गुरुकुल ५

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Saturday, 31 March 2012

किनारा


सूर्य की प्रचण्डता से
समुद्र का जल होता है वाष्पित
बनते हैं मेघ
जो आते हैं अक्सर समय पर
और कभी-कभी आगंतुकों से
बनाते हैं सेतु जल कणों के लिए
वहीं आने के लिए
जहां से वे उठे थे

ये सराबोर कर देती हैं धरा को।
बूंदों से बनती है जलधारा
सलिलधारा अपनी प्रकृति से
चल पड़ती है ढलान की ओर
समतल जमीन पर उकेरने लगती है
बारीक लकीरें

समतल धरती कटने लगी
जलप्रवाह ने बना दिया नाला
प्रबल धारा से समतल धरा पर
बन गई वेगवती नदी
सपाट वसुंधरा बंट गई
दो पाटों में

दोनों अलग-अलग किनारे
गहरे होते चले गए
अपनी-अपनी नियति से
कभी न मिलने के लिए

समय के साथ-साथ
नदी मिल गई समुद्र में
किंतु वाष्पित जल ने बांट दिया
समतल धरती को दो हिस्सों में

नदी के किनारे खुद ब खुद
होते चले गए चिकने गंदी जलधारा से
कोई कभी पैर धरेगा किनारों पर?
फिसलेगा ही विद्वान
चाहे कितनी ही समझदारी हो
बन जाती है यह नियति

अब नियति की नीयत पर
सवाल और अविश्वास क्यों?
अब करो किनारा या ढूढ लो
नियति की नियति को

10/02/2007
तथागत ब्लाग के सृजनकर्ता
श्री राजेश कुमार सिंह को सादर समर्पित
मजबूत रिश्ते /संबंध भी ऐसे ही बनते बिगड़ते
चले जाते हैं बड़ी पीड़ा होती है खून के रिश्तों को
अलग बंटा देखकर आंसू छलकते ही नहीं।

ये बात नहीं कि गम नहीं, हां मेरी आंखें नम नहीं।
चित्र गूगल से साभार

Thursday, 29 March 2012

शाश्वत



विचारों के अनंत सागर में
पानी में बनी
सीधी लकीरें
स्वप्न या दिवास्वप्न

दिवास्वप्न ही जीवन है?
जीवन एक जंजीर?
जिसकी कडि़यां खुलती हैं

बंधकर खुलने तक
यह एक माया?
छल, भ्रम, अनुगूंज
या झंकार है?

एक से जुड़ी
दूसरी दत्तक कड़ी
कोरी कल्पना?
मिथ्या किंवा
शाश्वत सत्य
भ्रमबोध में
पुनः-पुनश्च

11/10/1975
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, 27 March 2012

आह्वान



गाओ मंगल गान
आया स्वर्ण विहान
मंथन कर दे युग के गौरव
कर दे अमृत दान

तेरा पौरुष बोल रहा
सागर रस्ता छोड़ रहा
राष्ट्र प्रेम के पुण्य पंथ पर
करते हम आह्वान

तरु पल्लव में छाई लाली
कोयल बोले डाली-डाली
तरुणाई ने ली अंगड़ाई
तन-मन-धन बलिदान

नव युग के नव ज्योत जला
तूफानों से होड़ लगा
बंधन तोड़ दृगों के जर्जर
दे नव धवल विहान

25/01/1977
चित्र गूगल से साभार

Saturday, 24 March 2012

टूटती कडि़यां

आज के दौर में स्नेह और आत्मीयता की टूटती कडि़यों

बिखरते संबंधों के साथ मुझे
अपने पिछवाड़े बंधी भैंस याद आने लगती है।
एक बार मैने भैंस को बांध दिया सांकल से,
सांकल को बांध दिया खूंटे से, अब खूंटे को
गाड़ दिया जमीन में और सो गया चादर तानकर।

हम सदैव सोचते हैं कि हमने अपने दायित्वों का
निर्वहन कर दिया, हो गई दायित्वों की इति।

मैने अपने कर्तव्य पूर्ण कर लिए।
मैने कभी भी पूरक बिंदुओं पर ध्यान नहीं दिया,
न ही कभी किसी कमी पर अपना ध्यान केंद्रित किया
और पूरी निश्चिंतता से पांव पसारकर नींद ले ली।

अचानक आंख खुली और मैने पाया कि जिन
पौधों को बड़े जतन से अपने श्रमकणों से सींचा था
उन पौधों को भैंस ने कुछ ही पलों में ठूंठ में बदल दिया।
एक लंबे समय तक पीड़ा से छटपटाता रहा,
विचार करता रहा कि एक ही पल में यह कैसे हो गया?

वास्तव में नुकसान के बाद पूरी बातें समझ में आई
कि भैंस सांकल से बंधी थी, सांकल खूंटे से बंधी थी,
और खूंटा गाड़ा गया था जमीन में जब सब कुछ ठीक है
तो पौधे ठूंठ में कैसे बदल गए?
वास्तव में मैं सांकल की प्रत्येक कड़ी को देखना भूल गया,
एक कमजोर कड़ी को परखना भूल गया।
बस फिर क्या था खुल गई भैंस।

और इसी एक चूक ने मेरे बरसों के परिश्रम पर पानी फेर दिया।
मै आज समझ पाया कि प्रत्येक पल प्रति क्षण मुझे सजग और चेतन रहना था।
सभी कडि़यां महत्वपूर्ण हैं प्रति पल का ध्यान रहे तभी हमारा पूर्व कार्य सार्थक
और यथावत बच पाता है।

रमाकांत सिंह 16/01/2010 अकलतरा मेरी आत्मकथा से

Monday, 19 March 2012

बोलती बंद



आज भी वे खड़े हैं
मौन
स्तब्ध

हमें इन्होंने देखा है
आज से कल
और कल से आज में
बदलते हुए

इसी राह पर
आते हुए, जाते हुए
और सच कहूं तो
गुजरते हुए
गुजरा हुआ कल
बनते हुए

आज हम फिर इन राहों पर
गुजरते हुए
जब अपने भविष्य के
तानों बानों में उलझे हुए हैं

जब इतिहास रचने की
कल्पना संजोते हुए गुजरते हैं
तब यही पेड़, नदियां, पर्वत
झरने और पुल
मौन रहकर भी कहते हैं

मैने देखा है तेरा आज
इतिहास में बदलते हुए
कभी-कभी
मैं सोचती हूं
ये हमें चिढ़ाकर कह रहे हैं
कि तू सिर्फ
इतिहास रचने वाला है
मैं तो इतिहास साक्षी हूं।
मैने ही देखा है सभी की
बोलती बंद होते हुए

चित्र गूगल से साभार
रमाकांत सिंह 19/03/2012
मेरी जिंदगी की जबानी कही
एक सच्ची कहानी उसे ही समर्पित
जो मेरे इमान और जान से भी ज्यादा कीमती है।

Wednesday, 14 March 2012

मां

हर सुबह मेरी मां
यूं गुनगुनाती है
ये प्राची की किरणें
एक शाम लाती है
हर शाम की घंटी
एक गीत गाती है
उठ देख आ लल्ला
तेरी दीदी बुलाती है

लहरें समंदर की
या हो रेत की आंधी
बरसे गगन अग्नि
या रात अंधियारी
बन वृक्ष की छाया
सदा वो फैल जाती है

आंचल धरा का वो
सृजन बन फैल जाती है
मेरी मां गुनगुनाती है
मुझे लोरी सुनाती है

(चित्र गूगल से साभार)
रमाकांत सिंह 15/10/1997

Sunday, 11 March 2012

भेड़िया

बहुत कठिन है
भेड़ों के बीच
भेड़ खोज पाना।

भेड़ों के बीच भेड़
भेड़ ही
खोजना जानता है

और बार-बार
खोज लेता है गड़रिया

या फिर खोज निकालता है
घात लगाकर भेड़िया

जन्म से
मैं भेड़ हूं नहीं

भेड़ों के बीच रहकर भी
रेवड़ में
गड़रिया बन नहीं पाया

और
बन गया तो?




रमाकांत सिंह 26/02/2007

Friday, 9 March 2012

तुम बदल गई ?


आप बदल गये
इसलिए मैं बदल गई
नहीं।
तुम बदल गई
इसलिए मैं बदल गया
मैं जैसी भी हूं
अच्छी हूं या गंदी हूं
आपकी अपनी हूं


नहीं।

तुम जैसी भी हो
तुम मेरी जिंदगी हो।

हमने पाल लिया एक भ्रम
बदला कुछ भी नहीं हमारे बीच
बस समझने-समझाने का ढंग बदल गया
आंखों ने जो देखा
उसे ओठों ने कहना बंद कर दिया।
कानों ने जो सुना
उसे दिमाग ने पढ़ना बंद कर दिया।

हवाओं में आज भी
सरसराहट है
हाथ आज भी
खिड़की के बाहर है
बंद कमरे में आज भी
कोई चीखता है

और हर सू एक ही चेहरा दिखता है।

रमाकांत सिंह 01/03/2011
(चित्र गूगल से साभार)

Tuesday, 6 March 2012

कल और आज

हाथों की मुट्ठियां तब
हाथों की अंगुलियां कब?
खुली रह गई इतनी कि
अंजुरी में धरे पल
चुक गये हाथों से
रेत कणों की तरह

और मैं निहारता रहा

हाथों की मुट्ठियां अब
और हाथो की अंगुलियां कब?

क्यों बंध गये इतने?
कि अंगुलियों में कसी सांसों ने
दम तोड़ना शुरू कर दिया
और मैं आज भी
निहारता रहा बेबस

हर बार क्यों?
एक नया प्रश्न
प्रश्न पर प्रश्न
और उत्तर पर
पुनः वही प्रश्न
तब क्यों खुली रह गई मुट्ठियां?
और बंध गये हाथ
और आज क्यों बंद हो गई मुट्ठियां?
खुले रह गये हाथ

रमाकांत सिंह होली बुधवार 11/03/2009
चित्र गूगल से साभार

Sunday, 4 March 2012

छत्तीसगढ़ के परंपरागत आभूषण


प्रत्येक जाति, वर्ग, समुदाय की अपनी पहचान या कहें विशिष्टता उसके सभ्यता, संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज, खान-पान, मांगलिक कार्य, क्रिया-कर्म, धार्मिक कार्यों में परिलक्षित होता है, बस ऐसे ही किसी लड़की या महिला का पहनावा या गहना उसके जाति, वर्ग, समुदाय, धर्म, हैसियत, सामाजिकता के साथ-साथ क्षेत्र को भी स्पष्ट करता है ।

त्रेता युग में श्री रामचंद्र संग माता सीता जी, राजा दशरथ संग महारानी कैकेयी, माता कौशल्या, मां सुमित्रा और द्वापर युग में श्री कृष्ण संग पटरानिया सत्यभामा, रूकमनी , , , और राजा रानियों से लेकर सामान्य जन ने श्रृंगार से जनमानस में अपनी अलग पहचान बनाई है। श्री कृष्ण जी ने आभूषणों के साथ मोर पंख को धारण कर सौंदर्य वृद्धि में प्रकृति को अमूल्य रत्नों, धातुओं से भी ज्यादा महत्वपूर्ण स्थान प्रदान कर दिया।

प्राचीन खेलों में जैतून की पत्ती को सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी के सिर का ताज बनाया गया। तुलसी के जड़ या तने से बनी कंठी या रूद्राक्ष का महत्व सर्वविदित है। लाल और काले रंग के खूबसुरत गुंजा (रत्‍ती) के दानों को और रीठा के बीज, बघनखा, ठुमड़ा मुंगुवा, ताबीज, काला धागा और मोती को भी श्रृंगार में स्थान मिला, वहीं इसका उपयोग नजर न लगने के लिये भी किया गया, तो दूसरी ओर कान और नाक की सुरक्षा व सौंदर्य वृद्धि के लिये लौंग का उपयोग राजा-रंक से लेकर ऋषि मुनियों और उनकी कन्याओं ने बड़े सहज ढंग से किया है। शकुन्तला का फूलों से श्रृंगार का वर्णन महाकवि कालीदास के काव्य में देखा जा सकता है। आज भी समुद्र की कौड़ी, सीप के साथ स्फटिक का उपयोग श्रृंगार के लिए किया जाता है।

भारत का हृदय मध्यप्रदेश और मध्यप्रदेश का विभाजित भाग छत्तीसगढ अपनी सभ्यता, संस्कृति, लोकगीत, परंपरा, मीठी बोली छत्तीसगढ़ी, लोकनृत्य, हस्तकला, प्रेम, सद्भाव, सहिष्णुता, खनिज संपदा, विस्तृत वन मंडल और शांत जीवन शैली के लिये पूरे विश्व में जाना जाता है।

पारंपरिक और धर्म से जुड़ा गोदना ही एक ऐसा आभूषण है, जो मृत्यु के बाद हमारे साथ स्वर्ग तक जाता है, ऐसी मान्यता है।

माथे का आभूषण- सिन्दूर विवाहित महिलाओं का प्रमुख श्रृंगार, बिन्दी, टिकली, मांघ टिका, बेंदी

ओंठों का आभूषण- लिपिस्टिक

आखों का आभूषण- काजल, सुरमा

जूड़ा और चोटी के आभूषण- फूल, मोर एव पक्षी के पंख, कौड़ी, ककई, फंदरा, फूंदरी, मांघ मोती, मांघ टीका, बेंदी, पटिया, खोपा, झाबा, बेनी फूल

नाक का आभूषण- फुल्ली, लौंग फूल, नथ, नथनी, सरजा नथ, बुलांक

कान का आभूषण- ढार, तरकी, खिलवा, बारी, इयरिंग, फूल संकरी, लौंग फूल, खूंटी, तितरी, करन फूल, झूमका, बाला, लटकन

गला का आभूषण- सूंता, पुतरी, कलदार, सुर्रा, संकरी, तिलरी, दुलरी, हार, लछमी हार, मंगलसूत्र, हंसली, हमेल, कटवा, मरीचदाना, गुलुबंद, गहूंदाना, तौंक, चारफोकला, गंठूला, गोफ, गुखरू, कंठी, गलपटिया, दस्तबंद

बाजू का आभूषण- बाजूबंद, नांगमोरी, बंहूंटा, आर्मलेट

कमर का आभूषण- कमर पट्टा, करधन, संकरी, घूंघरू, चाबी गुच्छा

हाथ या कलाई का आभूषण- चुरी, ककनी, कड़ा, हर्रैया, बनुरिया, पटा, पहुंची, अइंठी, बघमुंही, हंथमुंही

हाथ की अंगुलियों के आभूषण- मूंदरी, देवरइंहा-परछइंहा, लपेटा, अंगठहा, हांथपोंछ

पैर की अंगुलियों के आभूषण- मुंदरी, बिछिया, चुटकी, कोतरी, कउंआ गोड़ी, बमरी बीज, पांव पोंछ

पैर के आभूषण- पइरी, सांटी, झांझ, लच्छा, पायजेब, पंजीना, कड़ा, पैर पट्टी, पायल, कटहर, टोंड़ा, गुलशन पट्टी, जेहर, निंधा टोंड़ा

आभूषण जहां हमारे सौंदर्य में वृद्धि करते हैं, साथ ही साथ हमारे जीवन दर्शन को भी उजागर करते हैं। बदलते परिवेश में इन आभूषणों को थोड़ा सा बदलकर आज भी बड़े शौक से पहना जा रहा है ।

गहनों के नाम के संकलन में माताजी, बहनों और चंदन ज्वेलर्स अकलतरा के श्री मदन मामाजी एवं श्री कैलाश मामाजी का महत्वपूर्ण योगदान है। इनका आभार हो सकता है किसी गहने के नामकरण में भी कहीं कोई कमी हो आप मुझे अवसर देंगे सुधार का।

प्रतीक्षा में आपका अपना रमाकांत सिंह 11/11/1978

चित्र गूगल से साभार

Friday, 2 March 2012

पल


रमता जोगी बहता पानी
ये दुनियां का रीत पुरानी

बीते दिन बीते पल रैना
बिकल आत्मा पाये न चैना
काहे भर गये प्यासे नैना
दोहराता फिर वही कहानी

बिजली चमके जैसे घन में
सुख-दुःख हैं वैसे जीवन में
फिर क्यों भूला नश्वर तन में
करम किये जा तू भी दानी

बृथा भूल में पल बिसराया
बड़े भाग मानुष तन पाया
फिर माया क्यों कर भरमाया
मोह प्रीत में भूला प्रानी

अजब अनोखा तेरा खेला
सतरंगा जीवन का मेला
आये-जाये फिर भी अकेला
जीवन है बस आनी-जानी

चित्र गूगल से साभार
रमाकांत सिंह 06/05/1978 दंतेवाड़ा