संसार में सब दुखी हों
सबका सत्यानाश हो
संताप हो प्रतिपल
सब रोगग्रस्त हों
कभी किसी का
कल्याण न हो
सबके राहों पर
कांटे ही कांटे हों
मन सोचने लगा ,
क्या सोचने लगा ?
किसने बनाई दुनियां?
किसने दिये सपने?
क्यों फूल राहों में?
बिखरायें सदा हम ही
क्यों पोंछते मिलें?
अनजान के आंसू
हर राह हों अपनी
हों मंजिलें आसां
क्यों छत रहे सर पर?
क्यों नम रहें आंखें?
क्या रात हों काली?
क्यों कोंख हों खाली?
मन सोचने लगा
क्या सोचने लगा?
हर दिन हो दिवाली
सर्वत्र खुशहाली
मन की कठौती में
हो धार गंगा की
सब पार हों भव से
बरसात अमृत की
समभाव हो मन में
समदृष्टि हो सबकी
मन सोचने लगा
क्या सोचने लगा?
रमाकांत सिंह 14/11/2010
चित्र गूगल से साभार