गुरुकुल ५
Wednesday, 29 February 2012
कालजयी
जनमता है धृतराष्ट्र
तब पुत्र
दुर्योधन ही होता है
बांधती है पट्टियां
दृष्टि पर गांधारी
चीरहरण द्रौपदी का
दुःशासन करता है
द्रोण और विदुर संग
देखता है भीष्म
कृष्ण के साड़ी से
ढकती है लाज रोज
कालजयी पा़त्र
नित लेते हैं जनम
रमाकांत सिंह 15/07/2006
Tuesday, 28 February 2012
नोनी
मन म सब कचरा माढ़े
पहिरे हे कुरता खादी
जनता के राज म भईया
मोर जर गे परवा छांदी
तोर टिपिर-टिपिर भाषन ह
बनगे मिरगा के धोखा
मोर छत्तीसगढ़ ह रहिगे
खाली माचिस के खोखा
तोर करम के खातिर बंधवा
मोर करम म परगे सांधी
मोर छोकरी के देंह दिखथे
जईसे बिन खपरा छांदी
पखना कस छाती धरके
मैं काकर खांवां मांदी?
मोर लइका भूखन रहिगे
तोर राम राज म गांधी
बरगे-बरगे मोर कुरिया
जरगे-जरगे मोर लइका
थहिगे, रहिगे मोर पीरा
आंखी म कटगे रथिया
मोर नोनी जरके मरगे
तोर राम राज म गांधी
रमाकांत सिंह 11/04/1978
बचेली, बस्तर छत्तीसगढ़ के
अग्निकांड में मृत लोगों को समर्पित
चित्र गूगल से साभार
Sunday, 26 February 2012
पानी
भले लगते हैं
लिखे पन्नों पर
हार पर हर्ष
मूल्य आदर्श
मां का दूध
बेटा कपूत
दूध का कर्ज
बेटे का फर्ज
अपनों के लिए
जियें और मरें
मौत का आना
पानी का जाना,
देवता पत्थर के
रिश्ते शहर के
आसमां के तारे
नदी के किनारे
रामलाल की बेटी
चोकरे की रोटी
गरीब की बन्डी
कोठे की रण्डी
मंदिर में नमाज़
मस्जिद में कीर्तन
हिन्दू का निकाह
मुस्लिम का वन्दन
आदमी में इन्सान
मन्दिर में भगवान
टूटते सपने
बिखरते अपने
पुरूष का अहंकार
नारी का अधिकार.
रमाकांत सिंह 14/12/1996
हमारे जीवन में व्यवहार और सिद्धांत में
अंतर होता है शायद इसी कारण
जो व्यवहारिक है वह सैद्धांतिक नहीं होता
और जो सैद्धांतिक है वह व्यवहारिक नहीं होता।
Friday, 24 February 2012
कैसे
नये ताल में
नये छंद का
नये राग में
नये बंध का
नये सुरों में
नये कंठ का
नई क्रांति का
संकल्पों का
कैसे गीत सुनाऊं?
बड़े भोर ही
नये पहर में
नये डगर का
नये द्वार का
नई उमर का
जाति-धर्म का
बैर-भाव का
लोभ-मोह का
दुःख-दरिद्र का
कैसे राग मिटाऊं?
किसको गीत सुनाऊं?
काहे मनमीत बनाऊं?
को संग कब प्रीत बढ़ाऊं?
पल-छिन खुद से शरमाऊं?
रमाकांत सिंह 18/07/1996
नये छंद का
नये राग में
नये बंध का
नये सुरों में
नये कंठ का
नई क्रांति का
संकल्पों का
कैसे गीत सुनाऊं?
बड़े भोर ही
नये पहर में
नये डगर का
नये द्वार का
नई उमर का
जाति-धर्म का
बैर-भाव का
लोभ-मोह का
दुःख-दरिद्र का
कैसे राग मिटाऊं?
किसको गीत सुनाऊं?
काहे मनमीत बनाऊं?
को संग कब प्रीत बढ़ाऊं?
पल-छिन खुद से शरमाऊं?
रमाकांत सिंह 18/07/1996
Tuesday, 21 February 2012
दृष्टिहीनता
संक्रमित अतीत का गूंगापन
सन्नाटे की जगत पर
चीखता क्रांति के इंतजार में
खुरदुरी हथेली पर
चिकने तस्वीर की कल्पना में
इतराता अपनी दृष्टिहीनता पर,
वाद-प्रतिवाद में घिरा
अस्तित्व रक्षार्थ
अकेलेपन की आंच सहते
समग्रता से
अपनी परिधि लांघकर,
नंगे पांव निःशब्द मूक
रेंगते बेचैन
शापग्रस्त कीड़े की तरह
सहजता से अस्वीकार करता
अपनी सर्द अस्मिता
रमाकांत सिंह 5/11/1995
चित्र गूगल से साभार
Saturday, 18 February 2012
तसव्वुर
तनहा तसव्वुर में बिंधकर कहीं खो गया
जैसे साहि़ल पे उठता सहर सो गया
देखा कभी रात में उठता कभी भोर में
चंचल-चंचल लहर नयनों के इन कोर में
अश्को-तबस्सुम सा जैसे बयां हो गया
तनहा खयालों में बिंधकर कहीं खो गया
बीती हुई रात से जुड़कर कई हादसे
बिखरे नये ख्वाब में मिलकर गले आज से
भूले नज़़्मों की तरह जैसे धुआं हो गया
तनहा खयालों में बिंधकर कहीं खो गया
गाहे देती सदा ख्वाबों खयालों में
लम्हे तबस्सुम के ग़़म के हिज़ाबों में
मुड़कर सरे-राह से जैसे बयां हो गया
तनहा तसव्वुर में बिंधकर कही खो गया
रमाकांत सिंह 15/07/1978 दंतेवाड़ा
जैसे साहि़ल पे उठता सहर सो गया
देखा कभी रात में उठता कभी भोर में
चंचल-चंचल लहर नयनों के इन कोर में
अश्को-तबस्सुम सा जैसे बयां हो गया
तनहा खयालों में बिंधकर कहीं खो गया
बीती हुई रात से जुड़कर कई हादसे
बिखरे नये ख्वाब में मिलकर गले आज से
भूले नज़़्मों की तरह जैसे धुआं हो गया
तनहा खयालों में बिंधकर कहीं खो गया
गाहे देती सदा ख्वाबों खयालों में
लम्हे तबस्सुम के ग़़म के हिज़ाबों में
मुड़कर सरे-राह से जैसे बयां हो गया
तनहा तसव्वुर में बिंधकर कही खो गया
रमाकांत सिंह 15/07/1978 दंतेवाड़ा
Thursday, 16 February 2012
बाट
बचपन में मां ने कई कहानियां सुनाई। उनमें से एक कहानी खरगोश और कछुआ की दौड़ की कहानी आज भी मां बड़े प्रेम से सुनाती है। खरगोश तेज दौड़कर भी प्रतियोगिता हार जाता है और कछुआ धीरे-धीरे चलने के बाद भी जीत जाता है। इस कहानी का रास्ता शायद कथाकार ने तय किया था, लेकिन कहानी यहां समाप्त नहीं होती ऐसा मामा ने कहा।
मन में जिज्ञासा हुई तब क्या हुआ होगा?
इस बार लक्ष्य तक पहुंचने का रास्ता खरगोश ने निश्चित किया। फिर क्या था, पहाड़ी रास्तों में कछुआ बार-बार फिसलता गया और खरगोश आसानी से उछलता कूदता मंजिल तक पहुंच गया। कछुआ हार गया किन्तु उसने हिम्मत नहीं हारी। कहानी यहां भी कहां समाप्त हुई?
इस बार लक्ष्य तक पहुंचने का रास्ता कछुआ ने निश्चित किया, फिर क्या था कछुआ नदी में उतरकर जलमार्ग से तैरकर अपनी मंजिल तक पहुंच गया। अब की बार खरगोश देखता रह जाता है।
कहानी चाहे मगर और बंदर की हो या सारस और लोमड़ी की। या फिर कहानी बहेलिया और चिडि़या की हो। जीवन से जुड़ी कहानियां अंतहीन होती हैं, कभी कोई मंजिल तक जल्दी पहुंच जाता है तो कोई रास्ते में सोकर पीछे रह जाता है।
आप हर हाल में मंजिल तक पहुंचें इस आशा में ... ... ...
रमाकांत सिंह अपनी मां के साथ आपकी बाट जोहता 14/02/2012
Tuesday, 14 February 2012
ऋतु
नन्ही सी गुडि़यों की रानी
आई है परियों की नानी
नित आती रहें चंदा की किरण
बन्नों बन जाना तू चंदन
महके तुमसे गुलशन-गुलशन
खुश्बु से झूमे सारा चमन
लाई सौगातें मनमानी
ऋतिुओं की रानी दिवानी
कुंदन सा चमके तेरा बदन
लोरी गायें ये मस्त पवन
तेरा दामन सजाये ये सावन
ठुमके गाये आंगन-आंगन
ओढ़े तू नई चुनरी धानी
जैसे मौजें ये मस्तानी
मेरे सपनों का तू सिरजन
मेरे आंचल का तू है धन
सुरज से तेरा हो बंधन
राहों में बिखरें रोज सुमन
गंगा की धारा हो जीवन
जगती सा पावन तेरा मन
रमाकांत सिंह 14/04/1978 दंतेवाड़ा
सौभाग्यकांक्षी ऋतु सूद आत्मजा श्री महेंद्र सूद
के जन्म के 6वें दिन के अवसर पर सस्नेह समर्पित
दंतेवाड़ा जिला बस्तर छत्तीसगढ़
Sunday, 12 February 2012
लक्ष्यहीन
बौनी अस्मिता
संपूर्ण नियति में
जमीन के उपर
जड़ें जमाती
और हम सब
स्वयं से प्रश्न करते
परिवर्तन के प्रबल समर्थक
भरे बाजार मादर जात,
पौ फटते ही
तेज धूप में
सृजन
एक सार्वभौमिक यथार्थ
वापस हमारी ओर
जटिलताऐं और उलझनें लेकर
और हम सब पुनः
आकुल लक्ष्यहीन
आंखें मीचे अंततः
निर्णय-अनिर्णय में डगमगाते
अजीबो-गरीब हुलिया में
मुंह अंधेरे
पैरों तले
जुगनुओं के दुम की रोशनी में
तलाशते सहर को
रमाकांत सिंह 20/10/1995
Tuesday, 7 February 2012
राहें
अनचाहे मूल्य टेढ़ी राहें
अपने -अपने
बोझ तले
संघर्ष सपने और अरमान
संकुचित दायरे में कैद
अनदेखे हक का सवाल,
और मैले फटे आंचल पर
अलविदा कहते गहरे छींटे
दलदल में धंसा सराबोर
आदि से अंत,
बंदिशों की गंभीरता संग
रिश्तों का कसता सिकंजा
प्रतीक्षारत् जर्जर
नये मूल्य नई राहें
भरपाई की कोशिश में
बनते बिगड़ते
रमाकात सिंह 18/10/1995
Saturday, 4 February 2012
गुमशुदा धरोहर
परंपराओं के रक्षार्थ
एक तर्क लेकर
गुमशुदा धरोहर की तलाश में
सख्ती से कदम उठाते
फलक पर अकेले खड़े हम,
अजीबो गरीब स्थिति में
संकट के पड़ाव जहां
सिर्फ
अंधेरा ही अंधेरा,
नैतिक हदों के पार
स्वयं का अहंकार
और भले लोगो की
नियत पर
उठता गिरता सवाल,
अधर में लटकता अस्तित्व
अभी सबक पाना बाकी है
उजाला लाने की कोशिश में
सभी बौने होते चले गए
तस्वीर बदली नहीं
गले तक कीचड़ में सन गए
छंटेगा अंधकार का दौर?
कोई न कोई तो पहचानेगा
तब आंखों में तैरेगी
खुशियां आंसू बनकर
रमाकान्त सिंह 08/09/1995
Thursday, 2 February 2012
आसक्ति
संसार की रीतें बहुत हैं पुरानी
जीना हमें है नहीं उन्हें दुहरानी,
आओ मिलकर करें हम नये काम
पुराने रिवाजों को करने दो विश्राम,
करेंगे नये आज हम रीति निर्मित
भले काम होंगे तो होंगे वो चर्चित,
किन्तु न तोड़ें घर की दिवारें
मात्र हम पाटें सामाजिक दरारें,
रमाकांत सिंह 08/09/1975
मेरी अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से मुझे शांति
देती है। लेखन द्वारा एक प्रयास कुछ कहने सीखने का।
यह मेरी पहली रचना है। आज जिसे मैं अपनी जान और
ईमान से भी ज्यादा प्यार करता हूं उसे समर्पित
चित्र गूगल से साभार
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