गुरुकुल ५

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Friday, 27 April 2012

हिंसा

खून खराबा और तबाही लेकर
आया हमारा हमदर्द बनकर
जुल्म और अत्याचार के दौर में
रौशनी के सहर के वादे संग
लेकर आ गया हिंसा और
आतंकवाद
स्वाधीनता के इतने सालों बाद भी

और हम आरोप-प्रत्यारोप में उलझे
बस सियासी आपाधापी में
दांव-पेंच लड़ाते
अहंकार में डूबे
पाक दामन बने
नफरत से सने

हम सब निर्विकार
समस्याओं संग जस के तस
विश्वास के साथ कफन ओढ़े
क्यों इंसान होने की घोषणा करते हैं?


08/08/1995
अपहरण और फिरौती पर सार्थक, ठोस,
सर्वकालिक कदम की अपेक्षा में
राष्ट्र प्रमुख, तथाकथित जननेताओं,
रोटी सेंकने वाले बिचौलियों, और
सचमुच समस्या के हल में समर्पित
लोगो को एक निवेदन,
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, 25 April 2012

दिल


जेठ की धूप नरम लगती है?
चांद की किरण तेज लगती है?

मीठी बातें क्यों दिल में चुभती हैं?
भरे बाजार शरम लगती है?

सर्द राते क्यूं गरम लगतीं हैं?
सांची बातें ही भरम लगतीं हैं?

जिंदगी ऐसी है?

दिल हो खाली तो भली लगती है?
हाथ खाली तो बुरी लगती है?


18/08/2010
चित्र गूगल से साभार

Sunday, 22 April 2012

सखी

दहक उठे पलाश

साथ बिताये पलों के

तुम्हारे साथ

सखी बसंत आया

मेरे मन के द्वार

अब की बार

अकस्मात्


20/04/2012
तथागत ब्लाग के सृजन कर्ता श्री राजेश कुमार सिंह
को समर्पित उनकी रचना धर्मिता पर

Wednesday, 18 April 2012

उस पार

स्वर्गीय बाबूजी, श्री जीत सिंह 
नदी के तट पर बसा एक गांव
पिता-पुत्र का एकांतिक वास
पुत्र ने चलना सीखा जल पर
दस वर्षों के तपोबल से
उफनती निम्नगा की पार
बिना बेड़ा
सीखा तरंगिणी के पार जाना
जाना कुलंकषा के उस पार जीवन को




पिता ने चवन्नी देकर खेवटिया को
सरिता को नाव से कर दिया पार
और निरर्थक ठहरा दिया
दस वर्षों के तपोबल को

पुत्र ने मुस्कुराकर
संयत भाव से कहा तात्!
आपका कथन मिथ्या कहां?
नाविक का श्रम निःसंदेह
चार आने से कम हो सकता है

आपगा को तैरकर भी
पार उतरा जा सकता है?
किंतु मैने
इन दस वर्षों में
स्व को पहचाना,
अपनी दृष्टि से जाना
जीवन उस पार भी है

निर्झरिणी में नाव डूब भी सकती है
डूबने के डर से
पार उतरा जा सकता है?
आपने कहां और कब सिखलाया?
मैने अब जाना तपोबल से जीना

और बोध हुआ
आशंका, भय,या संभावना से
मुक्त जीवन जीने की कला
आरोपण सिद्धि के लिए
या ध्येय के लिए अर्थ?

मैने सीख लिया और जाना
सलिला के पार जाना

चित्र पिता श्री जीत सिंह
19/09/2007

Thursday, 12 April 2012

बन जाना


नदियां बनीं हैं जैसे, बूंदों को बांध के
तू भी बन जाना, हाथों को थाम के
लम्बा यहां सफर है, रस्ते वीरान से
कांटे भरे डगर हैं, राहें पहचान ले
मिलती चुनौतियां हैं, अपने ही काम से
संघर्ष ही नियति है, इतना तू जान ले
शबनम बनीं हैं जैसे, कोहरे को छान के
तू भी बन जाना, हर सुबह शाम से,

लहरें यहां हैं ऊंची, कश्ती को थाम ले
मंजिल तेरी नियति है, इतना तू ठान ले
चलता ये कारवां है, मंजिल को मान के
सागर सा बन जाना, गिरतों को थाम के
सूरज बना है जैसे, किरणों के नाम से
तू भी बन जाना, कर्मों को बांध के,

मिले हैं जमीं-आसमां, इक दूजे को थाम के,
हम फिर सदा मिलेंगे, पर चेहरे अनजान से,

16/03/1978
छोटी बहन रेखा सिंह को जन्मदिन पर समर्पित
चित्र गूगल से साभार 

Thursday, 5 April 2012

राजमाता कैकेयी


आज भी रामराज्य की स्थापना में
राजमाता कौशल्या ही होंगी
किंतु राजकाज कैकेयी का
होगा राम का अवतरण?
लक्ष्मण, भरतत्रुघ्न भाई
सीता, माण्डवी, उर्मिला और श्रुतिकीर्ति
विदेह राज की बेटियां
राजा दशरथ होंगे अयोध्यापति?

विश्वामित्र संग वशिष्ठ और ऋषिमुनि
आहूत करेंगे अग्नि और स्वाहा को
होंगे प्रबल सु बन में
आज भी कैकेयी वर मांगेंगी
लोककल्याण में रामराज का

राम को बनवास, सीता का हरण
जटायु का मरण, सुग्रीव की मित्रता
बाली की हत्या, समुद्र बंधन
लंका दहन, विभीषण की सेवा
रावण का वध, अयोध्या आगमन
राम का राज कैकेयी का संवाद?

कैकेयी का त्याग, राम का राज
अयोध्या की बात वही दिन वही रात
नये युग का सूत्रपात
जग ने राजमाता कैकेयी के
त्याग को ये कैसे भुला दिया?
उर्मिला का त्याग, लक्ष्मण का परित्याग
हनुमान की भक्ति, कैकेयी का वर
अयोध्या में आज भी मुख पृष्ठ पर है
लेकिन राजमाता कैकेयी ने
फिर से कहां, किसके घर जनम लिया?

तुम दाउ बनो, तभी मैं कृष्ण कहलाउंगा
तुम राम बनो, मैं लखन बन जाउंगा

तुम बन चलो, मैं पीछे चला आउंगा
यदि तुम दसशीश बने, मैं विभीषण बन जाउंगा

राजमाता कैकेयी के त्याग को समर्पित 20/02/2007

चित्र गूगल से साभार