तस
नये रिश्तों से ही
प्रेम का गाढ़ापन
बनता-बिगड़ता है?
न हो पाये रिश्ते
कोर्इ गम नहीं
इसी बहाने उसकी गर्मी का
ऐहसास तो हो जाता है
पल चाहे प्रतिकूल हो
रिश्तों का गाढ़ापन
कम नहीं होना चाहिए
क्योंकि रिश्ते हमेशा
सिक्त ही रहते हैं
बशर्ते हम उन्हे निभाना जानें
जो हमारे वश में होता है
वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकीन।
उसे एक खूबसुरत मोड़ देकर छोड़ना बेहतर ।।
20.05.2012
चित्र गूगल से साभार
Wednesday, 16 May 2012
पंथहीन
एक सच मेरे अंक में
अपने पद चिन्ह छोड़ता
उम्र के इस पड़ाव पर
जायें तो कहां जायें?
चले भी गये तो
ठौर मिलता है?
किसी के घर जाने पर
या तो किसी की
निंदा सुननी पड़ती है
या कर बैठो
और शामिल हो जाओ
अकस्मात
किसी की निंदा-स्तुति में
और वह भी झूठी
ये दोनो ही
सुनने-सुनाने वालों पर
जाकर टिक जाता है
कि किस हद तक जाकर
निंदा वा स्तुति होती है
बैठे ठाले हमने भी
सीख लिया जीने का फन
न जाने कैसे आहिस्ता-आहिस्ता
आज खेल-खेल में
कैसे-कैसे गुर में
माहिर हो गये कदरदां
झूठी नैतिकता का लबादा ओढ़
पंथहीन बनकर
15.05.2012
चित्र श्री शांतिलाल पुरोहित जी अकलतरा
लक्ष्मी पुरोहित से साभार
अपने पद चिन्ह छोड़ता
उम्र के इस पड़ाव पर
जायें तो कहां जायें?
चले भी गये तो
ठौर मिलता है?
किसी के घर जाने पर
या तो किसी की
निंदा सुननी पड़ती है
या कर बैठो
और शामिल हो जाओ
अकस्मात
किसी की निंदा-स्तुति में
और वह भी झूठी
ये दोनो ही
सुनने-सुनाने वालों पर
जाकर टिक जाता है
कि किस हद तक जाकर
निंदा वा स्तुति होती है
बैठे ठाले हमने भी
सीख लिया जीने का फन
न जाने कैसे आहिस्ता-आहिस्ता
आज खेल-खेल में
कैसे-कैसे गुर में
माहिर हो गये कदरदां
झूठी नैतिकता का लबादा ओढ़
पंथहीन बनकर
15.05.2012
चित्र श्री शांतिलाल पुरोहित जी अकलतरा
लक्ष्मी पुरोहित से साभार
Friday, 11 May 2012
क्यों
क्यों कहूं किसी से?
है जरूरत क्या?
कब किसने मुझे थामा है?
किसने है मेरे घाव को सहलाया?
है कौन रूक गया मेरी सदा पे?
किसके उठे हैं कर मेरी दुआ को?
कौन है जो मेरे दर्द पर रोया हो?
फिर क्यों कहूं?
किसी से
र्इश्वर को
हाजिर-नाजि़र मानकर
मैं जो कहूंगी?
सच कहूंगी?
सच के सिवाय?
कुछ ना कहूंगी?
क्या मैं किसी देवदासी की संतान हूं?
या किसी नगर वधू की कोख से
किसी नपुंसक ने जना है मुझे?
तुमने है जैसे जन्म लिया जननी से
मैं भी उसी शिव-शक्ति के
संयोग की पहचान हूं
फिर क्यों उठे हैं हाथ मेरी हत्या को?
बेटी, बहु, मां बनकर क्यूं पल-पल?
जहर पी रही हूं कर्इ सदियों से?
मैं हूं तेरी जननी, जनक बतला तू?
फिर दिल तेरा क्यूं कुंद हो गया है?
खलबली ये क्यूं मेरे ही आने से?
तुमने मुझे बना दिया
परसोना नान ग्राटा
क्यूं अपमान
बस अपमान दर अपमान ये?
08.05.2012
भ्रूण हत्या पर बयान एक अजन्मे संतान का
जिसका हक बनता है जन्म लेने का धरती पर
मैं पक्षधर हूं मां, बहन, बेटी और स्त्री जाति का
जिनके बिना मेरा जीवन शून्य था, है, और रहेगा।
जो दे सकती है जन्म एक नर को
वह क्यों वंचित है स्वयं जन्म लेने से
यह प्रश्न अनुत्तरित है क्यों और कब से?
Monday, 7 May 2012
घर-घर की कहानी
जो जस लिखा तहां तस होई जनम विवाह मरन गति सोई।
तुलसीदास जी ने लिख दिया और खिसक लिए अपने धाम।
बातें तो हमें युग की निभाना इस युग में उस पर तुर्रा भारतवर्ष के गांवों की जहां लोग बुद्धिमान नहीं क्लेभर हो गये हैं लेकिन हम भी कहां मानने वाले थे निकल ही गये शादी लगाने चार मनमौजी परिवार में। चलते.चलते मेरी बहन ने कहा कुछ बातों का खयाल रखना तुम्हें दुःख नहीं होगा और न ही शादी लगाने में दिक्कत भी आयेगी।
नंबर 1 हम विश्व सुन्दरी नहीं हैं
नंबर 2 आपके पास इतना धन नहीं है कि किसी लड़के को खरीदा जा सके
नंबर 3 हम किसी महान पद पर कार्यरत नहीं कि जिसका लाभ दिखे
और नंबर 4 अंतिम बात हमारी उम्र 14 बरस नहीं कि आप 4 बरस शादी लगाने के लिये फेरे लगा पायें और लोग आपका इंतजार करते रहें।
खुशनसीब हैं वे लोग जिन्हें बेटा जैसा दामाद और भाई जैसा जीजा मिलता है और वे भी कम खुशनसीब नहीं जिन्हें बेटी जैसी बहू और बहन जैसी भाभी मिले। शायद जिंदगी को बेहतर जीने के लिए हमें जितना जरूरी है अच्छे दामाद की उतना ही जरूरी होता है एक अच्छी बहन जैसी बहू का होना जो दोनों कुलों के सम्मान की रक्षा करे।
हम चाहे कितने भी आधुनिक प्रगतिशील बहुआयामी खुले विचारधारा के बन जायें या होंए चाहे हम कस्बा से हटकर महानगर में बसे हों या फिर महानगर में ही पैदा हुए पले.बढ़े अति संवेदनशील युवा वर्ग के हों। हमारी संस्कृति, परम्परा, रीति रिवाज, मान्यता, संस्कार भारतवर्ष की माटी की सौंधी महक से जोड़े ही रखती है। लेकिन कभी.कभी ऐसा कुछ घट जाता है कि मन सोचने लग जाता है कि ऐसा क्यों कर हुआ
बाबूजी को उनके मित्र पुरोहित जी ने अपनी लड़की की शादी के लिए योग्य वर तलाशने की जिम्मेदारी सौंप दी। बाबूजी ठहरे धुन के पक्के सो ले गए उन्हें अपने परम मित्र अमर के घर, जहां संपन्नता पूरे घर में बिखरी पड़ी थी पूरा घर धन धान्य से अटा और बिखरा पड़ा था। जहां देखो वहीं कीमती सामान बिखरा हुआ जैसे ही बाबूजी ने शादी की बात चलानी चाही उनके मित्र ने मना कर दिया बाबूजी के कारण पूछने पर उन्होंने बाद में बताने की कह कर टाल दी कहा कि उनकी बेटी का जीवन यूं ही बीत जायेगा वह बिना सुख भोगे ही मर जायेगी। सो बात यहीं खतम करो।
बाबूजी ने बात खतम नहीं की बल्कि पुरोहित जी को अपने एक दूसरे अति आधुनिक मित्र आनंद के घर ले गए। घर कहां राजमहल था चारों ओर अति आधुनिक यंत्रों का जाल बिछा हुआ था। सुविधाओं का अंबार ही अंबार। रोबोट ने ही सब काम कियाए यहां तक जब कभी चाय की तलब हुई उसने ही बनाकर पिलाया और तो और 50 ग्राम चाय की खरीदी या अन्य सामानों की खरीदी भी उसी ने ही बार.बार की। बाबूजी ने जैसे ही शादी के बारे में बात आगे कहनी चाही पुरोहित जी ने इस बार भी उन्हें रोक दिया।
पूछने पर बड़ा अजीब जवाब मिला था।
बाबूजी 14अगस्त 1994 को तुलसीदास जी से मिलने चले गए मेरे मन में आज भी बातें घुमड़ती हैं, एक छोटा सा गोल उत्तर उस घर बेटी देकर क्या करना, मन सोचने लगता है, ऐसा किस दृष्टिकोण के कारण हुआ होगा, क्यों कर बन गया दोहरा मापदण्ड, रिश्तों के लिए नकार दिये गए दो संपन्न परिवार
एक संस्मरण 06.05.2012
चित्र गूगल से साभार
Wednesday, 2 May 2012
यकीन
मैंने भी ज़िंदगी को
देखा है करीब से
मैं यकीन नहीं रखती
भले ही तुम्हें असहज लगे
मैं कैसे मानूं?
ग्रह, नक्षत्र, राशि
और उनसे उत्पन्न
फल-प्रतिफल को
अगर ऐसा ही होता तो
गांधी को गोड़से गोली मारता?
कृष्ण कंस का वध करते?
राम-रावण का युद्ध होता?
दधीचि लोककल्याण में शरीर त्यागते?
दुर्योधन महाभारत का युद्ध करता?
दुःशासन द्रौपदी का चीर हरता?
द्रौपदी हंसती दुर्योधन पर?
गांधी मरकर मरे कहां?
गोड़से मारकर बच पाया कहां?
कंस के छल से कृष्ण मुक्त
दधीचि का त्याग,
दुर्योधन का दंभ,
दुःशासन की हंसी,
द्रौपदी का आर्तनाद
राशियां और काल की
ग्रह नक्षत्रों संग गणना कर देखें?
कर्म और धर्म का मर्म टटोलें?
वे अपने कर्मों से जाने गए?
कर्म ही महान होता है?
सत्-असत् की लड़ाई होती है?
मृत्यु ही एक शाश्वत् सत्य?
और जीवन एक झूठ?
अंततोगत्वा
अकल्पनीय जटिलता ले
28/04/2012
मन के भाव उसके जो मुझे अपने
जान और इमान से ज्यादा प्यारी
बस लिखावट मेरी सांझा सब कुछ
चित्र गूगल से साभार
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