प्रत्येक जाति, वर्ग, समुदाय की अपनी पहचान या कहें विशिष्टता उसके सभ्यता, संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज, खान-पान, मांगलिक कार्य, क्रिया-कर्म, धार्मिक कार्यों में परिलक्षित होता है, बस ऐसे ही किसी लड़की या महिला का पहनावा या गहना उसके जाति, वर्ग, समुदाय, धर्म, हैसियत, सामाजिकता के साथ-साथ क्षेत्र को भी स्पष्ट करता है ।
त्रेता युग में श्री रामचंद्र संग माता सीता जी, राजा दशरथ संग महारानी कैकेयी, माता कौशल्या, मां सुमित्रा और द्वापर युग में श्री कृष्ण संग पटरानिया सत्यभामा, रूकमनी , , , और राजा रानियों से लेकर सामान्य जन ने श्रृंगार से जनमानस में अपनी अलग पहचान बनाई है। श्री कृष्ण जी ने आभूषणों के साथ मोर पंख को धारण कर सौंदर्य वृद्धि में प्रकृति को अमूल्य रत्नों, धातुओं से भी ज्यादा महत्वपूर्ण स्थान प्रदान कर दिया।
प्राचीन खेलों में जैतून की पत्ती को सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी के सिर का ताज बनाया गया। तुलसी के जड़ या तने से बनी कंठी या रूद्राक्ष का महत्व सर्वविदित है। लाल और काले रंग के खूबसुरत गुंजा (रत्ती) के दानों को और रीठा के बीज, बघनखा, ठुमड़ा मुंगुवा, ताबीज, काला धागा और मोती को भी श्रृंगार में स्थान मिला, वहीं इसका उपयोग नजर न लगने के लिये भी किया गया, तो दूसरी ओर कान और नाक की सुरक्षा व सौंदर्य वृद्धि के लिये लौंग का उपयोग राजा-रंक से लेकर ऋषि मुनियों और उनकी कन्याओं ने बड़े सहज ढंग से किया है। शकुन्तला का फूलों से श्रृंगार का वर्णन महाकवि कालीदास के काव्य में देखा जा सकता है। आज भी समुद्र की कौड़ी, सीप के साथ स्फटिक का उपयोग श्रृंगार के लिए किया जाता है।
भारत का हृदय मध्यप्रदेश और मध्यप्रदेश का विभाजित भाग छत्तीसगढ अपनी सभ्यता, संस्कृति, लोकगीत, परंपरा, मीठी बोली छत्तीसगढ़ी, लोकनृत्य, हस्तकला, प्रेम, सद्भाव, सहिष्णुता, खनिज संपदा, विस्तृत वन मंडल और शांत जीवन शैली के लिये पूरे विश्व में जाना जाता है।
पारंपरिक और धर्म से जुड़ा गोदना ही एक ऐसा आभूषण है, जो मृत्यु के बाद हमारे साथ स्वर्ग तक जाता है, ऐसी मान्यता है।
माथे का आभूषण- सिन्दूर विवाहित महिलाओं का प्रमुख श्रृंगार, बिन्दी, टिकली, मांघ टिका, बेंदी
ओंठों का आभूषण- लिपिस्टिक
आखों का आभूषण- काजल, सुरमा
जूड़ा और चोटी के आभूषण- फूल, मोर एव पक्षी के पंख, कौड़ी, ककई, फंदरा, फूंदरी, मांघ मोती, मांघ टीका, बेंदी, पटिया, खोपा, झाबा, बेनी फूल
नाक का आभूषण- फुल्ली, लौंग फूल, नथ, नथनी, सरजा नथ, बुलांक
कान का आभूषण- ढार, तरकी, खिलवा, बारी, इयरिंग, फूल संकरी, लौंग फूल, खूंटी, तितरी, करन फूल, झूमका, बाला, लटकन
गला का आभूषण- सूंता, पुतरी, कलदार, सुर्रा, संकरी, तिलरी, दुलरी, हार, लछमी हार, मंगलसूत्र, हंसली, हमेल, कटवा, मरीचदाना, गुलुबंद, गहूंदाना, तौंक, चारफोकला, गंठूला, गोफ, गुखरू, कंठी, गलपटिया, दस्तबंद
बाजू का आभूषण- बाजूबंद, नांगमोरी, बंहूंटा, आर्मलेट
कमर का आभूषण- कमर पट्टा, करधन, संकरी, घूंघरू, चाबी गुच्छा
हाथ या कलाई का आभूषण- चुरी, ककनी, कड़ा, हर्रैया, बनुरिया, पटा, पहुंची, अइंठी, बघमुंही, हंथमुंही
हाथ की अंगुलियों के आभूषण- मूंदरी, देवरइंहा-परछइंहा, लपेटा, अंगठहा, हांथपोंछ
पैर की अंगुलियों के आभूषण- मुंदरी, बिछिया, चुटकी, कोतरी, कउंआ गोड़ी, बमरी बीज, पांव पोंछ
पैर के आभूषण- पइरी, सांटी, झांझ, लच्छा, पायजेब, पंजीना, कड़ा, पैर पट्टी, पायल, कटहर, टोंड़ा, गुलशन पट्टी, जेहर, निंधा टोंड़ा
आभूषण जहां हमारे सौंदर्य में वृद्धि करते हैं, साथ ही साथ हमारे जीवन दर्शन को भी उजागर करते हैं। बदलते परिवेश में इन आभूषणों को थोड़ा सा बदलकर आज भी बड़े शौक से पहना जा रहा है ।
गहनों के नाम के संकलन में माताजी, बहनों और चंदन ज्वेलर्स अकलतरा के श्री मदन मामाजी एवं श्री कैलाश मामाजी का महत्वपूर्ण योगदान है। इनका आभार हो सकता है किसी गहने के नामकरण में भी कहीं कोई कमी हो आप मुझे अवसर देंगे सुधार का।
प्रतीक्षा में आपका अपना रमाकांत सिंह 11/11/1978